सुनील वर्मा
समाज में अपराध सदियों से होता आया है। बस बदलते दौर के साथ इसके तरीकों में बदलाव होता रहा है। लेकिन अपराध की कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो दशकों बाद भी दोहराई जाती दिखती हैं। ऐसी ही एक घटना है फौजी परिवार से जुड़े सगे भाई-बहन संजय और गीता चोपड़ा की नृशंस हत्या की। संजय-गीता की नृशंस हत्या करने वाले अपराधियों को करीब चार दशक पूर्व ही फांसी दी जा चुकी है लेकिन आज भी जब ऐसी कोई जघन्य वारदात होती है तो लगता है कि रंगा-बिल्ला कभी मरते नहीं। वे अलग-अलग नाम से आज भी समाज में खुले घूम रहे हैं।
किस्सा लगभग 50 साल पहले 26 अगस्त, 1978 की रात का है। देश की राजधानी दिल्ली के धौला कुआं स्थित आॅफिसर एनक्लेव में रहने वाले भारतीय नौसेना के वाइस एडमिरल मदन मोहन चोपड़ा और उनकी पत्नी रोमा चोपड़ा दिन भर से रूक-रूक कर हो रही बारिश और अंधड़ के कारण चिंतित और परेशान थे। परेशानी का असल कारण था उनके दोनों बच्चों का अचानक लापता होना। पुलिस दस्तावेजों के मुताबिक, चोपड़ा परिवार की 17 वर्षीय बेटी गीता चोपड़ा जो दिल्ली के जीसस एंड मैरी कॉलेज में बीए सेकेंड ईयर की स्टूडेंट थी और 14 साल का बेटा संजय चोपड़ा जो मॉर्डन स्कूल में दसवीं का छात्र था, शाम को घर से निकले थे लेकिन देर रात तक वापस नहीं लौटे। 5 फुट 10 इंच लंबे संजय का सपना पिता की तरह नौसेना में बड़ा अफसर बनने का था जबकि चुलबुली गीता खेलने, वेस्टर्न म्यूजिक और डांस की शौकीन थी। संजय गजब का बॉक्सर भी था।
संजय और गीता 26 अगस्त की शाम करीब सवा छह बजे आकाशवाणी केंद्र के लिए घर से निकले थे। उन्हें वहां आॅल इंडिया रेडियो के युववाणी के वेस्टर्न गानों के एक फरमाइशी प्रोग्राम ्रल्ल ३ँी ॠ१ङ्मङ्म५ी में हिस्सा लेना था। परिवार में तय हुआ था कि छह बजे घर से निकल कर बच्चे संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन पहुंच कर रिकार्डिंग कराएंगे। 8 बजे यह प्रोग्राम आना था। नौ बजे पापा मदन मोहन चोपड़ा उनको वापस घर लाने के लिए खुद वहां पहुंचेंगे। शाम 8 बजे मदन मोहन व रोमा चोपड़ा ने रेडियो खोला तो वो प्रोग्राम ही नहीं आया जो रेडिया पर आना था। चिंता व उत्सुकता में मदन मोहन चोपड़ा नौ बजे आॅल इंडिया रेडियो पहुंचे। बच्चों को खोजा तो वे वहां नहीं मिले। पता किया तो जानकारी मिली कि बच्चे तो रिकॉर्डिंग के लिए आए ही नहीं। अब उनकी परेशानी और बढ गई। चोपड़ा वापस घर पहुंचे तो पत्नी रोमा ने बताया कि बच्चे तो घर भी नहीं आए, न ही उनका कोई फोन आया। परेशान चोपड़ा दंपत्ति ने अपने दोस्तों और परिचितों के यहां फोन किए, धौला कुआं से लेकर संसद मार्ग के बीच पड़ने वाले सभी अस्पतालों में भी पूछताछ कर ली। उन्हें आशंका हो रही थी कि कहीं उनका एक्सीडेंट न हो गया हो। लेकिन बच्चों का कुछ पता नहीं चला। आखिर रात के 11 बजे उन्होंने धौला कुआं पुलिस को सूचित किया।
वे दोनों बड़े फौजी अफसर के बच्चे थे लिहाजा अगली सुबह से ही पुलिस युद्ध स्तर पर बच्चों की तलाश में जुट गई। नौसेना के सैकड़ों जवान भी पुलिस के साथ तलाश में जुट गए। उनकी तलाश में तीन दिन गुजर गए लेकिन उनका कोई सुराग नहीं मिला। 29 अगस्त की सुबह चोपड़ा परिवार के दरवाजे पर जो दस्तक हुई वो एक बुरी खबर लेकर आई थी। दरअसल पुलिस को रिंग रोड पर संजय और गीता की उम्र के एक लड़के और एक लड़की की लाश मिली थी जिसकी सूचना पुलिस को एक चरवाहे ने दी थी। चोपड़ा दंपत्ति पुलिस के साथ रिंग रोड के जंगलों में पहुंचे तो वो हुआ जो उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उनकी जिंदगी का सबसे दर्दनाक और अकल्पनीय मंजर सामने था। खून से लथपथ तथा बारिश के कारण काफी हद तक सड़ चुकी दोनों लाशें उनके मासूम बच्चों गीता और संजय की ही थीं।
इस वारदात ने दिल्ली शहर में सनसनी फैला दी। उन दिनों न तो सोशल मीडिया था न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इसके बावजूद इस वारदात को ऐसी सुर्खियां मिली कि हरकत में आना पुलिस की मजबूरी बन गई। मामले की जांच तुरंत क्राइम ब्रांच को सौंप दी गई। जांच हाथ में लेने के बाद क्राइम ब्रांच को दो अलग-अलग मामलों की जानकारी भी मिली जिससे लगा कि उन घटनाओं का संबंध संजय और गीता से था। दरअसल हुआ यूं था कि 26 अगस्त की ही शाम को पुलिस कंट्रोल रूम को भगवान दास नाम के एक व्यक्ति ने कॉल करके बताया था कि वह बंगला साहब गुरूद्वारे से नॉर्थ एवेन्यू की ओर अपने स्कूटर से जा रहा था कि शाम करीब पौने सात बजे उसने देखा कि नींबू कलर की एक फिएट कार गोल मार्केट चौराहे पर उनके पास से गुजरी जिसकी पिछली सीट पर दो किशोर थे। उनमें एक लड़की थी जो मदद के लिए चिल्ला रही थी। भगवान दास के मुताबिक, फिएट कार का नंबर एचआरके 8930 था। भगवान दास से मिली सूचना को कंट्रोल रूम ने रूटीन की तरह लिया और वायरलेस के जरिये तमाम पेट्रोलिंग जिप्सी को भेज दिया।
ठीक उसी दिन राजेंद्र नगर पुलिस थाने में भी डीडीए में जेई के पद पर काम करने वाले इन्दरजीत सिंह ने एक ऐसी ही शिकायत दर्ज कराई थी कि शाम करीब साढ़े छह बजे उसने आरएमएल अस्पताल के पास मस्टर्ड रंग की एक तेज रफ्तार फिएट कार जिसका नंबर एचआरके 8930 था को देखा जो उसके स्कूटर के पास से गुजरी। उस गाड़ी में दो लोग आगे बैठे हुए थे। एक लड़का और लड़की पिछली सीट पर थे। इंदर ने शंकर रोड तक गाड़ी का पीछा करते हुए देखा था कि लड़की और लड़का चीख रहे थे और ड्राइवर तथा उसके साथी के बाल नोंच रहे थे। ड्राइवर एक हाथ से कार चला रहा था और दूसरे हाथ से लड़की को मार रहा था। भीड़ बढ़ने पर ड्राइवर ने गाड़ी दौड़ा दी और लाल बत्ती तोड़कर भाग गया। राजेंद्र नगर पुलिस थाने में भी इस सूचना की डीडी एंट्री तो हुई मगर इसे भी गंभीरता से नहीं लिया गया। पुलिस फाइलों में दर्ज हुए दोनों मामलों को जोड़कर देखा गया तो क्राइम ब्रांच को यकीन हो गया कि संजय और गीता की गुमशुदगी और उस फिएट कार में कहीं न कहीं कोई रिश्ता जरूर है।
क्राइम ब्रांच ने स्थानीय पुलिस की मदद से शहर के चप्पे-चप्पे पर उस कार की तलाश शुरू कर दी। ट्रांसपोर्ट विभाग के रिकॉर्ड से पता चला कि उस नंबर की कार पानीपत के रविंदर गुप्ता की है। पुलिस जब पानीपत में कार के रजिस्टर्ड पते पर पहुंची तो पता चला कि एचआरके 8930 नंबर की गाड़ी वास्तव में एक अंबेसडर कार थी जो उस वक्त वहीं थी। गाड़ी इतनी खराब हालत में थी कि दिल्ली जाना तो दूर उसे चार कदम भी नहीं चलाया जा सकता था। मतलब साफ था कि जिस फिएट कार की पुलिस को तलाश थी उस पर फर्जी नंबर प्लेट लगी थी। कातिल तक पहुंचने के लिए हाथ लगा इकलौता सुराग भी अब पुलिस के हाथ से निकल चुका था। पड़ताल के दौरान पुलिस ने गीता और संजय की या उनके माता-पिता की किसी से दुश्मनी के बिंदू पर जांच शुरू की तो वहां भी कई तरह की कहानियां समाने आई। मगर उनकी पड़ताल करने पर पुलिस को निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली पुलिस की हताशा और उस पर रक्षा तथा गृह मंत्रालय का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था। मीडिया से लेकर तमाम राजनीतिक व सामाजिक संगठन पुलिस के निकम्मेपन को लेकर सवाल उठाने लगे थे। मामला एक बड़े नोसैनिक अधिकारी के बच्चों का था। गीता व संजय चोपड़ा की हत्या जिस नृशंसता से की गई थी उसके कारण भी लोग ज्यादा उद्वेलित थे।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि संजय के शरीर पर धारदार हथियार से 25 वार किए गए थे जबकि गीता के शरीर पर जख्मों के छह निशान थे। साथ ही कातिल ने गीता को अपनी हवस का शिकार भी बनाया था। मौका-ए-वारदात पर मौजूद खून के धब्बे, गीता की लाश के पास मिले कुछ बाल और मिट्टी के नमूनों को फॉरेंसिक जांच के लिए भेजा गया। खून के धब्बों और बालों की जांच से साफ हो गया कि वारदात को अंजाम दो लोगों ने दिया है। अब सवाल ये था कि दोनों दरिंदे कौन हैं। पुलिस कातिलों तक पहुंचने की कोशिशों में लगी ही थी कि 31 अगस्त की शाम को उत्तरी दिल्ली के मजलिस पार्क इलाके में पुलिस को एक फिएट कार लावारिस खड़ी मिली। क्राइम ब्रांच भी मौके पर पहुंची। उस पर एचआरके 8930 नंबर की प्लेट लगी थी। अब साफ हो गया था कि उस शाम जिन दो लोगों ने फिएट कार तथा उसके भीतर हाथपाई देखी थी वो यही फिएट कार थी। खबर देने वाले भगवान दास और इंदर सिंह को बुलाया गया तो उन्होंने इस बात की पुष्टि भी कर दी कि ये वही गाड़ी थी जिसे उन्होंने देखा था। कार से एक अलग नंबर प्लेट भी बरामद हुई। गहन जांच के बाद पता चला कि मजलिस पार्क में बरामद हुई कार का असली नंबर डीईए 1221 है जो अशोक होटल के सामने से चोरी हुई थी। उसका मालिक अशोक शर्मा था जिसने कार की चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी थी।
पुलिस ने कार में मिले फिंगर प्रिंट को फॉरेंसिक लैब भेज दिया था। फॉरेसिंक एक्सपर्ट ने गाड़ी के अंदर से मिले इन निशानों को पुलिस रिकॉर्ड में मौजूद अपराधियों से मिलाने के लिए भेज दिया। क्राइम ब्रांच ने जब उनका मिलान शातिर बदमाशों की फाइलों से करना शुरू किया तो एक महत्वपूर्ण फाइल के रिकॉर्ड पर उनकी नजरें टिक गई। ये फाइल थी मुंबई से फरार दो शातिर बदमाशों रंगा और बिल्ला की। क्राइम ब्रांच के अधिकारी आगे की छानबीन के लिए मुंबई रवाना हो गए। वहां रंगा-बिल्ला के रिकॉर्ड खंगालने की शुरुआत हुई तो पता चला कि मुंबई क्राइम ब्रांच को भी दोनों अपराधियों की कई मामलों में तलाश थी। कुलजीत सिंह उर्फ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला पर फिरौती के लिए अपहरण और कार चोरी जैसे कई मामले दर्ज थे। दोनों पुलिस हिरासत से फरार हुए थे। चूंकि मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड में रंगा और बिल्ला के उंगलियों के निशान मौजूद थे। घटनास्थल व कार से मिले फिंगर प्रिंट फाइल में मौजूद फिंगर प्रिंट से मिल गए। अब साफ हो गया था कि संजय और गीता की नृंशस हत्या रंगा और बिल्ला नाम के इन्हीं दो अपराधियों ने की थी। लिहाजा दिल्ली पुलिस ने मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड में मौजूद रंगा-बिल्ला के फोटो हासिल कर उनकी तलाश के लिए दिल्ली शहर में चप्पे-चप्पे पर पोस्टर लगवा दिए।
ऐसे हुई थी नृशंस वारदात
क्राइम ब्रांच जांच में जुटी ही थी कि 8 सितंबर को खबर मिली कि रंगा-बिल्ला से मिलती शक्ल के दो लोग पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पुलिस के हत्थे चढ़े हैं। क्राइम ब्रांच की टीम जब पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के थाने पहुंची तो उनके सामने वाकई संजय-गीता चोपड़ा के हत्यारे रंगा और बिल्ला ही थे। जिन चश्मदीदों ने उन्हें फिएट कार में देखा था उन्होंने भी दोनों को पहचान लिया। रंगा और बिल्ला से जब पूछताछ हुई तो दो मासूमों के घिनौने हत्याकांड और देश की राजधानी में एक किशोरी से हुए गैंगरेप की पहली और सबसे चर्चित घटना का सच परत दर परत सामने आ गया।
दरअसल, 26 अगस्त की शाम आॅल इंडिया रेडियो जाने के लिए घर से निकले संजय और गीता एक बस में सवार होकर गोल डाकखाना पहुंचे। वहां से दोनों भाई-बहन संसद मार्ग की तरफ जाने के लिए किसी सवारी का इंतजार कर रहे थे तो अचानक एक फिएट कार उनके पास आकर रूकी। चोरी की उस कार में पेशेवर अपराधी रंगा-बिल्ला सवार थे जो किसी शिकार की तलाश में निकले थे। संजय और गीता ने उनसे आकाशवाणी तक छोड़ने की बात कही तो दोनों ने उन्हें लिफ्ट दे दी। उन्होंने संजय और गीता को मदद करने की नीयत से लिफ्ट नहीं दी थी। दरअसल संजय और गीता पहनावे और व्यक्तित्व से ही किसी अमीर परिवार के बच्चे लगते थे इसीलिए रंगा-बिल्ला ने पहले विचार किया कि उनका अपहरण कर परिवार वालों से मोटी फिरौती वसूलेंगे। लेकिन उन्हें अपना ये विचार बीच रास्ते में ही बदलना पड़ा क्योंकि उन्होंने जब अपनी कार को जैसे ही आकाशवाणी जाने की जगह विपरीत दिशा की तरफ घुमाया तो गीता और संजय को समझ में आ गया कि उन्होंने अपराधी किस्म के लोगों से लिफ्ट ले ली है। लिहाजा दोनों भाई-बहन ने कार को रोकने के लिए कहा और उनसे चलती कार में ही झगड़ने लगे। इसी झगड़े को स्कूटर सवार दो लोगों ने देखकर पुलिस को सूचना दी थी। रंगा-बिल्ला का गाड़ी में ही संजय और गीता से झगड़ा और मारपीट शुरू हो गया था इसीलिए कार एक चलती बस से टकरा कर मामूली रूप से क्षतिग्रस्त भी हो गई थी। हाथापाई और भाई-बहन की चीख पुकार के बीच रंगा-बिल्ला कार को रिंग रोड पर एक सुनसान स्थान पर जंगल वाले इलाके में ले गए।
संजय की उम्र जरूर कम थी लेकिन कदकाठी और फौजी परिवार का होने के कारण उसमें ताकत के अलावा हिम्मत भी कूट-कूट कर भरी थी। बहन की अस्मत लूटने के लिए बढ़ रहे रंगा-बिल्ला से वह हिम्मत के साथ भिड़ गया लेकिन वो मासूम ज्यादा देर तक उन शातिर अपराधियों से लड़ न सका। रंगा-बिल्ला ने कार में रखी तलवार से संजय पर उस वक्त तक वार किए जब तक संजय खून से लथपथ होकर निढाल नहीं हो गया। इसके बाद जंगल में रंगा-बिल्ला ने बारी-बारी से गीता के साथ रेप किया और फिर उसी तलवार से गीता की भी हत्या कर संजय की लाश से थोड़े अंतराल पर फेंक दिया। रंगा और बिल्ला की गिरफ्तारी से पहले ही मामला सीबाआई के सुपुर्द कर दिया गया था।
गिरफ्त में ऐसे आए
उन दिनों कानून व्यवस्था की लचर स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इतनी बड़ी वारदात को अंजाम देने के बाद दोनों आरोपी पहले आगरा गए, इसके बाद रंगा आगरा से अकेले बंबई चला गया। वहां भी उसने एक अपराध को अंजाम दिया। बाद में वह बिल्ला के पास आगरा लौट आया। वहां से दिल्ली लौटते समय दोनों सैनिकों के लिए रिजर्व ट्रेन में चढ़ गए जिस वजह से उनका सैनिकों से झगड़ा हो गया और सैनिकों ने उनकी पिटाई कर उन्हें दिल्ली पहुंचने पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पुलिस के हवाले कर दिया। इसके बाद क्राइम ब्रांच ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया जहां से उन्हें सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया।
कोर्ट का सख्त फैसला
सीबीआई ने रंगा-बिल्ला के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। दोनों के खिलाफ कार से लेकर सड़क तक चश्मदीदों के रूप में कई सबूत थे। साथ ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट से गीता के साथ बलात्कार की पुष्टि भी हुई थी जिसे गंभीर अपराध मानते हुए पटियाला हाउस कोर्ट के एडिशनल सेसन जज ओएन वोहरा ने उन दोनों को फांसी की सजा सुनाई। निचली अदालत के फैसले को उनके वकील ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी। मगर दिल्ली हाई कोर्ट ने 7 अप्रैल, 1979 को उनकी अपील को नामंजूर कर दिया। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हुई अपील पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने भी दोनों की फांसी की सजा को बहाल रखा। सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा मिलने के बाद रंगा-बिल्ला ने राष्ट्रपति से भी दया की अपील की थी लेकिन राष्ट्रपति एन. संजीव रेड्डी ने भी दया की अपील को जल्दी ही खारिज कर दिया। अंतत: 31 जनवरी, 1982 को कुलदीप सिंह उर्फ रंगा और जसवीर सिंह उर्फ बिल्ला को तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया गया। संजय-गीता हत्याकांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संजय और गीता के नाम पर 1978 में बहादुर बच्चे-बच्चियों के लिए वीरता पुरस्कार शुरू किया जो हर साल गणतंत्र दिवस पर आज भी दिया जाता है।
पहली बार दिखा था लोगों में ऐसा आक्रोश
संजय-गीता की गुमशुदगी जहां दर्ज हुई थी और जिस इलाके में उनका शव मिला था उस इलाके (दक्षिण दिल्ली) के डीसीपी उन दिनों डॉ. केके पॉल थे जो बाद में दिल्ली पुलिस आयुक्त भी बने और इन दिनों उत्तराखंड के राज्यपाल हैं। दिल्ली पुलिस के कमिश्नर उन दिनों जेएन चतुर्वेदी थे जिन्होंने 28 अगस्त को संजय और गीता या अपहरणकर्ताओं का सुराग देने वाले के लिए 2,000 रुपये के ईनाम की घोषणा भी की थी। घटना के तीन दिन बाद जब संजय और गीता का शव बरामद हुआ तब तक दोनों के शव सड़ना-गलना शुरू हो चुके थे। संजय-गीता का शव मिलने के बाद दिल्ली में आक्रोश इतना बढ़ गया कि स्कूल-कॉलेजों में छात्रों के उग्र प्रर्दशन शुरू हो गए। लोगों ने पहली बार किसी घटना को लेकर बोट क्लब पर धरने प्रर्दशन किए। निर्भया केस के बाद दिखा आक्रोश कमोबेश वैसा ही था। संजय-गीता की मौत के बाद दिल्ली में सियासी हंगामा भी शुरू हो गया था। जब ये घटना हुई थी तब केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार थी। संयोग से उस समय संसद का मानसून सत्र भी चल रहा था। इस घटना के कारण संसद में कई दिन खूब हंगामा हुआ। सरकार के खिलाफ हंगामा इतना बढ़ा कि राज्यसभा में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के इस्तीफे की मांग होने लगी। लोगों के गुस्से से बचने के लिए मोरारजी क्यूबा के राष्ट्रपति की मौत की सभा में भाग लेने के बहाने विदेश खिसक गए। संजय-गीता हत्याकांड की जांच के दौरान पुलिस को भी कई तरह की मुश्किलों को सामना करना पड़ा क्योंकि तब अपराध अनुसंधान की आधुनिक और वैज्ञानिक तकनीक देश की पुलिस के पास नहीं थी।