सत्यदेव त्रिपाठी
अल्लामा इकबाल ने कभी कहा था- ‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा…।’ ठीक ऐसा ही घटित हुआ है बाणभट्ट लिखित विश्व के प्राय: पहले उपन्यास ‘कादम्बरी’ के साथ…जिसे एक हजार एक सौ साल तक इंतजार करना पड़ा मंच पर आने के लिए…। आखिर 17 जून, 2018 को आई वह यादगार शाम, जब मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल ने अपने निदेशक संजय उपाध्याय के नेत्तृत्त्व व निर्देशन में विद्यालय के मंचागार में इसे प्रस्तुत करके कला जगत में एक स्वर्णिम इतिहास रचा…। पिछले साल विद्यालय ने राजा विश्वनाथ सिंह द्वारा रचित और हिन्दी के प्रथम नाटक के रूप में मान्य ‘आनन्द रघुनन्दन’ को मंच पर उतारा था। उसी ऐतिहासिक कला-कर्म की यह अगली और अधिक चुनौतीपूर्ण व पुरजोर कड़ी है। यूँ तो सर्जक का कोई देश-काल नहीं होता, लेकिन इन दोनों रचनाकारों का मध्य प्रदेश की भूमि के साथ जन्म-संबंध का सुखद संयोग भी इस कलाकर्म को चार चांद लगा रहा है…
‘कादम्बरी’ जैसा नाट्य-कर्म लाभ-हानि के गणित से परे रहकर ही किया जा सकता है, जिसके कारण कोई बड़े से बड़ा व्यावसायिक रंगमंडल इसे कर-करा नहीं सकता था और गम्भीर नाट्यकर्मी तो अपनी आर्थिक औकात में सोच भी नहीं सकता। हाँ, कर सकता था, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), जो ऐसे ही कार्यों के लिए बना है और उम्र का अर्ध शतक पार कर चुका है…। शुरू के सालों में कुछ उल्लेख्य कार्य हुए भी, लेकिन फिर उसकी प्राथमिकताएं सरकारी हो गर्इं और नीयत सामंतवादी से होते हुए पूंजीवादी होती गई है…। सो, उसकी जुस्तजू में किसी मौज की, सिन्धु के; थाहने की घड़ी किंतु टलती रही…।
अत: निहित संसाधनों के साथ इसे साधने की पहली और आखिरी शर्त बचती है- रंगकर्मी की अनथक मेहनत व अकूत प्रतिबद्धता…और इसी के बल-बूते मप्रनावि ने इसे साधा है, जिसका किंचित्सहभोक्ता रहकर देख सका मैं कि चाहे राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे कादम्बरी मर्मज्ञों के साथ संवाद हो, काव्यानुवाद का पाठ हो, संस्कृतनिष्ठ भाषिकता से बनती कथा के मर्मों को समझने के विश्लेषण व श्लोकों को साधने के अभ्यास का पाक्षिक उपक्रम हो, बाणभट्ट की जन्मस्थली व उनकी रचना की प्रेरणाभूमि विन्ध्याटवी के पहाड़ों-जंगलों, नदियों-पठारों की तपती यात्राओं के दौरान इस प्रांतर की जीवंत लोक कलाओं से साक्षात्कार हो… हर सम्भव तरीके व तरह से दिन-रात की अनथक मेहनत से अर्जित ज्ञान-कला की थाती के साथ प्रियवर योगेश त्रिपाठी के सुबुद्ध व सधे नाट्य रूपांतर के मूल आधार पर शुरू हुई महीने भर (फोर वीक्स के मानक) की अदम्य कला साधना का प्रतिफल है यह प्रस्तुति…
‘कादम्बरी’ के लिए सोलहो आना सच है वह विख्यात कहावत कि साहित्य व कला में विषय नहीं, प्रस्तुति नई होती है…। और सच ही प्रेम जैसा सर्वमान्य और प्राय: सामान्य-सा तत्त्व ‘कादम्बरी’ का एकमात्र विषय है। फिर वह भी भला कैसा !! …चन्द्रापीड और वैशम्पायन नामक दोनों मित्र नायकों तथा कादम्बरी और महाश्वेता नामक दोनों सखी नायिकाओं के बीच पहली दृष्टि में ऐसा गहन प्यार होता है कि दोनों नायक तीन-तीन जन्मों में मुनि कुमार से राजा, राजकुमार, मंत्री और तोता…आदि तक होते रहते हैं और वे दोनों अच्छोद सरोवर के पास अनंत काल तक आतुर प्रतीक्षा करती रहती हैं…। इतना ही नहीं, नानियों वाली राजा-रानी की कहानियों में ‘जैसे उनके दिन फिरते हैं’, यहाँ भी मिलन और सुखमय अंत होता है। वो तो प्रस्तुति का अभिनव व अजूबा विधान ही है कि ये पात्र सनातन एकनिष्ठ प्रेमी-प्रेमिका व उदात्त मित्रता के प्रतीक बन जाते हैं, जो आज भयंकर छल-प्रपंच के युग में अनुकरणीय व उदाहरणीय आदर्श रूप में प्रतिष्ठा पा सकेंगे। इस विधान की दो परम खासियतें हैं। पहली है- तीन जन्मों की कथा का अंत से शुरू होकर पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शैली में तीन कथा वाचकों के जरिये परत-दर-परत खुलते हुए आदि तक पहुँचकर अंतिम समागम में खिल उठना…। और दूसरी है- हर कदम पर सभी प्रमुख पात्रों और परिवेश के सभी रूपों के सूक्ष्मतर अवयवों का अनंत विस्तार के साथ काव्योपम चित्रण, जिसके चलते बमुश्किल दस पृष्ठों की यह प्रेम कहानी टीका के अलावा लगभग 400 पृष्ठों में फैली है।
ये विधान ही कादम्बरी के कादम्बरीत्त्व हैं, उसे कादम्बरी बनाते हैं। कादम्बरी का एक अर्थ शराब भी होता है और इस विधान में ऐसा नशा है, जो जिसको लगा, जीवन भर उतरा नहीं। इसी के चलते ‘कादम्बरी’ एक उच्च कोटि की क्लासिक रचना में शुमार है। और क्लासिक की एक बड़ी कुदरत होती है, कालजयी होना- वही 1100 सालों से पढ़े जाना…। लेकिन साथ ही उसकी एक अनिवार्य-सी फितरत भी होती है- एक बुद्धिविलासी वर्ग (क्लास) तक सीमित रहना। कालिदास हों चाहे भवभूति… प्राय: सबका यही हाल है। ‘रामचरित मानस’ और ‘दीवाने गालिब’ ही इसके अपवाद हैं, जिनके पुन: कुछ अपने सामाजिक और रचनात्मक कारण हैं। कादम्बरी-पाठ के साथ यही हुआ। बुद्धिविलासी वर्ग तक सीमित रही। और अब इस प्रस्तुति के साथ भी यही होगा। हालांकि इसे दृश्य विधा की कुदरत कहें या ‘कादम्बरी’ के इन प्रस्तोताओं की फितरत…कि तीन जन्मों व तीन वाचकों के विधान में उलझी कथा तो नाटक में बहुत अच्छी तरह सुलझ कर दर्शकों तक पहुँच जाती है, किन्तु पाठ रूप में प्राय: ढेरों पाठ्यक्रमों में रहने के बावजूद सहज रूप में आज तक नहीं पहुँच पायी। जिम्मेदार है- यही रचना कौशल। इसके बिना यह सातवीं सदी में ही अजूबा व सतही प्रेम कथा बन जाती और तब आज उसका कोई नामलेवा न रह जाता…!! उसी तरह इस विधान को मंचन में उतारे बिना सिर्फ कथा सुना के निकल जाते, तो आज प्रस्तुति भी ‘कादम्बरी’ की विद्रूप बनकर रह जाती…। अस्तु, साधना तो थी ही…। अच्छा हुआ कि योगेशजी ने यथासम्भव चित्रणों को संवादों में लाने का विरल व सराहनीय कार्य तो किया ही, ‘आदौ राम तपोवनादि गमनम’ की परम्परा में कादम्बरी कथासार रूप में एक गतिमान व प्रभावी गीत भी लिखा है। फिर इसके कादम्बरीत्त्व को जिन घोषित व पोषित नाट्य युक्तियों व शैलियों में उतारने के लिए निर्देशक संजयजी ने जो विविध विधान रचे, उनसे यह सधा, तो क्या ही खूब सधा…!! किंतु उन विधानों को समझने के लिए एक खास तरह के नाट्य-संस्कार वाले धैर्यवान दर्शक (सहृदय) की दरकार होगी, जिसका होना आज के व्यावसायिक व सतही किस्म के कला-समय में एक बड़ा सवाल है…।
बहरहाल, इसमें प्रयुक्त विधान भरत मुनि कालीन रंगदेवता से लेकर आधुनिक रंग शैलियों और तकनीकी युक्तियों तक के सुयोग से सधे हैं। शाप से मर जाना, उसकी अवधि पूरी होने पर जी जाना, तालाब में कूदकर इन्द्रायुध घोड़े का पुन: कपिंजल के रूप में आदमी बन जाना, नायकों का इस देह से निकलकर उस देह में चले जाना और इस जीने-मरने के लिए मूल में लिखित कामदेव के तीर को खींच कर मद्धम गति से चलते हुए ऐन क्षण पर लगने और मृत के जी उठने को साकार कर देने…आदि जैसे ढेरों विकट असाध्यों को अत्याधुनिक उत्कट तकनीक के ‘विशेष दृश्य प्रभावों’ द्वारा नाट्योचित बना दिया है सुरभि थियेटर कम्पनी (हैदराबाद) के चार कुशल लोगों ने। कथा माध्यम की छूट में कहानी के अनेक मोड़ों को भिन्न-भिन्न कोणों से घूम-घूम कर गाते हुए पाँच कलाकारों की कीर्त्तन मंडली की परंपरा-सिद्ध सर्जना से साध लिया गया है। गगनदीप ने ढेरों पात्रों के भिन्न-भिन्न दृश्यों में बहुरूपी वेश-भूषा को एक भव्य मानक वस्त्र-विन्यास देकर शोभा और प्रयोजन दोनों का सुयोग सुलभ करा दिया है और उन पर छजते आभूषण अपनी सादगी में पात्र और प्रस्तुति पर भार हुए बिना देह और दृश्य को आह्लादक बना देते हैं। तोते, घोडेÞ एवं अन्य वन्य पशुओं के रूप-आकार व गति को निश्चित व सही समय में समंजसित करते हुए मोहक भी बना देना जहीन रंग-कला का सिला बन गया है। भरत शर्मा का नृत्य-नियोजन (कोरियोग्राफी) लय-गति-भंगिमा का लोचमय समाहार-सा फबा है।
लेकिन सबसे प्रखर ‘मास्टर की’ का काम किया है कन्हैयालाल कैथवास की मंच परिकल्पना ने, क्योंकि कथा माध्यम में भूमि से आसमान तक के अनंत स्थलों की खुली छूटों को एक स्थल (मंच) पर अंजाम दे देने की चुनौती ही रंगकला में सबसे बड़ी होती है। अभिशाप व घोषणादि के सभी हवाई दृश्यों व संवादों के लिए मंच के पृष्ठ भाग में बनी ढलान बिल्कुल फिट साबित होती है। दरबार आदि के दृश्यों के लिए गतिशील सेट पलक झपकते लग व हट कर अपेक्षित प्रभाव डालने में समर्थ हो सके हैं। इस चलायमानता के समक्ष मोटी-मुलायम रस्सियों का एक स्थिर गुल्म बना है, जो विशाल जंगली पेड़ और उसमें निहित ‘कोटरै कोटर’ से लेकर संयोग शृंगार दृश्यों की रूमानी आँखमिचौलियों एवं विरह की तड़प के आश्रय तक तथा मोह-विजड़ित वैश्म्पायन रूपी पुण्डरीक के छिपने-प्रकट होने…आदि अनेकानेक दृश्यों व क्रिया-व्यापारों के लिए बहुविध उपयोगी सिद्ध होते हुए अद्भुत मंच-कल्पना की मिसाल बन गया है। ऐसा ही कई कई अवसरों पर विभिन्न भावों के लिए आधार व माध्यम रूप में उपयोगी होते हुए दोनों तरफ लगे कुसुमोपम पर्दे दर्शकदीर्घा के लिए अनुपम रूप से नयनाभिराम भी बन जाते हैं। इन सारी सम्पति (प्रॉप) को तैयार करने का कुशल दायित्त्व निभाया है एन.जदुमणि सिंह ने।
लेकिन सर्वाधिक इंतजार रहता है आज के शीर्ष नाट्य-संगीतकार संजयजी के संगीत का। इस प्रस्तुति में गीत-संगीत भी मात्र श्रवण-सुख के लिए नहीं, वरन मूल कथा में शृंगार व प्रेमादि भावों के लंबे काव्यमय वर्णनों को मूर्त्त करने की दोहरी भूमिका को निभाते हुए आए हैं। पुन: कादम्बरी की भाषा के अनुरूप महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, नरेन्द्र शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, रामवृक्ष बेनीपुरी और सोम ठाकुर जैसे हिन्दी के शीर्ष कवियों की अवरानुकूल कविताओं का चयन सोने पे सुहागा का काम करता है। गीत के भिन्न-भिन्न बन्धों को अलग-अलग अवसरों पर साकार करने में चरित्रों की भाव-चेतना की सांगीतिक मेखला और उनके पात्रत्त्व की जुड़ती कड़ियों की शृंखला बन जाती है। महाश्वेता का पुण्डरीक के लिए ‘कौन तुम मेरे हृदय में’, चन्द्रापीड का कादम्बरी के लिए ‘मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार, पथ ही मुड़ गया था…’ और चन्द्रापीड के लिए एक बार माता-पिता की तरफ से, तो दूसरी बार कादम्बरी की तरफ से ‘जाओ, पर सन्ध्या के संग’ और ‘जाओ पर पुरवा के संग लौट आना तुम’ जैसे गीत विशेष व्यंजक भी बनते हैं और जी भी जुड़वाते हैं। इनके प्रयोग आवश्यकता व असर की दृष्टि से पात्रों के एकल और पार्श्व में बैठी संगीत मंडली के समूह-गान में दोनों तरह की रस-सृष्टि करते हैं। ऐसा ही नियोजन संजय-धुन पर प्रस्तुत श्लोकों का भी हुआ है।
और इन समस्त सम्भार को वाजिब दिशाओं-कोणों से आलोकित किया है- अभी-अभी संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत युवा विजयेन्द्र टांक ने। वेश और संगीत तो सचमुच ही इस प्रस्तुति के अनुपम शृंगार बन पड़े हैं। ऐसी और भी कारगर नाट्य-युक्तियां और शैलियां इस प्रस्तुति में भरी पड़ी हैं। इन सबको पेश करने की जिम्मेदारी अभिनय के जिन कन्धों पर थी, वे अनुभव और कौशल दोनों में अपेक्षाकृत नए थे। नाटक के हर विभाग की पूरी तैयारी भी उन्हीं के हिस्से में थी। लेकिन निर्देशक के स्नेहाधिकार की प्रेरणा और कुछ बड़ा करने की उनकी अंतरिम उत्तेजना से सब कुछ ठीक-ठीक होता गया। यदि दस-पाँच प्रस्तुतियों के अवसर बनते, तो अभिनय को और खुलने के द्वार मिलते और प्रदर्शन खूब खिलता। इसी मुकाम पर फिर रानावि को कोसने की नौबत आती है कि उसका रंगमंडल ऐसे काम से जी क्यों चुराता है?
इसके बावजूद कलाकारों में पूर्वजन्म की स्मृतियों की सनक में महाश्वेता को छेड्ते और फिर शुक होते हुए हर्ष प्रकाश (वैशम्पायन) को, और पूरे समय शुक बनकर मनुष्यों पर छाये अंकित दास को देखना किसी को भी मुतासिर कर जायेगा। लेकिन सभी कलाकार कहीं न कहीं अपनी प्रतिभा की आभा चमका ही जाते हैं…. प्रेमी की आतुर प्रतीक्षा में वीणा बजाती-गाती ईशा पाण्डेय (महाश्वेता), ,चन्द्रमा को फ़टकारते पुण्डरीक (रियांश), दोस्ती व प्रेम पर खरे उतरते भुवांशु (चन्द्रापीड), लजाती-शर्माती मेघना पांचाल (कादम्बरी), मित्र पुण्डरीक के लिए दीन-आतुर शुभम बारी (कपिंजल), शूद्रक की शालीन शान लिए संजय जादौन, थके-हारे, पर शिकार करते (और प्राय: सर्वाधिक भूमिकाओं में पगे) शिवकुमार, किन्नरी रूप में बल खाती मेघना अग्रवाल, कंचुकी में क्लिक होते शैलेन्द्र मण्डोड, वफ़ादारी की अकड में आरा खडा किये टुपकती कुलवर्धना (सारिका भारती), बूढा शुक बनकर बघेली बोलते असमी भाषी राधाकृष्ण, चन्द्रमा की दिव्यता बिखेरते दिनेश कुमार, उदारता और अधिकार के स्वामित्त्व में तारापीड (अरुण ठाकुर), निस्संतान होने की तडप लिये रानी विलासवाती (नयन रघुवंशी) गम्भीर उपदेश में शुकनास (सौरभ सिंह), बाणभट्ट की गुरुता लिये सिद्धार्थ अवस्थी, कर्त्तव्य की निष्ठा लिये पुलिन्द भट्ट (अंकित मिश्र)… आदि इसके प्रमाण हैं। जाबालि को मुनि वेश से इतना आच्छादित कर दिया कि बिचारे विवेक नामदेव ही खो गये। और चाडाल कन्या के वेश को ऐसा उभारा कि बिना बोले भी लाठी पटकती अदिति लाहोटी का ग़ुरूर निखर आया…।
और अंत में यह कि नाट्य-प्रयोगों के इतने-इतने सरंजामों से सजी ‘कादम्बरी’ तो बखूबी आलोकित हुई, पर दर्शक फँस जाता है इस ऊहापोह में कि इन सबको समझे कि उनका लुत्फ ले- तुमको देखूँ कि तुमसे प्यार करूँ! ऐसे में मैंने तय किया कि पहले शो में लुत्फ लूंगा और दूसरे में समझूंगा…। काश सभी ऐसा करते और कर पाते, तो मेरी ही तरह पूरी टीम को सलाम किए बिना न रहते…।