बीसवीं सदी में पचास से लेकर अस्सी के दशक तक एक ऐसा दौर था जब देश में एक के बाद एक ठगी की कई हैरतअंगेज घटनाएं घटीं। संसद से लेकर लालकिला, ताजमहल जैसी कई ऐतिहासिक धरोहरों को बेच देने, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नाम पर बड़े-बड़े व्यापारियों और सरकारी अफसरों को चूना लगाने जैसी हैरान करने वाली इन सभी घटनाओं को एक ही शख्स ने अंजाम दिया था जिसका नाम था नटवरलाल। भारत के सबसे कुख्यात ठग के रूप में चर्चित यह शख्स अपनी ठगबुद्धि की वजह से चार दशकों तक जालसाजी की दुनिया में एकछत्र राज करता रहा। अब दन्तकथाओं में याद किए जाने वाले नटवरलाल के कारनामे जानकार लोग आज भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं।
नटवरलाल का वास्तविक नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था जिसका जन्म 1912 में बिहार के छपरा जिले के रूइयां बंगरा गांव में हुआ था। यह गांव देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की जन्मस्थली जीरादेई से मात्र दो किलोमीटर दूर है। मिथिलेश के पिता रघुनाथ प्रसाद श्रीवास्तव ब्रिटिश सरकार में रेवेन्यू कलेक्टर थे। रघुनाथ श्रीवास्तव के दो पुत्र थे, बड़ा मिथिलेश और छोटा गंगाराम। मिथिलेश बचपन से ही चंचल और कुशाग्र बुद्धि का था। उसकी शुरुआती शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई जिसके बाद उसने पटना के कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला ले लिया। जब वह नवीं कक्षा में था तभी एक घटना ने उसे जिंदगी के दोराहे पर ला खड़ा किया। दरअसल, नवीं कक्षा में गणित में कम नंबर मिलने पर मिथिलेश ने अपने अध्यापक से नंबर बढ़ाने को कहा और नहीं बढ़ाने की सूरत में उन्हें पीटने की धमकी दे डाली। शिक्षक ने मिथिलेश के पिता से इसकी शिकायत की तो सख्त मिजाज पिता ने उसकी जमकर पिटाई कर दी। पिटाई से गुस्साए मिथिलेश ने घर छोड़ दिया और कलकत्ता (कोलकाता) भाग गया। कलकत्ता में कुछ दिन इधर-उधर भटकने के बाद उसकी मुलाकात बलराम देव हाई स्कूल के प्रिंसिपल से हो गई जिन्होंने अपने स्कूल में ही उसकी आगे की नि:शुल्क पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। जीवनयापन के लिए उन्होंने कलकत्ता के मशहूर सेठ केशवराम जो शेयर बाजार के बड़े दलाल थे, के दो बेटों के साथ कुछ अन्य बच्चों की ट्यूशन दिलवा दी। इसके बाद मिथिलेश की जिंदगी तेजी से दौड़ने लगी। यहीं से उसने बीकॉम और वकालत की पढ़ाई पूरी की लेकिन इसी दौरान एक वाक्ये से मिथिलेश के जीवन ने एक और करवट ली। दरअसल, किसी जरूरी काम के लिए मिथिलेश ने सेठ केशवराम से पचास रुपये एडवांस मांगे। सेठ ने न सिर्फ पैसा देने से इनकार किया बल्कि उसकी बेइज्जती भी कर दी। ये बात मिथिलेश के दिल में बैठ गई और उसने सेठ से इस बेइज्जती का बदला लेने की कसम खाई।
उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद कलकत्ता के सनातन धर्म हाई स्कूल में उसकी प्रधानाचार्य की नौकरी लग गई। संयोग से सेठ केशवराम के दोनों बेटों ने भी उसी स्कूल में दाखिला ले लिया जिस कारण सेठ से मिथिलेश का फिर मिलना-जुलना शुरू हो गया। अब उसके मन में सेठ से बेइज्जती का बदला लेने का ख्याल कुलांचे मारने लगा। उसने साजिश रच कर सेठ से एक लाख रुपये ठग लिए और अपनी बेइज्जती का बदला लिया। ठगी की इस पहली वारदात को अंजाम देने के साथ ही उसकी जिंदगी बदल गई और वह इसी रास्ते पर चल पड़ा। आगे चलकर स्कूल का वह प्रिंसिपल मशहूर ठग नटवरलाल बन गया।
एक दिन मिथिलेश ने सेठ केशवराम से कहा कि बंबई से एक दलाल कलकत्ता आया हुआ है जो कपड़े की 200 गांठें एक लाख रुपये की मामूली कीमत पर बेचना चाहता है। उन दिनों बाजार में कपड़े की भारी कमी थी। कालाबाजार में भी कपड़ा मुश्किल से मिल रहा था। उसने सेठ को भारी मुनाफे का लालच दिखा कर ऐसी कहानी तैयार की जिसमें सेठ फंसता चला गया। मिथिलेश ने सेठ से कहा कि दलाल ने माल की डिलीवरी बंबई (मुंबई) में करने की शर्त रखी है। मुनाफे की लालच में फंसे सेठ ने अपने मुनीम के साथ मिथिलेश को ही एक लाख रुपये देकर बंबई भेज दिया। बंबई जाकर उसने मुनीम को झांसा दिया कि कालाबाजारियों पर सीआईडी की जबरदस्त निगरानी है। मुनीम के मन में डील के दौरान पकड़े जाने का उसने ऐसा डर पैदा किया कि मुनीम ने उसे ही सारे पैसे देकर डील का जिम्मा सौंप दिया। मिथिलेश यही तो चाहता था। मौका मिलते ही वह एक लाख रुपये लेकर चंपत हो गया और लंबे समय बाद पहली बार अपने पैतृक घर पहुंचा। पिता को उसने बताया कि वह कलकत्ता की एक कपड़ा मिल में मैनेजर बन गया है। उसने ठगी की रकम में से पिता को 25 हजार रुपये भी दिए। पिता से तो उसने झूठ कहा था लेकिन छोटे भाई गंगाराम को सारी हकीकत बताकर कानूनी लफड़े में फंसने पर उसे मुकदमे की पैरवी के लिए तैयार कर लिया।
मिथिलेश जब गांव से कलकत्ता लौटा तो सेठ केशवराम ने उसे पकड़ लिया। उसने पहले तो यह कह कर सेठ को टरकाना चाहा कि कपड़ा मिल में घुसते समय सीआईडी वालों ने उसे पकड़ लिया था और वह किसी तरह रुपये वहीं फेंक कर जान बचा कर भाग आया। लेकिन सेठ ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। वह एक लाख रुपये वापस लेने पर अड़ गया। मिथिलेश को जब लगा कि सेठ किसी भी तरह से मानने वाला नहीं है तो उसने इलाके के थानाध्यक्ष को झांसे में ले लिया जो पहले से ही सेठ केशवराम को किसी मामले में फंसाकर मोटी रकम ऐंठने की सोच रहा था। मिथिलेश ने साजिश रच कर सेठ को नकली नोटों की तस्करी के आरोप में पकड़वा दिया। बाद में सेठ ने पुलिस को घूस देकर अपनी जान बचाई लेकिन वो मिथिलेश से अपनी रकम नहीं वसूल सका। सेठ पुलिस को ये नहीं बता सकता था कि उसने कालाबाजार से कपड़ा खरीदने के लिए मिथलेश को एक लाख रुपये दिए थे जो उसने डकार लिए। उधर मिथिलेश इस बात से खुश था कि उसे बैठे बिठाए एक लाख रुपये भी मिल गए और अपनी बेइज्जती का बदला भी ले लिया। यह घटना 1935 की है। इसके बाद तो उसे लगा कि यह अच्छा धंधा है जिसमें बुद्धि का इस्तेमाल करके मोटी रकम कमाई जा सकती है। उसने प्रिंसिपल की नौकरी छोड़ दी। ठगी की एक दो वारदात को अंजाम देते ही उसके हौसले बुंलद हो गए। अब उसके उर्वर दिमाग में ठगी की नई-नई योजनाएं पनपने लगीं।
मोटे असामियों को फंसाने के लिए वह आलीशान होटलों में ठहरता, महंगी टैक्सियों में सफर करता, अमीर लोगों और सरकारी अफसरों से जान पहचान बढ़ाकर दोस्ती गांठता था। वह किसी भी जगह ज्यादा दिन नहीं रुकता। हर वारदात को वह अलग नाम, अलग पहचान बताकर अंजाम देता। इन्हीं उपनामों में उसका एक नाम नटवरलाल भी था। इसी बीच उसकी शादी छपरा जिले के हथौडी गांव निवासी नर्वदेश्वर प्रसाद की पुत्री ललिता उर्फ लल्ली से हो गई। जालसाजी का पर्याय बन चुके नटवरलाल ने फर्जी रेलवे रिसीप्ट (आरआर) के आधार पर कारोबारियों का कीमती माल छुड़ाकर बाजार में बेचने के दर्जनों ऐसे कारनामे किए जिससे रेलवे में सनसनी फैल गई। वह रेलवे गोदामों के चौकीदारों से साठगांठ कर पता करता कि कौन सा माल कहां से किस कंपनी का किसके नाम पर और कितनी मात्रा में आया है। फिर उस माल की डिलीवरी लेने के लिए फर्जी पेपर तैयार करता और माल को रेलवे से छुड़ाकर व्यापरियों को औने-पौने दाम में बेचकर रफूचक्कर हो जाता।
फर्जी आरआर के जरिये रेलवे से लोहे की 9 टन चादर छुड़ा कर बेचने के आरोप में नटवरलाल को वर्ष 1937 में पहली बार कलकत्ता में पकड़ा गया। इस आरोप में उसे छह महीने जेल में गुजारने पड़े। जेल से छूटने के बाद वह कलकत्ता छोड़ नागपुर पहुंच गया। वहां भी एक बार पकड़ा गया तो उसने अगला रुख मद्रास (चेन्नई) का किया। फर्जी आरआर से रेलवे को चूना लगाने के कारण वह 1939 में फिर पकड़ा गया। मद्रास पुलिस जब नागपुर वाले केस की सुनवाई के लिए उसे नागपुर ले जा रही थी तो वह चकमा देकर फरार हो गया और कई सालों तक पुलिस की पकड़ में नहीं आया।
इसके बाद उसने उत्तर प्रदेश को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और कपड़ों की खरीद-फरोख्त को ठगी का जरिया। दरअसल, वर्ष 1945 के आसपास कपड़ा उद्योग में जबरदस्त कालाबाजारी का दौर चल रहा था जिसका उसने खूब फायदा उठाया। इस दौरान उसकी ठगी के एक वाकये का जिक्र जरूरी है। नटवर ने गुजरात की फिनलेज कपड़ा मिल का प्रतिनिधि बनकर अलग-अलग शहरों के बड़े-बड़े बुनकरों से संपर्क साधा और उनसे बाजार से कम कीमत पर सूत की गांठें बिना एडवांस लिए सप्लाई करने के कई आॅर्डर लिए। इसके बाद गुजरात जाकर उसने महंगे दाम में सूत की कुछ गांठें खरीदी और उन बुनकरों को आॅर्डर की सप्लाई कर दी। हालांकि उसने उनके पूरे आॅर्डर की सप्लाई नहीं की बल्कि थोड़ी-थोड़ी की। जैसे जिसने 10 गांठ का आॅर्डर दिया था उसे दो गांठ भेज दी। सप्लाई किए गए सूत की रकम वसूली के लिए वह वापस पहुंचा तो बुनकरों ने शिकायत की कि उनका आॅर्डर तो बड़ा था लेकिन सप्लाई थोड़ी मिली। नटवरलाल ने साफ कर दिया कि मिल प्रबंधन ने अपनी पॉलिसी बदल दी है और अब वह बिना एडवांस लिए माल की डिलीवरी नहीं कर सकता। बिना एडवांस सस्ता सूत पाने वाले बुनकरों का नटवरलाल पर विश्वास जम चुका था। भारी मुनाफा कमाने की लालच में बुनकरों ने उसे बड़े-बड़े आॅर्डर और भारी भरकम एडवांस भी दे दिया। पहले बिना एडवांस लिए अपनी जेब से पैसा खर्च कर उसने बुनकरों का भरोसा जीता और जब मोटा एडवांस मिल गया तो लाखों रुपये लेकर अपनी फितरत के मुताबिक वह नौ दो ग्यारह हो गया।
अलग-अलग शहरों में उसने ऐसी ही कई वारदात को अंजाम दिया। 14 मार्च, 1947 को ब्रिटिश हुकूमत की पुलिस ने उसे वाराणसी में एक गल्ला व्यापारी से ठगी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उसे डेढ़ साल जेल में गुजारने पड़े। नटवर ठगी से कमाई गई रकम का कुछ हिस्सा अपने भाई गंगाराम को जरूर भेज देता था ताकि जब भी कभी वह पकड़ा जाए तो वह उसकी पैरवी करता रहे। 15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हो गया तो अगले आठ साल तक उसने ठगी की सभी गतिविधियां बंद कर दी। वह सुधरना चाहता था लेकिन तब तक उसका नाम पुलिस रिकॉर्ड में इतना खराब हो चुका था कि अपराध कोई दूसरा भी करता तो पुलिस उसी के खिलाफ मामला दर्ज कर लेती और उसे पकड़ने के लिए छापेमारी भी करती रहती। पुलिस के इस रवैये से तंग आकर उसने फिर से ठगी का धंधा शुरू कर दिया। 1955 में नटवरलाल ने नंद प्रकाश कपूर को अपना पहला शिष्य बनाया जिससे उसकी मुलाकात दिल्ली के तिहाड़ जेल में हुई थी। आगे की कई वारदात में वह उसका सहयोगी रहा।
इसी दौरान का एक रोचक वाकया है। लखनऊ के नक्खास इलाके में रहने वाली वेश्या शमशाद बेगम जो उसकी प्रेयसी थी, ने नटवर से सोने का हार लेने की जिद कर दी। प्रेयसी की जिद पूरी करने के लिए नटवर उसे लखनऊ के चौक स्थित खुनखुनजी ज्वैलर्स की दुकान पर ले गया। हार खरीदने के दौरान हुई सौदेबाजी के बीच खुनखुनजी ज्वैलर्स के मालिक गुलाब राय ने उसकी बेइज्जती कर दी तो उसने गुलाब राय को इसकी सजा देने की कसम खा ली। करीब तीस साल बाद 30 जून, 1986 को उसने अपनी यह कसम तब पूरी की जब ठगी की कई वारदात को अंजाम देने, कई बार पकड़े जाने और फरार होने के बाद वह फिर से लखनऊ आया। उसने दुकान के बड़े मुनीम को खुद का परिचय मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह के निजी सचिव एसएस शरण के रूप में दिया। उसने 50 हजार रुपये के कुछ गहने पसंद किए और बदले में चेक देने लगा। जब मुनीम ने चेक लेने में असमर्थता जताई तो उसने कहा कि वह अगले दिन मुख्यमंत्री आवास पर आकर गहनों की डिलीवरी दे दे और ड्राफ्ट ले ले। इस दौरान शोरूम के फोन से ही नटवर ने मुख्यमंत्री आवास में फोन करके किसी से बात की जिससे मुनीम को यकीन हो गया कि वाकई वह मुख्यमंत्री का पीए है। अगले दिन मुनीम मुख्यमंत्री आवास पहुंचा तो नटवर ने उसकी गाड़ी भी बंगले में प्रवेश करवा दी। बंगले के परिसर में मुनीम ने उसे जेवर देकर ड्राफ्ट ले लिया और उसे बैंक में जमा करा दिया। लेकिन कुछ ही देर बाद भेद खुल गया कि ड्राफ्ट फर्जी है।
आभूषणों की तरह नटवरलाल ने घड़ी खरीदने के नाम पर भी खूब ठगी की। 13 जुलाई, 1978 को वाराणसी के चौक बाजार में इंडियन वॉच कंपनी के मालिक वीके जैन से वह जिला जज का सेक्रेट्री बनकर मिला और उससे 78 एचएमटी घड़ियां खरीद कर उसे फर्जी ड्राफ्ट थमा दिया। 7 अगस्त, 1987 को नटवर ने दिल्ली के पार्लियामेंट स्ट्रीट स्थित सुरेंद्र वॉच कंपनी के मालिक सुरेंद्र शर्मा से खुद को तत्कालीन वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी का पीए डीएन तिवारी बताकर मुलाकात की और कहा कि वित्त मंत्री यूपी के सांसदों को घड़ियां भेंट करना चाहते हैं। उसने साठ हजार की महंगी घड़ियां लेकर उसे भी नकली ड्राफ्ट थमा दिया। किसी मंत्री या किसी बड़े अधिकारी से खुद को जुड़ा बताकर नटवर ने कई जालसाजी की। 27 अगस्त, 1987 को जब वह गोरखपुर में खुद को डीएम का पीए बताकर फर्जी ड्राफ्ट से इसी तरह घड़ियों की डील कर रहा था तो पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। दरअसल, इस दुकान का मालिक प्रदीप कुमार वाराणसी के इंडियन वॉच कंपनी के मालिक वीके जैन का दोस्त था जिसे इस तरह की धोखाधड़ी का पहले से पता था। दुकान मालिक ने शक होने पर जैन को बुला लिया और नटवर का भेद खुल गया। तब तक नटवर की उम्र 73 साल हो चुकी थी। पूरे दस साल बाद पुलिस की गिरफ्त में फंसे नटवरलाल ने खुलासा किया कि वह उस समय तक 38 बार अलग-अलग नामों से गिरफ्तार हो चुका था। इस दौरान वह या तो फर्जी जमानतें दाखिल करवाकर जमानत पर बाहर आया या फिर पुलिस को चकमा देकर फरार होता रहा।
नटवरलाल को नशे और नारी से सख्त परहेज था। वह महिलाओं से दोस्ती सिर्फ ठगी की वारदात में उनका इस्तेमाल करने के लिए करता था। कोई उसके नाम का फायदा उठाए उसे ये भी गंवारा नहीं था। इसीलिए जब उसके कारनामे पर बनने वाली अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म नटवरलाल के बारे में उसे पता चला तो उसने फिल्म के निर्माता-निर्देशक के खिलाफ कोर्ट में केस दायर कर दिया। काफी मिन्नतों के बाद नटवर ने निर्माता-निर्देशक के समझाने पर तीन लाख रुपये लेकर मुकदमा वापस ले लिया क्योंकि उसे लगा कि इस फिल्म से उसकी शोहरत बढ़ने वाली है। इसलिए उसने फिल्म निर्माता को ठगी के कई रोचक किस्से सुनाकर इसकी कहानी को और दिलचस्प बना दिया था। इसके अलावा उसके जीवन से प्रेरित इमरान हाशमी अभिनीत राजा नटवरलाल नामक फिल्म भी बनी है।
नटवरलाल इतना शातिर था कि उसने बड़ा सरकारी अफसर बनकर विदेशियों को तीन बार ताजमहल, दो बार लालकिला, एक बार राष्ट्रपति भवन और एक बार संसद भवन तक बेच दिया था। संसद भवन को बेचने के लिए तो उसने जरूरी दस्तावेजों पर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के नकली हस्ताक्षर तक कर दिए और विदेशियों से रकम ऐंठ ली। पुलिस फाइलों में नटवरलाल के 52 छद्म नाम दर्ज हैं। उसके खिलाफ आठ राज्यों में 100 से अधिक दर्ज मामलों में हुए फैसलों के मुताबिक उसे 113 साल की सजा हो चुकी है।
24 जून, 1996 को पुलिस नटवरलाल को अदालत के आदेश पर कानपुर जेल से दिल्ली के एम्स में इलाज के लिए लेकर आई। अस्पताल से दिखाकर जब कानपुर पुलिस का एक दल नटवर को वापस ले जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा तो वह पुलिस टीम को चकमा देकर फरार हो गया। उस वक्त नटवर की उम्र 84 साल थी। इसके बाद से वह किसी को नहीं दिखा और न ही उसका कोई अपराध प्रकाश में आया। वर्ष 2009 में जब नटवरलाल के वकील ने उसके खिलाफ दायर 100 मामलों को हटाने की याचिका दायर की तो नटवरलाल के भाई गंगाराम ने ये हलफनामा दिया कि उसकी मौत करीब 13 साल पहले वर्ष 1996 में ही हो गई थी। नटवरलाल का नाम अब एक मुहावरा बन चुका है जो हर जालसाज को तमगे के रूप में दिया जाता है।