प्रदीप सिंह।
किसी भी जनतांत्रिक देश में चुनाव सुधार सतत चलने वाली प्रक्रिया है। अपने देश में चुनाव सुधार को लटकाए रखना सतत प्रक्रिया है। जनतंत्र की बढ़ती परिपक्वता, चुनाव प्रचार शैली में आ रहे बदलाव, पारम्परिक मीडिया के प्रसार में वृद्धि और लोगों की राय बनाने में सोशल मीडिया की बढ़ती भूमिका के मद्देनजर चुनाव सुधार के कई कदम उठाए जाने जरूरी हैं। चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों और सोशल मीडिया के आगमन के बाद मतदान से अड़तालीस घंटे पहले चुनाव प्रचार रोकने का प्रावधान अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। पर इस समय चर्चा में एक देश एक चुनाव का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सुझाव है। पिछले दिनों विधि आयोग ने इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें नौ दलों ने इसके विरोध में राय जाहिर की और चार दलों ने समर्थन में। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नुमाइन्दे इस सर्वदलीय बैठक में नहीं गए। कांग्रेस ने बाद में इस प्रस्ताव/सुझाव के विरोध में बयान दिया। भाजपा ने कहा कि वह अपना पक्ष काफी विस्तार से रखना चाहती है। हालांकि यह प्रस्ताव मौजूदा दौर में सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही दिया था। वे इस मसले पर संसद और संसद के बाहर कई बार बोल चुके हैं।
विपक्षी दलों की ऐसी प्रतिक्रिया का एक कारण यह भी है कि विधि आयोग ने इस संबंध में विभिन्न विकल्पों के साथ कोई विस्तृत प्रस्ताव नहीं रखा। इससे राजनीतिक दलों में भ्रम की स्थिति है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने का मतलब और असर क्या होगा। ऐसा न होता तो द्रमुक नेता स्टालिन यह न पूछते कि क्या लोकसभा के मध्यावधि चुनाव की दशा में सारी विधानसभाएं भंग कर दी जाएंगी? सैद्धांतिक रूप से एक देश एक चुनाव का विचार अच्छा है। यह बात सब लोग मानते हैं कि इससे चुनाव खर्च में भारी बचत होगी। इसके अलावा चुनी हुई सरकारों को पांच साल शांति से काम करने का अवसर मिलेगा। पार्टियों को हर समय चुनाव की तैयारी में नहीं रहना पड़ेगा। आचार संहिता लागू होने से विकास के काम नहीं रुकेंगे। कुछ राजनीतिक दलों खासतौर से कांग्रेस को यह भ्रम है कि भाजपा इसकी बात राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के विधानसभा चुनावों में अपनी राज्य सरकारों की ऐंटी इनकम्बेन्सी से बचने के लिए यह प्रस्ताव लाई है। पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि इस सुझाव पर अमल भी हुआ तो वह 2019 के लोकसभा चुनाव से शुरू नहीं हो सकता। क्योंकि इसके लिए संविधान में संशोधन भी करना होगा और वह राजनीतिक दलों में आम राय बनाए बिना नहीं हो सकता।
एक देश एक चुनाव के विचार का विरोध किसी सिद्धांत या व्यावहारिकता की बजाय आशंका के कारण ज्यादा हो रहा है। विपक्षी दलों को आशंका है कि एक साथ चुनाव हुए तो मोदी के कारण इसका लाभ भाजपा को मिलेगा। विरोध के लिए सैद्धांतिक बात यह कही जा रही है कि एक साथ चुनाव होने से क्षेत्रीय मुद्दे दब जाएंगे और पूरा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर हो जाएगा। इसका लाभ राष्ट्रीय दलों को मिलेगा। हालांकि होने को इसका उल्टा भी हो सकता है। पर जो लोग क्षेत्रीयता की दुहाई देकर इसका विरोध कर रहे हैं वे दो तथ्यों की अनदेखी कर रहे हैं। वे यह मानकर चल रहे हैं कि देश का मतदाता इतना समझदार या परिपक्व नहीं है कि वह क्षेत्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय मुद्दों में फर्क कर सके और उस आधार पर बंटा हुआ वोट दे सके। साल 2014 में लोकसभा चुनाव के साथ ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और अरुणाचल प्रदेश की विधानसभा के भी चुनाव हुए। इनमें से किसी राज्य में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा या कांग्रेस को राष्ट्रीय मुद्दों का कोई फायदा नहीं मिला। अरुणाचल को छोड़कर बाकी तीनों राज्यों में गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी दलों को जीत मिली।
मध्यावधि चुनाव एक समय अपवाद की बजाय नियम से बन गए थे। एक देश एक चुनाव के जरिये इस समस्या का हल हो सकता है। वैसे इसका हल एक साथ चुनाव के बिना भी हो सकता है। विचार यह है कि किसी सरकार के, फिर वह केंद्र की हो या राज्य की, बहुमत खोने की स्थिति में अविश्वास प्रस्ताव के बाद विश्वास प्रस्ताव भी आए। इसके लिए अपवाद स्वरूप दल बदल कानून के प्रावधानों को उस प्रस्ताव पर लागू न किया जाए। यानी सदन अपना नेता चुने। सुप्रीम कोर्ट एक बार इसे आजमा चुका है। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त करके जगदम्बिका पाल को एक दिन का मुख्यमंत्री बनाया तो सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के जरिये विधानसभा को संदेश भिजवाया कि सदन में कम्पोजिट वोट होगा। इसका मतलब था कि राज्यपाल किसी को बहुमत के दावे के आधार पर सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाएंगे। सदन जिसे नेता चुनेगा उसी को सरकार बनाने का निमंत्रण मिलेगा। अब सवाल है कि इस विधि से भी किसी के नाम पर सहमति न बने और मध्यवधि चुनाव की नौबत आ ही जाए तो क्या हो। इसका हल यह सुझाया गया है कि ऐसे में उस लोकसभा या विधानसभा का चुनाव बचे हुए कार्यकाल के लिए हो, ताकि एक साथ चुनाव का क्रम बना रहे। इस सुझाव पर आपत्ति यह है कि बचे हुए कार्यकाल के लिए भी नेताओं को उसी तरह प्रचार में लगना पड़ेगा और पार्टियों को खर्च करना पड़ेगा।
एक साथ चुनाव के बारे में एक और सुझाव है। यदि एक साथ चुनाव कराने में दिक्कत हो तो इसे दो हिस्सों में बांट दिया जाए। जिन राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा (मान लीजिए 2024 से लागू होता है) चुनाव के समय एक साल से कम बचा हो उनकी विधानसभा का चुनाव लोकसभा के साथ हो जाए। बाकी बचे राज्यों की विधानसभा का चुनाव ढाई साल बाद हो। इससे बड़ी संख्या में विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती नहीं करनी पड़ेगी। केंद्र सरकार के लिए भी मध्यावधि समीक्षा का अवसर रहेगा। पर किसी भी विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाने या घटाने के लिए संविधान संशोधन करना पड़ेगा। बात फिर वहीं आती है कि यह काम राजनीतिक दलों में आम सहमति के बिना नहीं हो सकता। हमारे राजनीतिक दलों की समस्या यह है कि वे हर मसले को अपने तात्कालिक राजनीतिक फायदे नुक्सान के नजरिये से ही देखते हैं। विधि आयोग और इससे पहले प्रधानमंत्री के इस सुझाव पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर दी गई है। सुझाव पहले प्रधानमंत्री की ओर से आया था इसलिए विपक्षी दलों को लग रहा है कि जरूर इससे भाजपा का फायदा होने वाला है। फिर भाजपा के फायदे वाला काम वे क्यों करें। यही रवैया इस चुनाव सुधार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। जरूरत इस बात की है कि इस मुद्दे पर खुले मन से सभी राजनीतिक दल विचार करें और देखें कि देश और जनतंत्र का हित किसमें है। जब तक एक देश एक चुनाव पर आम सहमति नहीं बनती तब तक कम से कम बाकी चुनाव सुधारों पर ही एक राय बन जाए। वैसे इस समय सबकी नजर 2019 के लोकसभा चुनाव पर है। ऐसे में एक राय बनने की उम्मीद कम ही है। अच्छा हो चुनाव विधि आयोग और चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव के बाद इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाए।