अनूप भटनागर
मुस्लिम समाज विशेषकर सुन्नी समुदाय में एक ही बार में तीन तलाक कहकर पत्नी कोे बेसहारा कर देने की पुरानी परंपरा को असंवैधानिक करार देने के बाद अब निकाह-हलाला और बहुपत्नी प्रथा भी सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गई है। निकाह- हलाला का सार यह है कि करे कोई, भरे कोई। एक बार में तीन तलाक की कुप्रथा से पीड़ित पत्नी को पति द्वारा फिर से अपनाने के लिए पत्नी को ही निकाह-हलाला से गुजरना पड़ता है। तीन तलाक की तरह इस मसले को भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाने के लिए मुस्लिम महिलाएं ही आगे आई हैं। उन्होंने ही इन प्रथाओं की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है।
मुस्लिम महिलाओं की इन याचिकाओं पर पांच सदस्यीय संविधान पीठ जल्द ही सुनवाई करने वाली है। एक याचिकाकर्ता समीना बेगम ने तो न्यायालय में आरोप लगाया है कि उसके ससुराल वाले उसे यह मामला वापस लेने, नहीं तो ससुराल से चले जाने की धमकियां दे रहे हैं। संविधान पीठ को सौंपी याचिकाओं में मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी हकों की रक्षा करने के साथ बहुविवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और निकाह-हलाला को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत बलात्कार घोषित करने का अनुरोध किया गया है। इनमें यह भी दावा किया गया है कि इन प्रथाओं से संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 में प्रदत्त उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। एक याचिका में तो एक बार में तीन तलाक देने को भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत क्रूरता और निकाह-हलाला को बलात्कार का अपराध घोषित करने का अनुरोध किया गया है।
इसी तरह याचिकाओं में यह भी कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत बहुविवाह अपराध है परंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ की वजह से यह प्रावधान इस समुदाय पर लागू नहीं हो रहा है। इस वजह से विवाहित मुस्लिम महिलाओं के पास ऐसा करने वाले अपने पति के खिलाफ शिकायत करने का रास्ता नहीं है। याचिका में मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून, 1939 को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 में प्रदत्त अधिकारों का हनन करने वाला घोषित करने का अनुरोध किया गया है। इन प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाली मुस्लिम महिलाओं का तर्क है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रदत्त इन तमाम किस्म की शादियों से उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है। एक याचिका में तो निकाह-हलाला के साथ ही निकाह-मुताह और निकाह-मिस्यार को भी चुनौती दी गई है। ये दोनों प्रथाएं अस्थायी निकाह हैं और इनके लिए पहले से ही इस रिश्ते की मियाद निर्धारित होती है।
याचिका दायर करने वाली एक महिला ने आरोप लगाया है कि ससुराल में उसे दहेज लाने के लिए प्रताड़ित किया गया और दो बार ससुराल से निकाल दिया गया। उसका तो यह भी आरोप है कि उसे तलाक दिए बगैर ही उसके शौहर ने दूसरी शादी कर ली है। जब उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 और 498 ए के तहत पुलिस में मामला दर्ज कराने का प्रयास किया तो पुलिस ने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि शरिया के अंतर्गत बहुविवाह की इजाजत है। अब देखना यह है कि तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करने के बाद संविधान पीठ का निकाह-हलाला और बहुविवाह प्रथा को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर क्या रुख होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि एक बार फिर न्यायपालिका देश की तमाम महिलाओं की तरह ही मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा करेगी। न्यायालय को इस मामले पर सुनवाई शुरू करने के लिए केंद्र सरकार के जवाब का इंतजार है। वैसे न्यायालय ने इन याचिकाओं पर अल्पसंख्यक मंत्रालय और राष्ट्रीय महिला आयोग को भी अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दे रखा है।
यहां यह समझना भी जरूरी है कि आखिर निकाह-हलाला प्रथा क्या है। छोटी-छोटी बातों पर आवेश में आकर बीवी को एक ही बार में तीन तलाक कहने और गलती का अहसास होने पर उसे दोबारा अपनी बीवी बनाने के इच्छुक व्यक्ति की तलाकशुदा को पहले किसी अन्य व्यक्ति से निकाह करना होता है। नए शौहर के साथ संसर्ग की प्रक्रिया से गुजरने और फिर उससे तलाक के बाद पूर्व पति से शादी की प्रक्रिया ही निकाह-हलाला है। निकाह-हलाला और इसका शिकार हुई मुस्लिम महिलाओं के साथ ही अपनी बीवी को आवेश में आकर तलाक देने वाले पति की मानसिक स्थिति को समझने के लिए अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी द्वारा बनाई गई लघु फिल्म ‘मियां कल आना’ देखना ही पर्याप्त होगा। इस फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। यह फिल्म बेहद संवेदनशील है और इसमेें आवेश में उठाए गए अविवेकपूर्ण कदम के दुष्परिणामों को बेहद मार्मिक तरीके से दिखाया गया है।
फिल्म में दिखाया गया है कि एक युवक गुस्से में अपनी बीवी को तलाक दे देता है। बाद में अपने निर्णय से परेशान और इसे लेकर घर में मचे हंगामे की वजह से वह उसे फिर से अपनी बीवी बनाना चाहता है लेकिन निकाह हलाला की प्रथा आड़े आ जाती है। गांव के कुछ परिचितों की सलाह और प्रयासों से एक मौलवी को इस प्रक्रिया के लिए तैयार किया जाता है। वह मौलाना हजारों रुपये लेकर इसके लिए तैयार होते हैं। मौलाना के साथ महिला का निकाह हो जाता है। युवक जब अगले दिन अपनी पूर्व बीवी को लेने मौलाना के घर पहुंचता है तो वह बहाना बनाते हुए कहते हैं कि मियां कल आना। यह सिलसिला करीब एक महीने चलता रहता है और मौलवी साहब लगातार बेबस युवक को टालते रहते हैं। अंतत: युवक को मौलवी की नीयत पर संदेह होता है और वह उनकी बुरी तरह पिटाई कर देता है। मामला पंचायत में पहुंचता है। पंचायत जहां मौलवी साहब के रवैये की निंदा करती है वहीं निकाह-हलाला की प्रथा को भी गलत और महिला के लिए अपमानजनक बताती है। मस्जिद के अंदर हो रही पंचायत की बहस लाउडस्पीकर से बाहर सुनाई पड़ती है। इसमें कहा जाता है कि तलाक किसने दिया, शौहर ने। गुस्सा किसे आया, शौहर को। गलती किसकी, शौहर की… और सजा किसे मिल रही है? तू (शौहर) अपना हलाला करवा। ये हलाला क्या है? बेगैरती का कड़वा घूंट है, बदमाशी का खुफिया रास्ता है, मक्कारी का अड्डा है। ये औरत है, भेड़-बकरी नहीं है, ये औरत है, गाय-भैंस नहीं कि आज इस किल्ले से बांध दो और कल दूसरे किल्ले से।
केंद्र सरकार ने निकाह-हलाला और बहुपत्नी प्रथा को असंवैधानिक घोषित कराने के लिए शीर्ष अदालत में दायर याचिकाओं के संदर्भ में कहा था कि वह इन परंपराओं का न्यायालय में पुरजोर विरोध करेगी क्योंकि ये न सिर्फ लैंगिक आधार पर पक्षपात करती है बल्कि ये महिलाओं के लिए भी बेहद अपमानजनक है। केंद्र सरकार के इस कथन के चंद दिन बाद ही दिल्ली निवासी समीना बेगम की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता वी. शेखर ने उनकी याचिका पर शीघ्र सुनवाई का अनुरोध किया और आरोप लगाया कि उसकी ससुराल वाले उस पर याचिका वापस लेने या फिर ससुराल से बाहर निकल जाने की धमकियां दे रहे हैं।
समीना का यह भी कहना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ की वजह से मुस्लिम व्यक्ति दूसरी शादी करने के बावजूद भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के प्रावधान से बच जाते हैं। धारा 494 बहुविवाह से संबंधित है। इसके अंतर्गत पति या पत्नी को तलाक दिए बगैर दूसरा विवाह एक दंडनीय अपराध है जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ चार बीवियां रखने की इजाजत देता है। इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने पर पत्नी के पास राहत हासिल करने का कोई रास्ता उपलब्ध नहीं है। इसी तरह रानी उर्फ शबनम ने भी अपनी याचिका में आरोप लगाया है कि उसके पति ने दोबारा शादी करने के बाद उसे और उसके तीन नाबालिग बच्चों को घर से निकाल दिया है। वह चाहती है कि मुस्लिम समुदाय में प्रचलित बहुपत्नी प्रथा और निकाह-हलाला की परंपरा पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही इसे असंवैधानिक घोषित किया जाए। दिल्ली निवासी एक अन्य महिला नफीसा खान ने भी याचिका दायर कर शीर्ष अदालत से लगभग इसी तरह की राहत प्रदान करने का अनुुरोध किया है।
दिल्ली के भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने भी इन मसलों को लेकर एक जनहित याचिका दायर कर रखी है। उनका तर्क है कि मुस्लिम समाज में प्रचलित इन परंपराओं से संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का हनन होता है। महिलाओं के बुनियादी अधिकार सुनिश्चित करने के लिए इन परंपराओं पर प्रतिबंध अब समय की आवश्यकता है। उपाध्याय ने अपनी याचिका में अनुरोध किया है कि निकाह-हलाला को भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत बलात्कार और पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी को भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत अपराध घोषित किया जाए। इन याचिकाओं के संदर्भ में इस तथ्य को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अगस्त 2017 में बहुमत के अपने फैसले में एक बार में तीन तलाक अर्थात तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक घोषित करते समय इन दो मुद्दों को भविष्य में फैसले के लिए खुला रखा था।
अगर निष्पक्षता से देखा जाए तो महिलाओं के हितों की रक्षा के प्रति मौजूदा केंद्र सरकार के अधिक संवेदनशील होने का ही नतीजा है कि एक बार में तीन तलाक जैसी कुप्रथा से छुटकारे और लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए मुस्लिम महिलाओं ने अधिक मुखरता से आवाज उठाई और पहली लड़ाई में उन्होंने सफलता प्राप्त की। इस सफलता के बाद ही मुस्लिम महिलाआें ने अपने समाज में प्रचलित निकाह-हलाला और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। लैंगिक भेदभाव खत्म करने तथा समता के उनके अधिकारों की रक्षा के समर्थन में दूसरे वर्गों ने भी उनका साथ देना शुरू किया।
यहां यह जानना भी जरूरी है कि इन महिलाओं ने अपनी याचिकाओं में संविधान और विभिन्न कानूनों के जिन प्रावधानों का जिक्र किया है वे क्या हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 समता का अधिकार देता है। इसके अनुसार देश के किसी भी राज्य में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी व्यक्ति से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रा का अधिकार प्रदान करता है। इसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। अनुच्छेद 25 नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित है। यह प्रावधान नागरिकों को अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने का समान अधिकार प्रदान करता है।