ओशो
सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा, एक तो आषाढ़, पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा, चांद की रोशनी पूरी पहुंचेगी नहीं। और प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों न चुन लिया? ज्यादा ठीक होता, ज्यादा मौजूं मालूम पड़ता।
नहीं; चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसे शिष्यों से घिरा हो।
शिष्य सब तरह के जन्मों—जन्मों के अंधेरे लेकर आ गए। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।
ध्यान रखना, अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए काव्य—प्रतीक, तो तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों—जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो, तुम बोझिल हो। तुम्हें तोड़ना है, तुम्हें चीरना है। तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा! चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, ज्यादा मौजूं होता, तथ्यगत होता। क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोड़ा समझना। चांद की सब रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है। चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि तुम दीए को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीए की रोशनी का प्रतिफलन है, लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है।
हमने गुरु को सूरज ही कहा होता, तो बात ज्यादा तथ्यपूर्ण होती। चांद शून्य है; उसके पास कोई रोशनी नहीं है। और सूरज के पास प्रकाश भी महान है, विराट है। पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक, और तब हमने चांद को चुना है दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है; वह केवल निमित्तमात्र है, वह केवल दर्पण है।
तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधा देखना बहुत मुश्किल है। देखो, तो अड़चन समझ में आ जाएगी। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ सीधा देखना असंभव है, आंखें फूट जाएंगी, अंधे हो जाओगे। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, तुम सम्हाल न पाओगे, असह्य हो जाएगी। तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे।
इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है; शिष्य की सामर्थ्य के बिलकुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है।
गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और तुम्हें दे देता है। लेकिन इस देने में रोशनी मधुर हो जाती है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है!
इसलिए तो कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। किसके छुऊं पैर? वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं। फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए, क्योंकि बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।
सीधे तो देखना संभव न होता। गुरु दर्पण बन गया। जो असंभवप्राय था, उसे गुरु ने संभव किया है। जो दूर आकाश की रोशनी थी, उसे जमीन पर उतारा है। गुरु माध्यम है। इसलिए हमने चांद को चुना। गुरु के पास अपना कुछ भी नहीं है। कबीर कहते हैं, मेरा मुझमें कुछ नहीं। गुरु है ही वही जो शून्यवत हो गया है। अगर उसके पास कुछ है, तो वह परमात्मा का जो प्रतिफलन होगा, वह भी विकृत हो जाएगा, वह शुद्ध न होगा।
चांद के पास अपनी रोशनी ही नहीं है जिसको वह मिला दे, है सूरज से, देता है तुम्हें। वह सिर्फ मध्य में है, माधुर्य को जन्मा देता है।
सूरज कहना ज्यादा तथ्यगत होता, लेकिन ज्यादा सार्थक न होता। इसलिए हमने चांद कहा है।
फिर सूरज सदा सूरज है, घटता-बढ़ता नहीं। गुरु भी कल शिष्य था। सदा ऐसा ही नहीं था। बुद्ध से बुद्ध पुरुष भी कभी उतने ही तमस, अंधकार से भरे थे, जितने तुम भरे हो। सूरज तो सदा एक-सा है। इसलिए वह प्रतीक जमता नहीं। गुरु भी कभी खोजता था, भटकता था, वैसे ही, उन्हीं रास्तों पर, जहां तुम भटकते हो, जहां तुम खोजते हो। वही भूलें गुरु ने की हैं, जो तुमने की हैं। तभी तो वह तुम्हें सहारा दे पाता है। जिसने भूलें ही न की हों, वह किसी को सहारा नहीं दे सकता। वह भूल को समझ ही नहीं सकता। जो उन्हीं रास्तों से गुजरा हो; उन्हीं अंधकारपूर्ण मार्गों में भटका हो, जहां तुम भटकते हो, उन्हीं गलत द्वारों पर जिसने दस्तक दी हो, जहां तुम देते हो; मधुशालाओं से और वेश्यागृहों से जो गुजरा हो; जिसने जीवन का सब विकृत और विकराल भी देखा हो, जिसने जीवन में शैतान से भी संबंध जोड़े हों- वही तुम्हारे भीतर की असली अवस्था को समझ सकेगा। सूरज तुम्हें न समझ सकेगा, चांद समझ सकेगा। चांद अंधेरे से गुजरा है; पंद्रह दिन, आधा जीवन तो अंधेरे में ही डूबा रहता है। अमावस भी जानी है चांद ने, सदा पूर्णिमा ही नहीं रही है। भयंकर अंधकार भी जाना है, शैतान से भी परिचित हुआ है, सदा से ही परमात्मा को नहीं जाना है। यात्री है चांद। सूरज तो यात्री नहीं है, सूरज तो वैसा का वैसा है। अपूर्णता से पूर्णता की तरफ आया है गुरु चांद की तरह- एकम आई, दूज आई, तीज आई- धीरे धीरे बढ़ा है एक एक कदम। और वह घड़ी आई, जब वह पूर्ण हो गया है।
गुरु तुम्हारे ही मार्ग पर है; तुमसे आगे, पर मार्ग वही है। इसलिए तुम्हारी सहायता कर सकता है। परमात्मा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।
यह थोड़ा कठिन लगेगा सुनना। परमात्मा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह उस यात्रा में कभी भटका नहीं है, जहां तुम भटक रहे हो। वह तुम्हें समझ ही न पाएगा। वह तुमसे बहुत दूर है। उसका फासला अनंत है। तुम्हारे और उसके बीच कोई भी सेतु नहीं बन सकते।
गुरु और तुम्हारे बीच सेतु बन सकते हैं। कितना ही अंतर पड़ गया हो पूर्णिमा के चांद में- कहां अमावस की रात, कहां पूर्णिमा की रात- कितना ही अंतर पड़ गया हो, फिर भी एक सेतु है। अमावस की रात भी चांद की ही रात थी, अंधेरे में डूबे चांद की रात थी। चांद तब भी था, चांद अब भी है। रूपांतरण हुए हैं, क्रांतियां हुई हैं; लेकिन एक सिलसिला है।
तो गुरु तुम्हें समझ पाता है। और मैं तुमसे कहता हूं तुम उसी को गुरु जानना, जो तुम्हारी हर भूल को माफ कर सके। जो माफ न कर सके, समझना, उसने जीवन को ठीक से जीया ही नहीं। अभी वह पूर्ण तो हो गया होगा- जो मुझे संदिग्ध है। जो दूज का चांद ही नहीं बना, वह पूर्णिमा का चांद कैसे बनेगा? धोखा होगा।
इसलिए जो महागुरु हैं, परम गुरु हैं, वे तुम्हारी सारी भूलों को क्षमा करने को सदा तत्पर हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि स्वाभाविक है, मनुष्य मात्र करेगा। उन्होंने स्वयं की हैं, इसलिए दूसरे को क्या दोष देना! क्या निंदा करनी! उनके मन में करुणा होगी। तुम गुरु की पहचान इससे करना कि कितनी करुणा है। तुम जब क्रोधित हो जाओ और गुरु अगर तुम्हें नरक भेजने की धमकी देने लगे, तो समझना, करुणा नहीं है। तुम भटक जाओ, तुम मार्ग से उतर जाओ, तुम कामवासना से घिर जाओ, और गुरु तुम्हें माफ न कर सके, तो समझना कि गुरु पूर्णिमा का चांद नहीं है। उसने आवरण बना लिया होगा पूर्णिमा के चांद का। वह नकली चांद है, जैसा कि फिल्म के परदे पर दिखाई देता है। वह असली चांद नहीं है।
चांद तो सारी यात्रा से गुजरा है, सारे अनुभव हैं उसके। मनुष्य के जीवन में जो हो सकता है, वह उसके जीवन में हुआ है। वही गुरु है, जिसने मनुष्यता को उसके अनंत-अनंत रूपों में जी लिया है- शुभ और अशुभ, बुरे और भले, असाधु और साधु, सुंदर और कुरूप। जिसने नरक भी जाना है, जीवन का स्वर्ग भी जाना है; जिसने दुख भी पहचाने और सुख भी पहचाने, जो इन सबसे प्रौढ़ हुआ है। और सबकी संचित निधि के बाद जो पूर्ण हुआ है, चांद हुआ है। इसलिए हम सूरज नहीं कहते गुरु को, चांद कहते हैं। चांद शीतल है। रोशनी तो उसमें है, लेकिन शीतल है। सूरज में रोशनी है, लेकिन जला दे। सूरज की रोशनी प्रखर है, छिदती है तीर की तरह है। चांद की रोशनी फूल की वर्षा की तरह है, छूती भी नहीं और बरस जाती है। गुरु चांद है, पूर्णिमा का चांद है। और तुम कितनी ही अंधेरी रात होओ और तुम कितने ही दूर होओ, कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम उसी यात्रा-पथ पर हो, जहां गुरु कभी रहा है।
इसलिए बिना गुरु के परमात्मा को खोजना असंभव है। परमात्मा का सीधा साक्षात्कार तुम्हें जला देगा, राख कर देगा। सूरज की तरफ आंखें मत उठाना। पहले चांद से नाता बना लो। पहले चांद से राजी हो जाओ। फिर चांद ही तुम्हें सूरज की तरफ इशारा कर देगा। बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय। इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा गुरु-पूर्णिमा है। पर ये काव्य के प्रतीक हैं। इन्हें तुम किसी पुराण में मत खोजना। इनके लिए तुम किसी शास्त्र में प्रमाण मत खोजने चले जाना। यह तो जैसा मैंने देखा है, वैसा तुम से कह रहा हूं।