पिछले 19 जून को जब इस रियासत में महबूबा मुफ्ती की सरकार गिरी थी और राज्यपाल शासन लागू हुआ था, तब शायद कोई भी दल ऐसा नहीं था कि जिसने कहा हो यह बुरा हुआ। यहां तक कि महबूबा मुफ्ती, स्वयं कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं थीं। हां, वे जल्दी चुनाव की बात जरूर कर रहे थे, लेकिन इसके प्रति भी बहुत गंभीर नहीं दिखाई पड़ रहे थे। और अब जबकि राज्यपाल शासन को डेढ़ महीना हो गया है, सभी लोग खुश नजर आ रहे हैं। बहुत तेजी से काम हो रहे हैं। गवर्नर के सलाहकार बड़ी मुस्तैदी के साथ मोर्चों पर डटे हुए हैं। खासकर जम्मू अंचल में महबूबा मुफ्ती सरकार की सहयोगी पार्टी भाजपा को लेकर विचार बदलने लगे हैं। यदि वह सरकार रहती तो सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का ही होना था। क्योंकि वह कुछ कर ही नहीं पा रही थी। अब कम से कम संसदीय चुनाव तक केंद्र के प्रति रुझान बदल सकता है।
कश्मीर में आतंक की कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो पिछले डेढ़ महीने में प्रदेश की कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ है। पत्थरबाजी की घटनाओं में भी कमी आई है। प्रशासन चुस्त हुआ है। जहां पहले 45 प्रतिशत ही कर्मचारी समय पर दफ्तर पहुंच पाते थे, आज इनकी संख्या 80 फीसदी हो चुकी है। जनता के काम हो रहे हैं। चूंकि राज्य में अब तक कुल आठ बार राज्यपाल शासन लग चुका है, इसलिए लोगों के लिए इसमें कोई नई बात नहीं है। कश्मीर घाटी की तरफ लोगों को थोड़ी-बहुत हिचक जरूर थी, लेकिन जम्मू और लद्दाख में तो हर कोई खुश नजर आता है।
आखिर इसकी क्या वजह है? वास्तव में राज्यपाल शासन को सहज स्वीकार करने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि यहां की राजनीति पूरी तरह से विफल हो चुकी है। कुछ स्वार्थ-प्रेरित नेताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकी लोग उनसे बेहद खफा नजर आते हैं। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। लोगों को यह तो दिखाई देता ही है कि केंद्र से अरबों रुपये का पैकेज आता है, लेकिन वह जाता कहां है? आम आदमी की हालत तो वैसी ही है। उद्योग-धंधे डूब रहे हैं। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। आज भी लोग घाटी से पलायन कर रहे हैं। हालात कभी सुधरते नहीं। ऐसे में राज्यपाल शासन उनके लिए किसी नखलिस्तान से कम नहीं होता।
सरकार गिरने का सबसे बड़ा नुकसान पीडीपी को ही हुआ था, जो अब भी हो रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राज्य के राजनेताओं में जितना राजनीतिक चातुर्य महबूबा मुफ्ती में है, उतना किसी और में नहीं। लेकिन इसके बावजूद उनके पांच विधायकों का खुलकर महबूबा के विरोध में आ जाना, यह साबित करता है कि आज उनकी लोकप्रियता का ग्राफ कितना नीचे गिर गया है। इसलिए रियासत में ये भी कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा जल्दी ही निर्दलीय और पीडीपी के टूटे विधायकों की मदद से सरकार बना सकती है। नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया उमर अब्दुल्ला आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा हॉर्स ट्रेडिंग कर रही है। शायद वे इस आशंका से डरे हुए भी हों कि कहीं उनके विधायक भी उनसे किनारा न कर लें। जो भी हो, घाटी के दलों में ये घबराहट तो है ही कि कहीं भाजपा सत्ता में न आ जाए।
भारतीय जनता पार्टी हालांकि राज्यपाल शासन को जारी रखने की बात कह रही है, लेकिन वह ये भी जानती है कि यह व्यवस्था भी अनंत काल तक नहीं चल सकती। एक न एक दिन सरकार बनानी ही होगी। या फिर राष्ट्रपति शासन की तरफ बढ़ना होगा। इसलिए सरकार के विकल्पों पर सोचना जायज होगा। और यदि घाटी के पुराने दलों को छोड़कर निर्दलीय और छोटे समूह भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाते हैं तो यह एक बड़ा प्रयोग होगा। अभी तक भाजपा के लोग यही रोना रोते थे कि महबूबा कुछ करने ही नहीं देतीं, कम से कम उन्हें आजाद होकर कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। इसलिए हमारा तो मानना है कि उसे प्रयास करना चाहिए। क्योंकि वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। फिर विधान सभा भंग नहीं हुई, न ही राष्ट्रपति शासन लागू हुआ है। सिर्फ विधान सभा स्थगित अवस्था में है। इसका मतलब ही यही हुआ कि सरकार बनाने की संभावनाएं अब भी शेष हैं।
वैसे जम्मू-कश्मीर के विधायकों के लिए ये वाकई अच्छे दिन हैं। उनके वेतन-भत्तों पर कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। बदले में कोई जिम्मेदारी भी नहीं। लेकिन तारीफ के काबिल तो राज्यपाल महोदय हैं, जो 82 साल की उम्र में भी बड़ी मुस्तैदी से कमान संभाले हुए हैं और विधायक, राजनीतिक दल और राज्य की जनता, सब प्रसन्न हैं।