गुलाम चिश्ती
राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) के अंतिम मसौदा सूची में जिन 40 लाख से अधिक लोगों को जगह नहीं मिली है उनमें भारी संख्या बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों से यहां आकर बसे लोग की है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दावा है कि इन 40 लाख में से 25 लाख हिंदू हैं। मसौदा सूची के प्रकाशित होने के बाद जहां एक ओर राजनीतिक पार्टियां इसका फायदा उठाने में लगी हुई हैं, वहीं कुछ हिंदी भाषी संगठन इसे कमाई का जरिया बनाने में जुटे हैं। यकायक कई संगठन उठ खड़े हुए हैं जो एनआरसी के मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसी बातें भी सामने आ रही हैं जो यहां कई दशकों से रहने वाले हिंदी भाषियों के लिए चिंता का विषय है।
कुछ हिंदी भाषियों को विदेशी बताकर डिटेंशन कैंप में भेज दिया गया है। इसी कड़ी में एक मर्माहत करने वाली घटना सामने आई है। तिनसुकिया में लंबे अरसे से रहने वाले एक दंपत्ति को ‘डी’ वोटर (संदिग्ध मतदाता) बताकर पिछले तीन महीने से उन्हें डिटेंशन कैंप में रखे जाने और इस शोक में उसकी मां के निधन ने पूरे असम को हिलाकर रख दिया है। इस घटना के विरोध में 17 अगस्त को गुस्साए लोगों ने मृत महिला के शव को सड़क पर रखकर एक घंटे तक तिनसुकिया-दुलियाजान सड़क को जाम कर दिया और प्रशासन के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। इस दौरान अखिल असम भोजपुरी युवा छात्र परिषद और अखिल असम भोजपुरी परिषद की ओर से एक ज्ञापन जिला उपायुक्त को सौंपा गया और मांग की गई कि गिरफ्तार दिनेश प्रजापति को मां को मुखाग्नि देने के लिए रिहा किया जाए। इसके अलावा पीड़ित गरीब परिवार को दस लाख रुपये मुआवजा दिए जाने की मांग भी की गई।
उल्लेखनीय है कि तिनसुकिया के पोखरीजान सब्जी बाड़ी, 6 नंबर लाइन में रहने वाले दिनेश प्रजापति और उसकी पत्नी तारा देवी को न्यायालय के निर्देश पर डी वोटर घोषित कर दिया गया और तीन महीने पूर्व दोनों को गिरफ्तार कर डिटेंशन कैंप में भेज दिया गया। कानूनी लड़ाई लड़कर अपने बेटे-बहू को मुक्त कराने की कोशिश करते-करते दिनेश प्रजापति की मां ने आखिरकार 16 अगस्त की देर रात को दम तोड़ दिया। गिरफ्तार दिनेश और तारा के पांच छोटे-छोटे बच्चे हैं जो पिछले तीन महीने से अपनी बूढ़ी दादी के साथ रह रहे थे। दिनेश की मां के निधन के बाद अब उसके बच्चों को देखने वाला कोई नहीं है। इस घटना से पूरा परिवार सदमे में है। इसे लेकर पोखरीजान के लोगों में गुस्सा देखा गया। गांव वालों का कहना है कि आखिर एक भारतीय व्यक्ति कैसे डी वोटर हो सकता है जबकि कई बार वह और उसकी पत्नी मतदान कर चुके हैंं। दिनेश प्रजापति के परिवार वालों के अनुसार, देश की आजादी से पूर्व उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से तिनसुकिया में आकर बस गए और तब से उनका परिवार यहीं है। थोड़ी बहुत सब्जी की खेती कर और दिहाड़ी मजदूरी कर वे अपने परिवार को पाल रहे हैं।
दिनेश के पिता का नाम परशुराम प्रजापति और मां का नाम छोटकी देवी था। वर्ष 2002 में दिनेश और तारा को डी वोटर की तालिका में डाल दिया गया। इसके बाद एक नोटिस जारी कर उन्हें भारतीय साबित करने का निर्देश दिया गया। पढ़ा-लिखा न होने के कारण दिनेश का परिवार अदालत के इस निर्देश को ठीक से समझ नहीं पाया। उन्होंने किसी पड़ोसी से भी इस संदर्भ में कोई सलाह नहीं ली। इस बीच 2013 की मतदाता सूची में दिनेश और उसकी पत्नी का नाम भी आया। पर दूसरी ओर डी वोटर के मामले को लेकर एकबार फिर से 2015 में उन्हें एक नोटिस जारी कर अदालत में हाजिर होने का निर्देश दिया गया। इस बार फिर से उन्हें निर्देश समझ में नहीं आया और उन्होंने न्यायालय के निर्देश को तव्वजो नहीं दी व फॉरेन ट्रिब्यूनल कोर्ट में हाजिर नहीं हुए। कई निर्देश जारी किए जाने के बाद भी कोर्ट में पेश न होने पर अदालत ने इसे आदेश की अवमानना माना और इस वर्ष मई महीने में उनकी गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया। इस पर कार्रवाई करते हुए तिनसुकिया पुलिस ने 15 मई को दिनेश और तारा को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जहां से तारा को जोरहाट डिटेंशन कैंप में और दिनेश को डिब्रूगढ़ जेल भेज दिया गया।
इस घटना ने एकबार फिर से यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर एक मूल भारतीय कैसे विदेशी बन गया जिसे अब भारतीय होने का सबूत देने के लिए जद्दोजेहद करनी पड़ रही है। दिनेश के दादा और पिता का नाम वर्ष 1971 और उससे पूर्व की मतदाता सूचियों में है। उनका लिगेसी डाटा भी है। इससे भी हैरानी की बात यह है कि उसके छोटे भाई, चाचा-चाची और चचेरे भाई का नाम एनआरसी में आया है। इस घटना को लेकर अखिल असम भोजपुरी युवा छात्र परिषद के केंद्रीय सचिव अजय सिंह (मुन्ना), जिला अध्यक्ष अवधेश रस्तोगी, सचिव अजय सिंह परमार, हिंदी भाषी विकास परिषद के सदस्य वकील राय और समाजसेवी अरुण साहू ने आश्चर्य जताते हुए मामले की जांच की मांग के साथ दिनेश और तारा को रिहा करने करने की मांग की है। तिनसुकिया के पूर्व विधायक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने भी घटना की तीखी निंदा की है। असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देवब्रत सैकिया ने भी इस घटना की निंदा की और पीड़ित परिवार को रिहा करने की मांग की है। भाजपा विधायक अशोकानंद सिंघल ने भी किसी भी भारतीय को विदेशी बताने को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। बताते चलें कि सिंघल के नेतृत्व में कई हिंदी भाषी संगठनों को मिलाकर असम हिंदी भाषी समन्वय समिति का गठन किया गया जिसने दिल्ली जाकर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की थी और एनआरसी को लेकर हिंदी भाषियों की चिंता से उन्हें अवगत कराया था। असम प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता और हिंदी भाषी विकास परिषद के उपाध्यक्ष गौरव सोमानी ने भी इस पर गहरी चिंता जताते हुए इसे राजनीतिक षडयंत्र करार दिया।
यह मामला सिर्फ प्रजापति परिवार का नहीं है। ऐसे कई परिवार हैं जिन्हें इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। रामसागर राम और लालबाबू पासवान भी उन्हीं में से एक हैं। बिहार के पूर्वी चंपारण जिले से तीन दशक पूर्व असम आकर बसे लालबाबू पासवान का कहना है कि उसका परिवार अपने पड़ोसी मंशी पंडित के साथ यहां आया था और तब से यहां स्थायी तौर पर रह रहा है। मंशी पहले से यहां ठेकेदारी का काम करते थे। गुवाहाटी के ज्योतिकुचि में हमारा अपना मकान भी है। विदेशी न्यायाधिकरण में लालबाबू पर असम के रास्ते 1 जनवरी, 1966 और 24 मार्च, 1971 के बीच बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में जाकर बसने का आरोप लगाया गया है। जबकि लालबाबू का कहना है कि वह 1966 में दो साल के थे। उसके पुरखे सदियों से बिहार के निवासी रहे हैं। उन्होंने एनआरसी के आवेदन में 1949 का पुस्तैनी दल जमा करवाया है। उनके पास अंग्रेजों की ओर से उनके दादा को दिया गया जमीन का पट्टा भी है। उन्होंने 1980 में बिहार से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। लालबाबू समझ नहीं पा रहे हैं कि सीमा पुलिस किस आधार पर उसे विदेशी घोषित करने पर उतारू है। उनके पुरखे बिहार के हैं तो वे विदेशी कैसे हो गए। इस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री व चाय समुदाय के बड़े नेता पवन सिंह घाटोवार का कहना है कि किसी भी भारतीय को विदेशी बताकर उन्हें डिटेंशन कैंप में भेजना ठीक नहीं है। घाटोवार ने प्रजापति दंपति को शीघ्र ही डिटेंशन कैंप से रिहा करने की मांग की है।
सीमा पुलिस की भूमिका संदेहास्पद
देसी व्यक्तियों को विदेशी बनाने में सीमा पुलिस की भूमिका संदेहास्पद है। सीमा पुलिस ने विदेशी होने के संदेह में ऐसे कई परिवार को गिरफ्तार किया है जिनके परिवार के लोग स्वतंत्रता सेनानी और सरकारी कर्मचारी रहे हैं। असम विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे मौलाना अमरुल के परिजनों को विदेशी बताकर सीमा पुलिस ने नोटिस भिजवाया था। इसके अलावा कई स्वतंत्रता सेनानियों को भी डी वोटर्स के नोटिस मिले हैं। बराक वैली में उनकी गिरफ्तारी तक की खबर है। पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इस मामले में सीमा पुलिस की भूमिका को संदेहास्पद बताते हुए दोषी अधिकारियों को गिरफ्तार करने की मांग की है।
प्रमुख लोगों के नाम भी गायब
बरपेटा जिले के कायाकुचि इलाके में रहने वाले मशहूर कवि व सरकारी स्कूल में शिक्षक सफीउद्दीन अहमद (36) का नाम मसौदे में शामिल नहीं है। उनके दो बेटों को भी सूची से बाहर रखा गया है। सफीउद्दीन बताते हैं, ‘मैंने तमाम जरूरी दस्तावेजों के साथ अपने पासपोर्ट की कापी भी जमा की थी। पहले मसौदे में नाम न होने के बावजूद हमें पूरा भरोसा था कि अंतिम मसौदे में हमारा नाम शामिल कर लिया जाएगा लेकिन पता नहीं नहीं ऐसा क्यों हुआ।’ अहमद के 12 सदस्यों वाले परिवार में नौ लोगों के नाम एनआरसी में शामिल हैं। अहमद के परदादा वर्ष 1952 में राज्य की पहली विधानसभा में ताराबाड़ी सीट से विधायक चुने गए थे। अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ की केंद्रीय समिति की सदस्य मौसुमा बेगम (25) का नाम भी एनआरसी से बाहर है जबकि उनके परिवार के बाकी लोगों का नाम इसमें शामिल है। वह कहती हैं, ‘हम सबने एक जैसे कागजात जमा किए थे लेकिन माता-पिता और भाइयों को तो एनआरसी में जगह मिल गई, मुझे नहीं।’
बाल अधिकार कार्यकर्ता और टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस से ग्रेजुएशन करने वाली 26 साल की ईशानी चौधरी इस बात से परेशान हैं कि एनआरसी में नाम न होने की वजह से कहीं उनका जेनेवा दौरा तो खटाई में नहीं पड़ जाएगा। संयुतराष्ट्र मानवाधिकार आयोग की ओर से 28 सितंबर को जेनेवा में आयोजित उक्त सम्मेलन में ईशानी को भी हिस्सा लेना है। उन्होंने पासपोर्ट बनवाने के लिए आवेदन दिया हुआ है। उदालगुड़ी जिले के एक शिक्षक और असमिया अखबारों में नियमित रूप से कॉलम लिखने वाले मुसाबीरूल हक का नाम भी एनआरसी से बाहर है। वह कहते हैं कि एनआरसी का खाका लोगों को मसौदे से बाहर रखने के लिए बनाया गया है। जबकि इसका फोकस यह होना चाहिए था कि किसी वैध नागरिक का नाम मसौदे से बाहर न रहे। बराक घाटी इलाके में कछार के विधायक दिलीप पाल की पत्नी अर्चना पाल और कांग्रेस के पूर्व विधायक अताउर रहमान के नाम भी मसौदे में शामिल नहीं हैं। विधायक पाल कहते हैं कि उनकी पत्नी फिर अपना दावा पेश करेंगी। एनआरसी की अंतिम सूची का इंतजार करेंगे। करीमगंज के कांग्रेस विधायक केडी पुरकायस्थ कहते हैं, ‘लोग अपनी आपत्तियां व दावे दोबारा जरूर पेश कर सकते हैं लेकिन एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम मसौदे में न होना चिंताजनक है। मसौदे में बड़ी गड़बड़ियां हैं। इसका मकसद लोगों को परेशान करना है।’