उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीतिक और सामाजिक नैरेटिव में खास तौर पर पिछले एक दशक में संघ को घृणा और हत्यारी सांप्रदायिकता का प्रतीक बना दिया गया। 1990 तक गैर कांग्रेसवाद केंद्रित विपक्षी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के साथ गलबहियां करने वाला विपक्ष सिर्फ बाबरी ध्वंस के बाद से जैसे संघ परिवार का निजी दुश्मन बन गया। संघ को हर मोर्चे पर हत्यारा, घृणा फैलाने वाला, दकियानूसी और न जाने क्या-क्या बताने की जैसे होड़ ही शुरू हो गई। लेकिन ‘भारत का भविष्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर केंद्रित व्याख्यान ने संघ को लेकर बनी इन अवधारणाओं की लौह दीवार में दरार डाल दी है। समलैंगिकता और अंतरजातीय विवाह जैसे सामाजिक मुद्दे हों या फिर सांप्रदायिकता, मुस्लिम विरोध, धर्मांतरण जैसे धार्मिक मुद्दे, संघ में ब्राह्मण वर्चस्व और संघ के आंतरिक लोकतंत्र जैसा आंतरिक मामला, जाति और धर्म आधारित राजनीति हो या फिर अनुच्छेद 370, अनुच्छेद 35 ए, गौरक्षा, मॉब लिंचिंग या फिर समान नागरिक संहिता, हर विषय पर संघ प्रमुख ने खुलकर राय रखी। इनमें से कुछ राय संघ के उन स्वयंसेवकों को परेशान कर सकती है, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आक्रामक हिंदुत्व की राह के नाम आगे बढ़ने के लिए केसरिया साफ बांधा हो।
इस कार्यक्रम में शामिल होने आए संघ के निष्ठावान स्वयंसेवकों की राय थी कि संघ की शाखाओं में अक्सर ये विचार कभी बौद्धिक के रूप में तो कभी सामान्य संबोधन के रूप में बताए-सुनाए जाते रहे हैं। फिर संघ प्रमुख का यह संबोधन महत्वपूर्ण क्यों है? संघ प्रमुख का व्याख्यान सुनने आए नोटबंदी के पैरोकार अर्थतंत्र के वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं मराठी अभिनेता दीपक करंजीकर कहते हैं, ‘चूंकि अतीत में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। संघ प्रमुख ने दशहरा संबोधन के अलावा कभी सार्वजनिक तौर पर नहीं बोला। जबकि संघ प्रमुख पहली बार तमाम मुद्दों पर संघ की राय सार्वजनिक तौर पर रख रहे हैं, इसलिए यह कार्यक्रम महत्वपूर्ण रहा।’
संघ के आलोचक तक यह मानने को मजबूर हो गए कि संघ प्रमुख के इस व्याख्यान के बाद संघ को लेकर आग्रहों-दुराग्रहों का जो कुहासा छाया हुआ है, वह छंटेगा। अव्वल तो उम्मीद की जा रही थी कि अतीत में जिस तरह संघ के हर कदम का कुछ राजनीतिक और सामाजिक संगठन विरोध करते रहे हैं, कुछ वैसा ही नजारा इस बार भी देखने को मिलेगा। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।
संघ के खिलाफ हमले के लिए अक्सर वामपंथी संगठन और विचारक पिछली सदी के चौथे दशक में प्रकाशित संघ के दूसरे गुरु माधव सदाशिव गोलवलकर के भाषणों के संग्रह ‘बंच आॅफ थॉट’ को आधार बनाते रहे हैं। इस पुस्तक के जरिये विपक्षी संघ को खूंखार संगठन बताते रहे हैं। लेकिन अपने व्याख्यान के तीसरे दिन सवाल-जवाब के क्रम में मोहन भागवत ने जो राय रखी, उसने एक तरह से विपक्षियों को निरुत्तर कर दिया है। उन्होंने कहा, ‘बंच आॅफ थॉट्स में वे बातें परिस्थितिवश बोली गर्इं। वे शाश्वत नहीं हैं। संघ बंद संगठन नहीं है। समय बदलता है। हमारी सोच बदलती है। बदलने की अनुमति डॉ. हेडगेवार से मिलती है।’ भागवत यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा, ‘संघ कोई बंद संगठन नहीं है कि डॉक्टर हेडगेवार ने कुछ वाक्य बोल दिए तो हम उन्हें ही लेकर चलते रहें। डॉक्टर हेडगेवार से हमें बदलने की अनुमति मिलती है। इसलिए वक्त के साथ हमने खुद को बदला है।’
संवाद के दूसरे दिन हिंदुत्व पर संघ प्रमुख ने जो विचार रखे, उसे सार्वकालिक व्याख्यान में रखा जा सकता है। उन्होंने हिंदुत्व की जो परिभाषा दी, उस परिभाषा पर सवाल उठाने की हिम्मत शायद ही कोई कर सके। उन्होंने कहा, ‘हिंदू धर्म भी मानव धर्म है। किसी एक का नहीं है। सबका हित हो, उसका संतुलन हो, यही हिंदुत्व है। सब दर्शन, मान्यताओं, उपासनाओं को सार्थक मानना हिंदुत्व है।’ भागवत ने हिंदुत्व को लेकर इससे भी बड़ी परिभाषा दी। उन्होंने कहा, ‘संघ का हिंदुत्व का विचार अपना खोजा हुआ नहीं है, बल्कि परंपरा से ग्रहण किया गया है। संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है, वह विविधता में एकता, समन्वय, त्याग, संयम और कृतज्ञता जैसे मूल्यों का समुच्चय है।’ उन्होंने हिंदुत्व की परिभाषा को व्याख्यायित करते हुए कहा, ‘हिंदुत्व के दृष्टिकोण से विकास और पर्यावरण में कोई झगड़ा नहीं है। सब साथ चल सकते हैं। सब साथ उन्नति कर सकते हैं।’ संघ प्रमुख ने कहा कि ‘हिंदुत्व की इसी अवधारणा को लेकर संघ चलता है, संघ इसकी बात करता है और लोग इसके खिलाफ दुष्प्रचार करने लगते हैं।’ उन्होंने हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए गांधी जी को भी उद्धृत किया। गांधी जी कहा करते थे, ‘हिंदुत्व सत्य के सनातन खोज की प्रक्रिया है।’ उन्होंने जनजातीय समुदाय को भी हिंदू मानने पर जोर देते हुए तर्क दिया कि भारत में जो लोग रहते हैं वे सभी राष्ट्रीयता और पहचान की दृष्टि से हिंदू ही हैं। भागवत के मुताबिक वनवासी समाज भी हिंदू ही है। भागवत ने इस तथ्य से इनकार कर दिया कि हिंदुत्व को लेकर आक्रोश है। उन्होंने कहा कि हिंदुत्व ही है जो सबके साथ तालमेल का आधार हो सकता है। हिन्दुत्व को लेकर दुनिया भर में सम्मान का भाव है और उसकी स्वीकृति है जबकि भारत में हिंदुत्व को लेकर आक्रोश है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दलित और अल्पसंख्यक विरोधी प्रचारित करने की एक हद तक कामयाब कोशिशें होती रही हैं। वाम और संघ विरोधी विचारक एवं राजनेता संघ को दोषी ठहराने वाले कथन ही उद्धृत करते रहे हैं। लेकिन संघ प्रमुख अपने व्याख्यान में अंबेडकर और भारत में नव मानववाद के प्रवर्तक एवं भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के संस्थापक मानवेंद्र नाथ को भी उदारतापूर्वक उद्धृत करने से नहीं चूके। उन्होंने संघ के हिंदुत्व के समर्थन में अंबेडकर के हवाले से कहा, ‘स्वातंत्र्य, समता और विश्व बंधुत्व की सीख मैंने फ्रांस की क्रांति से नहीं सीखी है, इसी देश की मिट्टी में विकसित बुद्धत्व से सीखी है।’ संवाद के पहले दिन मोहन भागवत ने मानवेंद्र नाथ राय का उल्लेख करते हुए कहा, ‘ऊपर-ऊपर अगर हम समाज का परिवर्तन करेंगे तो ठीक परिणाम प्राप्त नहीं होगा। हमें समाज के अंदर तक सामान्य जन से संपर्क करके समाज का बदलाव करना चाहिए। मानवेंद्र नाथ राय के जरिये मोहन भागवत ने साफ किया कि संघ भी यही काम कर रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या भविष्य में संघ विरोधी विचारधाराएं संघ के अच्छे कामों का उल्लेख करेंगी? हालांकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र लोकलहर में अपने आखिरी लेख में सीपीएम के पूर्व महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वनवासियों के बीच किए जा रहे कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहा था कि वामपंथी ऐसा एक भी आंदोलन नहीं खड़ा कर पाए। लेकिन पता नहीं क्यों, कभी ऐसे विचारों को संघ विरोधियों ने स्वीकार नहीं किया।
संवाद के पहले ही दिन उन्होंने कहा कि मुसलमान के बिना हिंदुत्व का भी मतलब नहीं है। संवाद के आखिरी दिन अल्पसंख्यक के सवाल पर उन्होंने और आगे बढ़कर कहा, ‘अंग्रेजों के आने से पहले हमने कभी अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। मैं अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहता। मातृभूमि, संस्कृति और परंपराओं के हिसाब से सभी अपने हैं। यह सच है कि लोगों में मनमुटाव बढ़ा है, लेकिन हमारा आह्वान राष्ट्रीयता का है। हम कहते हैं उनसे जो हमारे प्रति रिजर्वेशन रखते हैं, वे आएं हमारे पास, हमें पास से जानें।’
मोहन भागवत ने उस अवधारणा को भी खारिज करने की कोशिश की कि संघ आक्रामक और भारतीय संविधान को न मानने वाला संगठन है। अपने संवाद के पहले ही दिन उन्होंने संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का उदाहरण देते हुए कहा था कि खुद हेडगेवार ने कांग्रेस के पूर्ण स्वतंत्रता प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कांग्रेस के लिए धन्यवाद प्रस्ताव लाने के लिए निर्देश हर शाखा को दिए थे।
संघ के खिलाफ जब भी मौका लगता है, कांग्रेस और उसके नेता उसके खिलाफ जहर उगलने से नहीं बचते। संघ पर आरोप लगाया जाता है कि वह तिरंगे को नहीं मानता। हालांकि संवाद के पहले ही दिन संघ प्रमुख ने 1931 की जलगांव की एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि वहां जब तिरंगा फहराया जा रहा था तो वह खुला ही नहीं। तब किशन सिंह राजपूत नामक स्वयंसेवक ने उस ऊंचे खंभे पर चढ़कर उसे फहराया था। तब वहां मौजूद जवाहर लाल नेहरू ने राजपूत की पीठ थपथपाई थी। भागवत ने तर्क दिया कि ‘अगर कांग्रेस और तिरंगा का विरोध संघ कर रहा होता तो उसका स्वयंसेवक तिरंगे को फहराने का काम क्यों करता।’ संघ प्रमुख ने संविधान को लेकर भी अपनी स्पष्ट राय रखी। उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में बेशक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द बाद में जोड़े गए, लेकिन संघ का संविधान में पूरा भरोसा है। अलबत्ता उन्होंने साफ कर दिया कि अनुच्छेद 370 और 35ए को संघ नहीं मानता। संघ के एजेंडे में कश्मीर के लिए एक निशान, एक विधान और एक प्रधान का नारा रहा है। संघ प्रमुख ने जब अनुच्छेद 370 और 35ए को न मानने की बात की तो विज्ञान भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। संघ प्रमुख ने लगे हाथों उस आरोप को भी खारिज कर दिया, जिसके मुताबिक संघ पर आरोप लगाया जाता रहा है कि वह अध्यक्षीय प्रणाली यानी अमेरिका और रूस की तरह राष्ट्रपति प्रणाली का हिमायती है। संघ प्रमुख ने कहा कि दुनिया हमारे लोकतंत्र को ध्वस्त होते देखना चाहती थी, लेकिन मौजूदा व्यवस्था के तहत ही हिंदुस्तान आगे बढ़ा है और यह पद्धति कामयाब है।
संघ के विरोधी संघ पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह मॉब लिंचिंग और गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं का समर्थक है। लेकिन संघ प्रमुख ने इससे साफ इनकार करते हुए कहा, ‘सिर्फ गाय के लिए, बल्कि अन्य किसी भी वजह से कानून को अपने हाथ में लेना अपराध है। जो लोग इस तरह से सोच रहे हैं, वे लिंचिंग करने वाले नहीं हैं। अच्छी गोशालाएं चलाने वाले, भक्ति से चलाने वाले लोग हमारे यहां हैं, मुस्लिम भी इसमें शामिल हैं।’ लेकिन संघ प्रमुख ने यह भी साफ कर दिया है कि गोतस्करों की हिंसा को भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने कहा, ‘जो लोग तस्करी कर रहे हैं, वे ही गाय के नाम पर हिंसा कर रहे हैं। संघ का मानना है कि गाय ही ऐसा पशु है जो देश में गरीबों के लिए आर्थिक तौर पर सहायक साबित हो सकती है। गाय के जितने सारे उपयोग हैं, उन्हें कैसे अपनाया जाए, इस पर काम होना चाहिए।’
संघ प्रमुख ने जाति-व्यवस्था पर भी राय रखी। उन्होंने इसे जाति-अव्यवस्था कहने पर जोर दिया और समाज के बीच रोटी-बेटी के व्यवहार को बढ़ावा देने की वकालत की। उन्होंने यह भी कहा कि संघ के स्वयंसेवक सबसे ज्यादा अंतरजातीय विवाह करते हैं। संघ के बारे में माना जाता है कि वह दकियानूसी संगठन है। लेकिन संघ प्रमुख ने समलैंगिकता पर भी अपनी राय रखी। उन्होंने कहा, ‘समाज में कुछ लोगों में समलैंगिकता है। ऐसे लोग समाज के अंदर ही हैं, इसलिए उनकी व्यवस्था समाज को करनी चाहिए। मुद्दा बनाकर हो हल्ला करने से फायदा नहीं होगा। समाज बहुत बदला है, इसलिए समाज स्वस्थ रहे ताकि वे अलग-थलग पड़कर गर्त में न गिर जाएं।’
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उन्होंने भी बड़ी राय रखी। संघ प्रमुख ने कहा कि महिलाओं को अपने यहां जगदंबा मानने की परंपरा रही है, हालांकि मौजूदा दौर में महिलाओं की हालत ठीक नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि मातृवत परदारेषु यानी अपनी पत्नी के अलावा सभी महिलाओं को मां मानने की सीख हमें शुरू से ही समाज, लड़कों और पुरुषों को देनी होगी।
संघ प्रमुख का उद्बोधन हो और राममंदिर की चर्चा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे भी दुनिया की निगाह इस मुद्दे पर लगी हुई थी। संघ प्रमुख ने इस संदर्भ में कहा, ‘राम मंदिर पर अध्यादेश का मामला सरकार के पास है और आयोजन का मामला राम जन्मभूमि मुक्ति संघर्ष समिति के पास है और दोनों में मैं नहीं हूं। आंदोलन में क्या करना है, वह उच्चाधिकार समिति को तय करना है। अगर वह सलाह मांगेगी तो मैं बताऊंगा। मैं संघ के नाते चाहता हूं कि राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर जल्द बने। भगवान राम अपने देश के बहुसंख्य लोगों के लिए भगवान हैं, लेकिन वे केवल भगवान नहीं हैं। उनको लोग इमाम-ए-हिंद मानते हैं। इसलिए जहां राम जन्मभूमि है, वहां मंदिर बनना चाहिए।’
संघ प्रमुख ने जब यह राय रखी, तब भी विज्ञान भवन तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहा।
संघ प्रमुख ने धर्मांतरण का भी विरोध किया। उन्होंने कहा, ‘जो लोग कहते हैं कि सभी धर्म एक समान हैं, वही धर्म परिवर्तन भी करवा रहे हैं। जब सभी धर्म एक समान हैं तो सवाल उठता है कि आप लोगों को इधर से उधर क्यों ले जा रहे हैं। धर्म-परिवर्तन किसी भी इंसान की आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं होता। संघ धर्म-परिवर्तन के खिलाफ है।’
संघ प्रमुख ने आरक्षण व्यवस्था का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि आरक्षण कब खत्म होना चाहिए या किस समुदाय को नहीं चाहिए, यह आरक्षण प्राप्त समुदाय को ही तय करना होगा। इसके साथ ही उन्होंने एससी-एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग का भी विरोध किया। इसके अतिरिक्त भाषा आदि तमाम मुद्दों पर संघ प्रमुख ने अपनी राय रखी। संघ प्रमुख को पटना से सुनने आए प्रोफेसर अनिल कुमार ने संघ प्रमुख के भाषण सुनने के बाद कहा कि ‘संघ के इस संवाद की अनूगूंज देर और दूर तक सुनाई देती रहेगी। इससे संघ के प्रति लोगों की अवधारणा बदलने में मदद मिलेगी।’
लेकिन कुछ सवाल संघ के उन विरोधियों पर भी उठेंगे। संघ ने अपने इस संवाद कार्यक्रम के लिए विपक्षी दलों के राजनेताओं को भी न्योता भेजा था। लेकिन उन्होंने संवाद करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शास्त्रार्थ और संवाद की परंपरा वाले देश में विचारों के आदान-प्रदान की मांग तो खूब होती है। लेकिन संघ जैसे संगठन से बात करने में उन लोगों को हिचक होती है, जो नक्सलियों, अलगाववादियों और आंदोलनकारियों से बात करने की मांग करते रहते हैं। इसीलिए जब उन्हें संवाद का न्योता गया तो उन्होंने किनारे रहने में ही भलाई समझी। इनमें कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, डीएमके, तेलुगू देशम, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल सभी शामिल हैं।
बहरहाल, माना जा सकता है कि संघ प्रमुख का यह व्याख्यान 1965 के दीनदयाल उपाध्याय के व्याख्यान की तरह ही भारतीय समाजनीति और राजनीति के लिए प्रस्थानबिंदु होगा। दीनदयाल उपाध्याय के भाषण ने एकात्म मानववाद का दर्शन दिया था, जिस पर आगे बढ़ते हुए भारतीय जनता पार्टी आज देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। संघ प्रमुख का यह संवाद उसी तरह देश के सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में नई फुहारों का सबब बन सकेगा।