बनवारी
अमेरिका की प्रत्यक्ष और परोक्ष चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए ब्लादिमिर पुतिन की हाल की भारत यात्रा के दौरान भारत ने रूस से हथियारों की नई खरीद के बारे में समझौता किया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण पांच अरब डॉलर मूल्य की एस-400 मिसाइल रोधी रक्षा प्रणाली की खरीद है। इस समय यह विश्व में उपलब्ध सबसे उत्तम रक्षा कवच है जो शत्रु की ओर से आने वाले किसी भी तरह के हवाई हमले को नष्ट कर सकता है। यह इसी तरह की अमेरिकी रक्षा प्रणाली से बेहतर है और अमेरिका के सबसे आधुनिक लड़ाकू विमान जेट-एफ 35 को भी हवा में नाकाम कर सकता है। इस तरह की छह प्रणालियां रूस से चीन द्वारा वर्ष 2015 में ही खरीदने का समझौता हुआ था। इस वर्ष के आरंभ में चीन को रूस से इसकी पहली खेप मिलनी शुरू हो गई। शुरू में भारत ने ट्रियंफ एस-400 के 12 स्क्वार्डन खरीदने पर विचार किया था लेकिन बाद में यह निश्चय हुआ कि हमारी आवश्यकताओं को देखते हुए अभी पांच स्क्वार्डन ही काफी है। समझौते के अनुसार रूस 24 महीने के भीतर इनकी आपूर्ति करना आरंभ कर देगा।
शुरू में अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ भी इस राय से सहमत थे कि भारत को रूस से यह प्रणाली खरीदने देनी चाहिए। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक संतुलन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है। अमेरिकी सेना के शीर्ष अधिकारी भी अपनी यह राय घोषित कर चुके थे लेकिन अमेरिकी राजनेता इस सिलसिले में परस्पर विरोधी संकेत देते रहे। पिछले कुछ महीने में वे लगातार यह दोहराते रहे हैं कि अमेरिका भारत द्वारा रूस से की गई हथियारों की पुरानी खरीद के कल-पुर्जों को खरीदने के खिलाफ नहीं है लेकिन अगर भारत रूस से हथियारों की नई खरीद का कोई समझौता करता है तो उस पर काटसा कानून के अंतर्गत कार्रवाई हो सकती है। जॉर्ज बुश के राष्ट्रपति रहते भारत-अमेरिकी संबंधों में जो सुधार हुआ है उसे भारत महत्वपूर्ण समझता है। इसलिए भारत की ओर से अमेरिका को यह समझाया जाता रहा कि भारत के सामने पाकिस्तान और चीन की दोहरी चुनौती है। चीन अपनी सामरिक शक्ति जिस तेजी से बढ़ा रहा है उसे देखते हुए भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। चीन द्वारा रूस से एस-400 की खरीद के बाद भारत की चिंता और बढ़ गई थी। दूसरी तरफ पाकिस्तान की परमाणु चुनौती को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान जिस तरह इस्लामी आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है उससे भारत की चिंता दोगुनी हो जाती है। वह इस अमेरिकी दावे से आश्वस्त नहीं हो सकता कि अमेरिका जब चाहे पाकिस्तान के परमाणु भंडार को हस्तगत कर सकता है। इसलिए भारत की ओर से अमेरिका को यही तर्क दिया जाता रहा है कि उसकी सुरक्षा के लिए रूस से ट्रियंफ प्रणाली की खरीद आवश्यक है।
अमेरिका भारत की स्थिति को समझते हुए भी एक अनिश्चितता बनाता रहा है। अंतत: भारत को अमेरिकी चेतावनियों को नजरअंदाज करने का निर्णय करना पड़ा। यह समझौता हो जाने के बाद अमेरिका की ओर से यह संकेत दिया गया कि अमेरिका भारत को एक सहयोगी शक्ति के रूप में देखता है। इसलिए वह कोई भी कदम सोच-समझकर ही उठाएगा। लेकिन जब तक अमेरिका इस बात की औपचारिक घोषणा न कर दे कि रूस से हथियार खरीदने के कारण भारत पर आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाए जाएंगे तब तक भारत इन मामलों पर अधिक सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करना चाहता। इसीलिए राष्ट्रपति पुतिन की इस यात्रा में एस-400 प्रणाली की खरीद की औपचारिक घोषणा करने की बजाय इस बात का संकेत ही दिया गया कि भारत ने यह खरीद करने का निर्णय ले लिया है। उन्नत हथियारों के मामले में भारत आज भी अपने पुराने सहयोगी रूस पर अधिक निर्भर है। परमाणु क्षेत्र में भी वह रूस से सहयोग को अधिक महत्वपूर्ण मानता है। अंतरिक्ष संबंधी योजनाओं में भी भारत और रूस एक-दूसरे को सहयोगी पाते हैं। इसलिए राष्ट्रपति पुतिन की यात्रा में यह सभी महत्वपूर्ण निर्णय ले लिए गए।
रूस से हथियारों की खरीद को लेकर भारत-अमेरिकी संबंधों में जो दुविधा पैदा हुई है वह जल्दी समाप्त नहीं होने वाली। जिस तरह रूस से हथियारों की नई खरीद को लेकर अमेरिका भारत को चेताता आ रहा है, उसी तरह वह ईरान से कच्चे तेल की खरीद को लेकर भी भारत को दुविधा में डालता रहा है। अमेरिका ईरान से हुए परमाणु समझौते को निरस्त कर चुका है और उस पर आर्थिक प्रतिबंध घोषित कर चुका है। अगले महीने से भारत को यह निर्णय करना पड़ेगा कि वह ईरान से तेल की खरीद जारी रखे और अमेरिकी प्रतिबंधों का खतरा मोल ले या वह अमेरिकी प्रतिबंधों की चिंता को महत्व देते हुए ईरान से तेल की खरीद रोक दे। अभी तक भारत यही जताता रहा है कि वह ईरान से तेल की खरीद घटा सकता है पर उसे शून्य नहीं कर सकता। भारत ही नहीं, यूरोपीय संघ, रूस और चीन भी ईरान संबंधी अमेरिकी नीति को अनुचित घोषित कर चुके हैं। लेकिन सबकी मुश्किल यह है कि अगर अमेरिका अपने घोषित प्रतिबंधों पर अड़ा रहता है तो कोई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था यह जोखिम लेना नहीं चाहेगी कि वह बड़े अमेरिकी बाजार को नजरअंदाज करके ईरान से तेल के आयात के भुगतान का माध्यम बने। पिछली बार जब ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध लगे थे तो बीच का रास्ता निकल आया था। लेकिन इस बार भारत को यह आसान नहीं दिखाई देता। फिर भी भारत की ओर से निरंतर यही कहा जाता रहा है कि वह ईरान से तेल की खरीद करता रहेगा। भारत की दूसरी बड़ी चिंता यह है कि ईरान पर प्रतिबंध लगाकर अमेरिका ने विश्व बाजार में तेल की किल्लत पैदा कर दी है और उसके दाम आसमान छूते जा रहे हैं। अमेरिका ने हाल ही में सऊदी अरब को तेल के दाम बढ़ाने के लिए धमकाया था। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी नीति से तेल के दाम बढ़ते रहेंगे और उसका विश्व अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
इस सबके लिए दुनियाभर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को खलनायक बताया जा रहा है। लेकिन समस्या केवल डोनाल्ड ट्रंप नहीं हैं। अमेरिकी विदेश नीति इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रही है। पिछले कुछ वर्षों में चीन एक नई आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में उभरा है। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान को यह तय करना है कि वह इस चुनौती से निपटने के लिए क्या करे। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपतियों से इस मामले में अलग हैं कि वे कोई लाग-लपेट नहीं रखते। ट्रंप ने चीन के विरुद्ध सीधी मुहिम छेड़ दी है। अब तक यह केवल आयातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क बढ़ाने तक सीमित थी। अब ट्रंप ने चीन के खिलाफ कई और नए मोर्चे खोल दिए हैं। उन्होंने ताईवान को आर्थिक और सैनिक सहायता बढ़ा दी है। दक्षिणी चीन सागर में अमेरिकी नौसैनिक पोतों की आवाजाही बढ़ गई है। वे उत्तर कोरिया को चीन से अलग करके भविष्य में एक शक्तिशाली कोरिया बनने का रास्ता खोल रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने चीन के शिनजियांग प्रांत में उईगर मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का मुद्दा भी उठा दिया है। अमेरिकी सीनेट में यह मांग उठ चुकी है कि चीन अपने अल्पसंख्यकों पर जो अत्याचार कर रहा है उसे लेकर उस पर आर्थिक प्रतिबंध और कड़े क्यों न कर दिए जाएं। रूस से एस-400 की तथा अन्य हथियारों की खरीद को लेकर अमेरिका चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगा ही चुका है। अभी तक चीन अमेरिकी नीति पर जवाबी कार्रवाई की धमकी देता रहा है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि आर्थिक और सामरिक दोनों दृष्टि से अमेरिका चीन के मुकाबले कहीं अधिक मजबूत है। तनातनी बढ़ती है तो अधिक नुकसान चीन का ही होगा।
इन सब परिस्थितियों के लिए जितने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिम्मेदार हैं उतने ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी जिम्मेदार हैं। सबसे पहले जिनपिंग ने ही यह कहना आरंभ किया था कि विश्व व्यवस्था एक ध्रुवीय नहीं रहनी चाहिए। वह अमेरिका पर काफी निर्भर है और उसे बहुध्रुवीय बनाने की कोशिश होनी चाहिए। इस सिलसिले में डॉलर के विकल्प पर भी बात की जानी शुरू हुई। जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि चीन की वास्तविक दिलचस्पी विश्व व्यवस्था को बहुध्रुवीय बनाने में उतनी नहीं है जितनी अमेरिका से बराबरी करने में है। पिछले दिनों चीन द्वारा जो कदम उठाए गए हैं उससे उसकी छवि अमेरिका से बहुत बेहतर नहीं दिखती। उसकी वन बेल्ट-वन रोड योजना को भारत को नव-उपनिवेशवादी बताते हुए उसमें शामिल होने से इनकार करना पड़ा। अब यह उजागर होने लगा है कि चीनी अपने राष्ट्रीय हितों को दूसरे देशों के राष्ट्रीय हितों से आगे रखकर चलते हैं और अपनी इस योजना के द्वारा वे दूसरे देशों को कर्ज के जाल में फंसाते चले जा रहे हैं। श्रीलंका और मलेशिया के बाद अब पाकिस्तान में भी यह सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि चीन की योजनाएं उसे मुश्किल में डाल सकती है। इस सबके बाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह बहस तो बंद हो गई है कि विश्व व्यवस्था एकध्रुवीय हो या बहुध्रुवीय। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अकेले चीन को नहीं बल्कि पूरे स्थापित शक्ति संतुलन को ही चुनौती दे डाली है। उन्होंने नाटो की व्यावहारिकता पर सवाल उठाए। जापान को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठाने के लिए कहा। सऊदी अरब को तेल के दाम बढ़ाने पर धमका दिया। यूरोपीय संघ और कनाडा को उनके यहां जाकर खरी-खरी सुना आए। इससे डोनाल्ड ट्रंप की छवि भले खलनायक की बनी हो लेकिन यह सिद्ध हो गया कि अभी की सारी व्यवस्था एकध्रुवीय ही है और कम से कम अभी अमेरिका को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
राष्ट्रपति बनते समय डोनाल्ड ट्रंप ने रूस को एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति की बजाय एक सहयोगी शक्ति बनाने की हिमायत की थी। लेकिन अमेरिका का सत्ता प्रतिष्ठान अब तक साम्यवाद विरोधी धारणाओं पर टिका रहा है। वह आसानी से यह बात पचा नहीं पाया कि रूस को सहयोगी शक्ति बनाकर चीन को घेर लिया जाए। यूक्रेन में हस्तक्षेप को लेकर रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए और अमेरिका-रूस की नई धुरी बनाने की बात हवा हो गई। इस समय रूस और चीन बहुत से मामलों में सहयोगी हैं। इसका कारण रूस की तात्कालिक आर्थिक कठिनाइयां हैं। चीन ने उससे हथियारों की खरीद बढ़ा दी है। इससे रूसी अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर पड़ा है क्योंकि रूसी अर्थव्यवस्था हथियारों के और तेल व गैस के निर्यात पर ही टिकी हुई है। परंपरागत रूप से अमेरिकी और रूसी प्रतिद्वंद्विता विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में अस्थिरता पैदा करती रही है और उससे हथियारों का अंतरराष्ट्रीय बाजार फलता-फूलता रहा है। इस बाजार में 34 प्रतिशत हिस्सेदारी अमेरिका की है और 25 प्रतिशत रूस की। इस तरह अपनी विचारधारा पर आधारित प्रतिद्वंद्विता से दोनों आर्थिक लाभ उठाते रहे हैं। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान इस पहलू को नजरअंदाज नहीं करना चाहता। इसलिए वह रूस को सहयोगी शक्ति के रूप में नहीं देख पाता।
अमेरिकी भारत पर भी लगातार यह दबाव बनाता रहा है कि वह रूस की बजाय उससे हथियार खरीदे। बावजूद इसके कि रूस से भारत का व्यापार घटकर दस अरब डॉलर रह गया है और अमेरिका से हमारा व्यापार बढ़कर सौ अरब डॉलर हो चुका है। चीन को एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति समझने के कारण ही अमेरिका भारत को अधिक महत्व दे रहा है और चाहता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वह एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में उभर आए। भारत अब तक हर तरह की खेमेबंदी से बचने की कोशिश करता रहा है। भारत जब स्वतंत्र हुआ था तो अमेरिका चाहता था कि भारत उसके खेमे में रहे। जब भारत से उसे निराशा मिली और पाकिस्तान ने अमेरिकी खेमे में जाने में दिलचस्पी दिखाई तो अमेरिका ने पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रख दिया। पाकिस्तान पहले ही भारत के साथ शत्रुभाव पाले हुए था। अमेरिकी साथ मिलने पर उसका हौसला और बढ़ गया। चीन जब तक अपनी सीमाओं में था वह भारत के लिए चुनौती नहीं था। लेकिन चीन के नेताओं ने एक तरफ तिब्बत और दूसरी तरफ शिनजियांग पर कब्जा करके भारत के सामने कड़ी चुनौती पैदा कर दी। शुरू में जवाहर लाल नेहरू ने इसे अनदेखा किया लेकिन काराकोरम मार्ग बनाकर चीन ने अपने इरादे साफ कर दिए तो भारत को उसकी चुनौती के प्रति गंभीर होना पड़ा। लेकिन भारत की कोई तैयारी नहीं थी और 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक तरीके से पिटने के बाद अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में भारत की प्रतिष्ठा गिरी। चीन तब तक रूस से भी संबंध बिगाड़ चुका था। विवशता में हमने रूस से मैत्री संधि की। अब स्थिति फिर बदल रही है। चीन संसार का अग्रणी शक्ति होने के उतावलेपन में अमेरिका को अपना शत्रु बनाता जा रहा है। पाकिस्तान अपने आतंकवादी तंत्र के कारण अमेरिका को नाराज कर ही चुका है। अमेरिका चीन की सामरिक शक्ति को संतुलित करने के लिए भारत की यथासंभव सहायता करना चाहता है। भारत अपनी रक्षा चुनौतियों को देखते हुए अमेरिकी सहयोग को नकार नहीं सकता। लेकिन इससे एक अनचाही स्थिति पैदा हो रही है। अमेरिका पर पहले भी अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता था। हमें अपनी रक्षा तैयारियों में रूस से अधिक मदद मिली। अब अमेरिका दबाव डाल रहा है कि भारत रूस से हाथ खींच ले लेकिन ऐसा करना उपादेय नहीं होगा।
परमाणु परीक्षणों के बाद भारत विश्व की अग्रणी शक्तियों में गिना जाने लगा है। भारत की आर्थिक प्रगति दर के कारण भी उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने लगभग सभी शक्तियों से अपने संबंध सुधारने की कोशिश की है और संसार के लगभग सभी क्षेत्रों में अपनी राजनयिक गतिविधियां बढ़ाई हैं। यह सही है कि विश्व की राजनयिक परिस्थितियां जटिल होती जा रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बहुत सी चीजें अनिषिश्टत कर दी हैं लेकिन भारत को धैर्य के साथ सभी के बीच की संतुलनकारी शक्ति बने रहना है। न हम रूस को छोड़ सकते हैं और न आंख मूंदकर अमेरिका के पीछे जा सकते हैं। इस तरह की राजनयिक चुनौतियां आती रहती हैं। भारत कोई बीच का रास्ता निकाल ही लेगा। रूस से हथियार खरीदने का समझौता और अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान से तेल खरीदते रहने की घोषणा भारत के इसी व्यावहारिक राजनय का परिचायक है। अपनी सुरक्षा जरूरतों से कोई समझौता किए बिना भारत को इस मध्य मार्ग पर बने रहना चाहिए। आज की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में जितनी जरूरत भारत को अमेरिका की है उतनी ही अमेरिका को भारत की है। अपनी आक्रामक राजनयिक शैली के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे जिससे अमेरिका बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाए। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें ऐसा कदम उठाने नहीं देगा।
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