बनवारी
मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति यामीन के विरुद्ध निर्णय देकर उनकी सरकार की विदाई का रास्ता साफ कर दिया है। अब राष्ट्रपति यामीन के पास कोई रास्ता नहीं रह गया है और उन्हें 17 नवंबर को अपने कार्यकाल की समाप्ति पर सत्ता छोड़ देनी पड़ेगी। राष्ट्रपति यामीन अंतिम समय तक सत्ता में बने रहने की जुगत भिड़ाते रहे। सितंबर में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में उनकी भारी पराजय हुई थी। चार लाख आबादी वाले मालदीव में 90 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। चुनाव में विपक्ष के सम्मिलित उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को राष्ट्रपति यामीन से 16.6 प्रतिशत वोट अधिक मिले थे। यह कोई मामूली अंतर नहीं था। स्वयं राष्ट्रपति यामीन को सार्वजनिक रूप से अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी। भारत और पश्चिमी शक्तियों के दबाव को शांत करने के लिए उन्होंने घोषित किया था कि वे अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद सत्ता छोड़ देंगे। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डालकर चुनाव में धांधली का आरोप लगाया और सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव रद्द करवाकर फिर चुनाव करवाने का आदेश देने के लिए कहा। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को प्रभावित करने की भरपूर कोशिश की। लेकिन इस बार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश उनकी धमकी में नहीं आए। सर्वोच्च न्यायालय के पांचों जजों ने एकमत होकर अपना निर्णय दिया कि राष्ट्रपति यामीन की ओर से चुनाव में धांधली के सुबूत के तौर पर प्रस्तुत किए गए तीनों गवाह विश्वसनीय नहीं हैं। वे यह सिद्ध नहीं कर पाए कि चुनाव में सचमुच कोई धांधली हुई। इसलिए राष्ट्रपति यामीन की याचिका खारिज कर दी गई और उनकी विदाई का रास्ता प्रशस्त कर दिया गया।
राष्ट्रपति यामीन ने इन चुनावों में अपनी जीत के व्यापक इंतजाम किए थे। उन्होंने राष्ट्रपति पद के सबसे प्रबल उम्मीदवार पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद को भ्रष्टाचार के आरोप लगवाकर चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करवा दिया। वे श्रीलंका में शरण लिए हुए थे। मालदीव की एक और बड़ी पार्टी जम्हूरी पार्टी के कासिम इब्राहिम को भी देश छोड़ देना पड़ा था। राष्ट्रपति यामीन ने इन चुनावों को विश्वसनीय बनाने के लिए केवल इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को छोड़ दिया था। वे मालदीव के पुराने और परिपक्व नेता हैं। लेकिन राष्ट्रपति यामीन उन्हें उतना मजबूत उम्मीदवार नहीं मानते थे। उनको लगता था कि चुनाव मशीनरी उनके नियंत्रण में है। सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों को वे जेल भिजवा चुके थे। सेना और पुलिस बल को वे अपना समर्थक मानते थे। अपने विरोधियों को कमजोर करने के लिए उन्होंने अपने चचेरे वयोवृद्ध भाई पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम को घर में नजरबंद कर रखा था। अब्दुल गयूम ने 30 वर्ष तक मालदीव पर राज किया था। इसलिए राष्ट्रपति यामीन को डर था कि वे सेना, पुलिस और प्रशासन को प्रभावित कर सकते हैं। इतने सब प्रबंध करने के बाद वे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थे। लेकिन जिस तरह पिछले दिनों मलेशिया और श्रीलंका में अप्रत्याशित चुनाव परिणाम आए और तख्ता पलट गया। उसी तरह छोटे से मालदीव में मतदाताआें ने सत्ता पलटने का निर्णय कर दिया। इसकी न भारत को उम्मीद थी न पश्चिमी शक्तियों को। सभी यह मानकर चल रहे थे कि राष्ट्रपति यामीन फिर से चुनाव जीत जाएंगे। पश्चिमी देशों ने चुनाव में अपने पर्यवेक्षक तक भेजने से मना कर दिया था। पर चुनाव का परिणाम अनपेक्षित रहा और यामीन चुनाव हार गए।
राष्ट्रपति यामीन ने अपने पूरे कार्यकाल में चीन की तरफ झुकाव बनाए रखा था। चीन अपने अकूत साधनों के बल पर मालदीव में भारी निवेश करने के लिए तैयार हो गया था। राष्ट्रपति यामीन ने मालदीव के कुछ निर्जन द्वीपों को चीन के हवाले कर दिया था। श्रीलंका में शरण लिए हुए पूर्व राष्ट्रपति मोहम्म्द नाशीद ने आरोप लगाया था कि चीन इन द्वीपों को अपने सामरिक अड्डे की तरह इस्तेमाल करने की तैयारी कर रहा है। भारत भी राष्ट्रपति यामीन के इस व्यवहार से बहुत चिंतित था और उसने अपनी चिंताएं मालदीव सरकार को बता दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के आरंभ में घोषित अपनी मालदीव यात्रा यामीन के इसी व्यवहार के कारण रद्द कर दी थी। राष्ट्रपति यामीन निरंतर भारत को नाराज किए रहे। भारत से मिले हेलीकॉप्टर तक को वे भारत भेजने की कोशिश करते रहे। उन्हें आशा थी कि चीन बड़े पैमाने पर मालदीव में निवेश करेगा और इससे मालदीव के आम लोगों को भी आर्थिक लाभ होगा। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो वे यामीन को विकास पुरुष मानते हुए उनमें भरोसा बनाए रखेंगे और वे राष्ट्रपति का चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन राष्ट्रपति यामीन अपनी राजनीतिक स्थिति निरापद बनाने के लिए जिस तरह विरोधी नेताओं को जेल भिजवाते रहे और पत्रकारों से लगाकर जजों तक को सीखचों के पीछे करते रहे, उसका आम लोगों पर अच्छा असर नहीं पड़ा। विपक्ष के किसी कद्दावर नेता की अनुपस्थिति में उन्होंने इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को जिता दिया। अब राष्ट्रपति यामीन सेना और पुलिस पर भी शायद ही भरोसा कर सकते हों। हवा का रुख देखकर सबने अपनी निष्ठाएं बदल ली हैं।
राष्ट्रपति यामीन ने आरंभ से ही सत्ता में पहुंचने के लिए हर उचित-अनुचित तरीके का इस्तेमाल किया था। पिछली बार वे चुनाव के पहले दौर में अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व राष्ट्रपति नाशीद से पीछे थे। लेकिन गयूम परिवार का सत्ता तंत्र पर जो प्रभाव रहा है, उसका इस्तेमाल करके उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव रद्द करवा दिया था। अगले दौर में अन्य दलों से सांठगाठ के जरिये उन्होंने चुनाव लड़ा और जीत गए। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति नाशीद समेत अनेक विपक्षी सांसदों को जेल भिजवा दिया। विपक्ष की ओर से यह मामला अदालत में ले जाया गया। कई वर्षों की सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी असंवैधानिक घोषित की और विपक्षी नेताओं को छोड़े जाने का निर्देश दिया। जो पुलिसकर्मी सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश का पालन कर रहा था राष्ट्रपति यामीन ने उसे हटा दिया। उसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक अन्य न्यायाधीश पर सत्ता पलटने का षड्यंत्र करने का आरोप लगाया और उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। बचे तीन जज अपने भविष्य को लेकर इतने चिंतित थे कि उन्होंने अपने पुराने निर्णय को पलट दिया। इस बीच पूर्व राष्ट्रपति नाशीद जेल से छूटकर श्रीलंका चले गए और राजनीतिक शरण ले ली। वहां से उन्होंने भारत सरकार से सैनिक हस्तक्षेप की अपील की। लेकिन भारत सरकार स्थिति इतनी बिगाड़ना नहीं चाहती थी। इसलिए उसने संयम बनाए रखा और राष्ट्रपति यामीन का भविष्य अगले चुनाव पर छोड़ दिया गया।
राष्ट्रपति यामीन के सत्ता से हटने की सबसे अधिक चिंता चीन को है। नए होने वाले राष्ट्रपति सोलिह लोकतंत्रीय नेता माने जाते हैं। वे पूर्व राष्ट्रपति नाशीद के भी मित्र रहे हैं। उन्होंने जीतते ही सभी विपक्षी नेताओं को जेल से छोड़े जाने की घोषणा कर दी थी। इस बीच पूर्व राष्ट्रपति नाशीद ने श्रीलंका से वापस मालदीव लौटने की घोषणा की। सोलिह को भारत समर्थक माना जाता है। इसलिए चीन का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। लेकिन राष्ट्रपति यामीन के कार्यकाल में चीन के निवेश आदि को लेकर जो समझौते हुए हैं, उन्हें नई सरकार एकाएक रद्द नहीं कर सकती। पर वह मलेशिया और श्रीलंका के नए सत्ताधारी नेताओं की तरह उन पर पुनर्विचार तो कर ही सकती है। चीन ने यामीन की पराजय पर बहुत सावधानी बरतते हुए टिप्पणी की थी। उसने इतना ही कहा था कि उसे भरोसा है कि नई सरकार पुरानी नीतियों और समझौतों को बनाए रखेगी। तब से अब तक चीन काफी कूटनीतिक रूप से मालदीव की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करता रहा है। अगर राष्ट्रपति यामीन सर्वोच्च न्यायालय को अपने पक्ष में फैसला सुनाने के लिए तैयार कर पाते तो राजनीतिक तूफान उठने पर उन्हें चीन से ही सहायता की उम्मीद होती। लेकिन तब न भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा रह सकता था और न पश्चिमी शक्तियां। जब राष्ट्रपति यामीन किसी तरह अपनी सत्ता बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे तो भारत और पश्चिमी शक्तियों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे यामीन की कोशिशों को लोकतंत्र का गला घोंटने वाली मानेंगे।
मालदीव छोटे-छोटे द्वीपों की श्रृंखला वाला एक छोटा सा देश है। श्रीलंका से अपने कुछ द्वीपों की भौगोलिक निकटता के कारण वह ब्रिटिश काल में श्रीलंका के ब्रिटिश अधिकारियों के प्रशासनिक नियंत्रण में रहा था। तब मालदीव की आबादी बहुत मामूली थी और ब्रिटिश प्रशासक उसे बहुत महत्व नहीं देते थे। मालदीव की अधिकांश आबादी मुस्लिम थी इसलिए स्थानीय लोगों ने वहां सल्तनत बनवा दी। इस तरह जब ब्रिटिश अधिकारी अपना बोरिया बिस्तर बांधकर इस क्षेत्र को छोड़ रहे थे, उन्होंने मालदीव को एक स्वतंत्र देश बनाने का रास्ता प्रशस्त किया। भारत सरकार को उसी समय हस्तक्षेप करके उसे अपने नियंत्रण में ले लेना चाहिए था। लेकिन भारत सरकार तो फ्रांस, पुर्तगाल आदि के नियंत्रण में पड़े क्षेत्रों को भी तुरंत अपने नियंत्रण में करने के लिए तत्पर नहीं हुई। मालदीव अपनी मामूली आबादी और सीमित साधनों के बावजूद एक स्वतंत्र देश बना रहा। धीरे-धीरे उसका एक पर्यटन के क्षेत्र के रूप में विकास हुआ। मालदीव जाने वाले अधिकांश पर्यटक भारतीय ही होते हैं। इस तरह मालदीव की अर्थव्यवस्था बहुत कुछ भारतीयों के भरोसे है। फिर भी मालदीव हिंद महासागर के व्यापारिक मार्ग में पड़ने के कारण सभी बड़ी शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बना रहा है। चीन को उसका सामरिक महत्व आसानी से समझ में आ गया। भारत के इतने निकट चीन को अपने सामरिक अड्डे बनाने का मौका मिले तो वह क्यों संकोच करेगा। भारत को इस पर कोई दो टूक फैसला लेना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
अब स्थिति बदल गई है। मालदीव के नए नेता चीन की सामरिक महत्वाकांक्षाओं से परिचित हैं। लेकिन वे कितनी दूर तक चीन के साधनों का मोह छोड़कर भारत की ओर अपना झुकाव बनाए रखेंगे, कहा नहीं जा सकता। अब तक मालदीव के लगभग सभी राष्ट्रपति देर-सबेर चीन के प्रभाव में आते रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति नाशीद भी जो इस समय चीन के सबसे मुखर आलोचक हैं, अपने राष्ट्रपतित्वकाल में चीन की ओर झुकते दिख रहे थे। सोलिह के लिए यह करना आसान नहीं होगा। नाशीद बहुत महत्वाकांक्षी नेता हैं और अपने अस्थिर स्वभाव के कारण ही 2012 में अपना कार्यकाल समाप्त होने से सालभर पहले उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। इस सब इतिहास को ध्यान में रखते हुए भारत को बदली हुई परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए तेजी से कूटनीतिक पहल करनी होगी। पश्चिमी शक्तियां भी हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती हुई उपस्थिति से उतनी ही चिंतित रही हैं। यही समय है जब भारत मालदीव से अपने संबंधों को परस्पर निर्भरता वाला बनाने के लिए कुछ बड़े कदम उठा सकता है। मालदीव भले ही आर्थिक और सामरिक दृष्टि से छोटा सा देश हो, लेकिन उसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह बड़ी शक्तियों को आकर्षित करता रहेगा। फिलहाल मलेशिया और श्रीलंका में भी चीन को लेकर संदेह बढ़े हैं। केवल पाकिस्तान अभी भी चीन के सहयोगी की भूमिका निभा रहा है। हमें इस बात का ध्यान भी रखना पड़ेगा कि पाकिस्तान ने भी मालदीव को इस्लामी कट्टरता की प्रयोगशाला बनाने की हरसंभव कोशिश की है।
यह अच्छी बात है कि लंबे समय तक मालदीव की राजनीति पर नियंत्रण के बाद गयूम कुटुम्ब कमजोर पड़ रहा है। 2008 में पूर्व राष्ट्रपति नाशीद ने चुनाव लड़ा और उसे जीतकर मौमून अब्दुल गयूम का 30 वर्ष पुराना शासन समाप्त कर दिया था। उसके बाद मौमून अब्दूल गयूम के चचेरे भाई यामीन ने उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया। पार्टी को अपने नियंत्रण में लेकर वे सत्ता तक पहुंच गए। 2012 में उन्होंने राष्ट्रपति नाशीद को इस्तीफा देने के लिए विवश कर दिया था। राष्ट्रपति यामीन का प्रभाव अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाएगा। लेकिन मालदीव के सत्ता प्रतिष्ठान में उनके मुकाबले मौमून अब्दूल गयूम के निष्ठावान लोग अधिक हैं। वे वयोवृद्ध हैं और राजनीति में अब शायद ही उतरें। बहुत संभव है कि सोलिह के राष्ट्रपतित्वकाल में मालदीव में लोकतंत्रीय शक्तियां मजबूत हों और जिस तरह अब तक सभी राष्ट्रपति सत्ता में बने रहने के लिए निरंकुश होते रहे हैं सोलिह वैसा होने की कोशिश न करें। यह देखना भारत का भी काम है कि मालदीव को फिर से राजनीतिक षड्यंत्रों का अड्डा न बनने दिया जाए। चीन और पाकिस्तान का प्रभाव जिन स्थानीय शक्तियों के भरोसे फलता-फूलता रहा है, उन्हें निष्क्रिय करने में समय लग सकता है। लेकिन इन चुनावों ने दिखा दिया है कि मालदीव के आम मतदाताओं का रुख चीन और पाकिस्तान समर्थक नहीं है और वे मालदीव को एक लोकतंत्रीय देश के रूप में पनपते देखना चाहते हैं।