राजीव थपलियाल/अनूप गैरोला
सियासी बवंडरों से उत्तराखंड का पुराना नाता रहा है। नाबालिग उत्तराखंड को 16 वर्षों में आठ मुख्यमंत्रियों का सामना करना पड़ा है। नारायण दत्त तिवारी के अलावा ऐसा कोई मुख्यमंत्री नहीं रहा जिसने अपने कार्यकाल के पांच साल पूरे किए हों। यह सियासी हड़बड़ाहट है या भाजपा-कांग्रेस की गलाकाट राजनीति का नतीजा। इन्हीं वजहों ने राज्य को राष्ट्रपति शासन के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। राज्य में सियासी संकट के साथ ही संवैधानिक संकट भी खड़ा हो गया है। इस संवैधानिक संकट के लिए कौन जिम्मेदार है यह सवाल अब राज्य से भी बड़ा हो गया है।
इस समूचे प्रकरण में दलबदल से लेकर हॉर्स ट्रेडिंग तक के आरोप राजनीतिकों पर भले ही लग रहे हों लेकिन चिंतकों का ध्यान सूबे के विकास के साथ साथ दलबदल कानून की पुनर्समीक्षा की तरफ भी जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के कथित स्टिंग प्रकरण ने भी सरकार बचाने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त जैसे गंभीर मुद्दे की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है। बहरहाल, इस उठापटक के बीच संवैधानिक संकट को लेकर उपजे सवाल पर बहस जारी है। राजनीतिक बवंडर भले ही न्यायपालिका की चौखट पर पहुंच चुका हो और फैसला होना बाकी हो, बावजूद इसके संवैधानिक संकट के पीछे के सवालों का जबाव ढूंढना ही होगा।
सदन में क्या हुआ
उत्तराखंड विधानसभा में 18 मार्च को बजट सत्र के दौरान विपक्ष ने विनियोग विधेयक पर मतदान की मांग की जिसे अस्वीकार करते हुए स्पीकर गोविंद सिंह कुंजवाल ने ध्वनिमत से विधेयक को पारित मान लिया। इसके बाद विपक्षी दल भाजपा ने हंगामा शुरू कर दिया। इसमें कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित 9 कांग्रेसी विधायक भी शामिल हो गए। इस दौरान हरक सिंह रावत और कैबिनेट मिनिस्टर मंत्री प्रसाद नैथानी के बीच हाथापाई भी हुई। सदन में हंगामे के बाद विपक्षी दल भाजपा के 26 विधायकों के साथ 9 कांग्रेसी विधायक एक ही बस में सवार होकर राजभवन पहुंचे और हरीश रावत सरकार के अल्पमत में आने की सूचना देते हुए राज्यपाल से बर्खास्तगी की मांग की।
सवालों के घेरे में विधानसभा अध्यक्ष
कांग्रेस के 9 बागी विधायकों ने स्पीकर पर संवैधानिक दायित्व को न निभाने का आरोप लगाया। इन विधायकों ने विधानसभा सचिव और राज्यपाल को स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव दिया। अगले दिन स्पीकर ने इन बागी विधायकों को दलबदल कानून के तहत नोटिस जारी करते हुए सात दिन में जवाब मांगा। इस कार्रवाई पर विपक्ष ने स्पीकर को सीधे सवालों के घेरे में लिया। भाजपा ने आरोप लगाया कि सदन में विधायकों की मांग को विधानसभा अध्यक्ष ने अनसुना कर असंवैधानिक कार्य किया है। विधानसभा के पूर्व स्पीकर प्रकाश पंत कहते हैं कि कुंजवाल ने निष्पक्ष न होकर सरकार को बचाने का काम किया। पंत ने संविधान का हवाला देते हुए कहा कि विनियोग विधेयक पर यदि एक भी विधायक मत विभाजन की मांग करता है तो स्पीकर उसे ठुकरा नहीं सकते। वहीं कुंजवाल का कहना है कि विपक्ष गलत प्रचारित कर रहा है। दरअसल, बजट के जिस हिस्से पर मतदान की मांग की बात कही जा रही है वह मनी बिल नहीं था। मनी बिल होता तो वह उस पर मतदान कराने के लिए बाध्य होते। उन्होंने कहा यदि भाजपा बजट के किसी प्रस्ताव पर कटौती का प्रस्ताव लाकर मतविभाजन को कहती तो इसे मानना स्पीकर की बाध्यता होती लेकिन विपक्ष से चूक हुई है। अब मामला कोर्ट में है जहां सब साफ हो जाएगा। रावत सरकार में संसदीय कार्य मंत्री रहीं इंदिरा हृदेश ने भी कुंजवाल की बातों का समर्थन करते हुए बागी विधायकों को स्पीकर के नोटिस को जायज ठहराया। उन्होंने विपक्ष के तमाम तर्कों को खारिज करते हुए सदन पर उठ रही उंगलियों पर कहा कि विपक्ष और बागी विधायक अनुभवी लोग हैं। वे सब जानते हैं लेकिन राजनीतिक कारणों से मामला उलझा रहे हैं।
राजभवन की भूमिका
उत्तराखंड संकट पर आम लोगों में राजभवन को लेकर भी चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि राजभवन का झुकाव कांग्रेस की ओर रहने से भी राज्य में सियासी संकट पैदा हुआ। 18 मार्च को सदन में मौजूद 67 विधायकों में से 35 विधायकों का सरकार के खिलाफ परेड होने के बावजूद राज्यपाल केके पॉल का तुरंत एक्शन न लेना भाजपा को अखरा। इसके बाद हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए नौ दिन का वक्त देने पर भी आश्चर्य जताया गया। इसी बीच यह प्रचारित हुआ कि राज्यपाल से नाखुश केंद्र बदलाव के मूड में है। फिर अचानक बहुमत साबित करने की तारीख 28 मार्च से करीब 22 घंटे पहले 27 मार्च को राज्य में केंद्र की ओर से राष्ट्रपति शासन लगाने से राज्यपाल के प्रति आम जनमानस में असमंजस की धारणा बन गई। खुद हरीश रावत ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी अंतिम पे्रस वार्ता में इस बात का उल्लेख किया कि राज्यपाल को दिल्ली से उनकी सरकार के खिलाफ कार्यवाही के लिए धमकाया गया। पूर्व स्पीकर प्रकाश पंत की मानें तो राज्यपाल को सरकार के अल्पमत में आने की जानकारी मिलते ही सरकार को बर्खास्त कर देना चाहिए था। यदि राज्यपाल मुख्यमंत्री को मौका देना भी चाह रहे थे तो 24 से 36 घंटों का समय पर्याप्त था। समय कम होता तो शायद हरीश रावत भी विधायकों की खरीद फरोख्त के आरोप से बच जाते। उन पर स्टिंग का कलंक न लगता।
केंद्र की जल्दबाजी
केंद्र सरकार सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की जल्दी में थी। नैनीताल हाईकोर्ट में चल रही कार्यवाही और कांग्रेस के तर्कों को सुनने के बाद यही माना जाने लगा है। गोविंद सिंह कुंजवाल ने कहा कि उन्होंने हर कदम संवैधानिक नियम कायदों के मुताबिक उठाया। इसका प्रमाण अदालत का फैसला बता देगा। अब भाजपा के सियासी धुरंधर भी मानने लगे हैं कि उनसे जल्दबाजी में कुछ गड़बड़ियां हुई हैं। कांग्रेस नेता इंदिरा हृदेश कहती हैं कि भाजपा राष्ट्रपति शासन के मुद्दे पर घिर चुकी है। राज्य में भी अपनी पार्टी की सरकार बनाने का सपना देख रहा केंद्र अपनी भद्द पिटती देख अब कोर्ट की तारीखों में मामले को उलझा कर वक्त बिताना चाह रहा है। राष्ट्रपति शासन के सवाल पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता भगत सिंह कोश्यारी राज्यपाल की रिपोर्ट को आधार बताते हैं जबकि इंदिरा इस बात को गलत ठहराते हुए कहती हैं कि कहीं भी राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश नहीं की थी।
आम जनमानस की बात करें तो राष्ट्रपति शासन लगने के लिए लोगों में भाजपा के खिलाफ धारणा बनती जा रही है। लोगों की नजर में सत्ता के लालच में भाजपाइयों ने न तो हरीश की सरकार चलने दी और न ही खुद सरकार बना पाएगी। श्रीनगर के सामाजिक कार्यकर्ता प्रबोध लिंगवाल ने कहा कि सरकारें अंतिम वर्ष में ही जनता की सुध लेती थी। खाली पदों की भर्ती सहित अन्य लंबित मांगें अपने चुनावी फायदे के लिए सरकार करती लेकिन भाजपा ने सबके सपने चकनाचूर कर दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उत्तराखंड में भाजपा की सरकार देखने का शौक था तो वह 10-11 महीने बाद चुनाव में इसे पूरा कर लेते।
कोर्ट से थी उम्मीद
उत्तराखंड के सियासी और संवैधानिक संकट को तत्काल उबारने में कोर्ट भी नाकाम रहा। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद 29 मार्च को हाईकोर्ट के जस्टिस यूसी ध्यानी ने जो फैसला दिया उसका ओर-छोर पकड़ने में कानूनी जानकारों के साथ-साथ सियासी धुरंधर भी नाकाम रहे। जस्टिस ध्यानी के फैसले पर गोविंद सिंह कुंजवाल, इंदिरा हृदेश और प्रकाश पंत एकमत दिखे। सभी ने राष्ट्रपति शासन को बगैर हटाए निलंबित सदन में बहुमत साबित करने को असंभव बताया। कुंजवाल कहते हैं कि बागी विधायकों को मतदान करने को कोर्ट ने कह दिया लेकिन जो सदन के सदस्य न हों वे किस अधिकार से सदन में प्रवेश करेंगे यह स्पष्ट किया ही नहीं गया। कुल मिलाकर जनता के साथ-साथ सत्ताधारी पार्टी और बागी विधायकों की उम्मीद कोर्ट पूरी नहीं कर सका।
क्लब नहीं हुए मामले
नैनीताल हाईकोर्ट में उत्तराखंड संकट के संबंध में कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं। कानून के जानकार कहते हैं कि कोर्ट को सभी मामले क्लब कर सुनवाई करनी चाहिए। वरिष्ठ वकील आरएस राघव कहते हैं कि मामले अलग-अलग होने से फैसले भी अलग-अलग आएंगे। इसमें अदालत का समय भी ज्यादा लगेगा। सभी मामले क्लब कर सुनवाई हो तो हर पक्ष को सहूलियत तो होगी ही, साथ ही इस ऐतिहासिक मामले में फैसला भी ऐतिहासिक होगा।
अब भी राह आसान नहीं
उत्तराखंड का संकट सदन से राजभवन और राजभवन से हाईकोर्ट पहुंच चुका है। हाईकोर्ट से फैसला आने के बाद भी संवैधानिक संकट टल जाए इसके आसार कम ही हैं। तय है कि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। यानी अदालती कार्यवाहियों में ही वक्त बीतेगा और सूबे का संकट जस का तस रहेगा।