रंजीता की राह के रोड़े

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कोसी का पानी कांग्रेस के लिए खारा होता जा रहा है. इसलिए इस बार उसे यहां अपनी दाल गलाने में दिक्कत पेश आ रही है. सुपौल की जनता का मिजाज कांग्रेस की सांसद रंजीता रंजन के प्रति 2019 में फिलहाल तो दोस्ताना नहीं दिख रहा है. महागठबंधन का कोर वोट राष्ट्रीय जनता दल से जुड़ा है और उसके कार्यकर्ता ही रंजीता का विरोध कर रहे हैं. पिपरा के राजद विधायक यदुवंश कुमार यादव ने तो रंजीता रंजन के खिलाफ बाकायदा मोर्चा खोल रखा था, लेकिन महागठबंधन के दबाव के चलते फिलहाल वह खामोश हैं. वहीं राजद कार्यकर्ता दिनेश यादव ने सुपौल लोकसभा क्षेत्र से नामांकन दाखिल करके रंजीता रंजन की परेशानी बढ़ा दी है. मतदान की तिथि 23 अप्रैल तक राजद कार्यकर्ताओं को ‘मैनेज’ करने में अगर रंजीता रंजन सफल नहीं हो सकीं, तो उनकी मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं.

भारतीय जनता पार्टी और जदयू के दोबारा साथ आ जाने के बाद बदले जातीय समीकरण भी चुनावी दौड़ में कांग्रेस उम्मीदवार रंजीता रंजन के पिछडऩे के संकेत देते हैं. 2014 के नतीजे बताते हैं कि भाजपा और जदयू के अलग-अलग लडऩे से ही रंजीता रंजन की राह आसान हुई थी. आंकड़ों पर गौर करने से साफ होता है कि भाजपा और जदयू को मिले वोट आपस में मिलने से कांग्रेस काफी पीछे छूट जाती है. 2014 में कांग्रेस की रंजीता रंजन को 3,32,927 वोट मिले थे. दूसरे स्थान पर रहे जदयू उम्मीदवार दिलेश्वर कामेत को 2,73,255 वोट मिले थे और भाजपा उम्मीदवार कामेश्वर चौपाल को 2,49,693 वोट. यानी भाजपा और जदयू के उम्मीदवारों ने कुल 5,22,948 वोट झटके थे. यानी कांग्रेस से 1,90,021 वोट अधिक. अब जबकि एनडीए की ओर से जदयू के दिलेश्वर कामेत उम्मीदवार हैं और उन्हें भाजपा के वोट भी मिलने तय हैं, तो ऐसे में कांग्रेस की राह मुश्किल होती जा रही है.

सुपौल लोकसभा क्षेत्र साल 2009 में अस्तित्व में आया. नए परिसीमन के तहत निर्मली, पिपरा, सुपौल, त्रिवेणी गंज, छातापुर एवं सिंघेश्वर विधानसभा क्षेत्रों को मिलाकर सुपौल लोकसभा क्षेत्र बना था. इससे पहले उक्त सभी विधानसभा क्षेत्र सहरसा और अररिया लोकसभा क्षेत्र के बीच विभाजित थे. 2008 की कोसी त्रासदी के बाद सुपौल की जनता जब 2009 में सांसद चुनने के लिए वोट करने पहुंची, तो जदयू के विश्व मोहन कुमार उसकी पहली पसंद बने. उस चुनाव में कांग्रेस की रंजीता रंजन दूसरे स्थान पर रही थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू से भाजपा के अलग होने का फायदा कांग्रेस उम्मीदवार रंजीता रंजन को मिला और वह मोदी लहर के बावजूद चुनाव जीत गईं.

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