सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था, बंगाल जो आज सोचता है, वह भारत कल सोचता है. गोखले की बातों से किसी को इंकार नहीं हो सकता, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद भी बंगाल कई मामलों में भारत के लिए मिसाल साबित हुआ है, लेकिन राजनीतिक हिंसा में इस राज्य का कोई सानी नहीं है. यहां चाहे कांग्रेस सत्ता में रही हो या सीपीएम या फिर तृणमूल कांग्रेस, हर पार्टी हिंसा को मुद्दा बनाकर सत्ता पर काबिज हुई, लेकिन सत्ता में आने के बाद अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह वह भी नियोजित हिंसा को प्रश्रय देती रही.
श्चिम बंगाल की सियासत में दिलचस्पी रखने वाले हर शख्स को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की वह तस्वीर जरूर याद होगी, जिसमें वह एक अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थीं, उनके सिर पर पट्टी बंधी थी, एक हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था और कुछ लोग तीमारदारी के लिए उनके पास खड़े थे. उनकी यह हालत 16 अगस्त 1990 को कोलकाता में हुई एक रैली के दौरान सीपीएम के काडरों के कथित हमले में हुई थी. तबसे लेकर अब तक हुगली नदी में बहुत पानी बह चुका है. पश्चिम बंगाल की सियासत में कई बदलाव आ चुके हैं. ममता बनर्जी कांग्रेस छोडक़र खुद की पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना चुकी हैं. अपराजेय समझे जाने वाले वाम मोर्चा को अपदस्थ करके वह न केवल पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं, बल्कि उन्होंने वामपंथियों को राज्य की राजनीति के हाशिये पर खड़ा कर दिया. वामपंथ के कमजोर पडऩे के बाद पिछले कुछ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी ममता बनर्जी के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है. सत्ता से बाहर रहते हुए ममता जिस राजनीतिक हिंसा का शिकार हुई थीं, वह उनके कार्यकाल में न सिर्फ जारी है, बल्कि उसमें और तेजी आ गई है. ताजा मिसाल लोकसभा चुनाव में हो रही हिंसा है.
राज्य से लोकसभा चुनावों की जो तस्वीरें आई हैं, वे ममता बनर्जी की 16 अगस्त 1990 वाली तस्वीर से कम विचलित करने वाली नहीं हैं. राज्य में चुनावी हिंसा का जो दौर पहले चरण से शुरू हुआ, वह बाद के चरणों में भी जारी रहा. खबरों के मुताबिक, पहले चरण में अलीपुरद्वार एवं कूच बिहार के कई मतदान केंद्रों पर गड़बड़ी फैलाई गई. लोगों को वोट डालने से रोका गया. कई स्थानों पर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच मारपीट भी हुई. यही नहीं, कूच बिहार से वाम मोर्चा के उम्मीदवार गोविंद राय पर हमला हुआ, उनके वाहन को नुकसान पहुंचाया गया. दूसरे चरण में भी ऐसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति हुई. राज्य के तीन लोकसभा क्षेत्रों दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी एवं रायगढ़ में ईवीएम तोड़ी गईं, विपक्षी उम्मीदवारों के वाहनों पर पत्थर फेंके गए. लेकिन, फिर भी चुनाव आयोग ने कहा कि कुल मिलाकर चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो गए. गौर करने वाली बात यह है कि सभी विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग से गुहार लगाई थी कि मतदान केंद्रों पर केंद्रीय अद्र्धसैनिक बल के जवान तैनात किए जाएं, लेकिन कुछ केंद्रों को छोडक़र बाकी स्थानों पर चुनाव का संचालन राज्य पुलिस के हाथों में रहा. दूसरे चरण तक के चुनाव को शांतिपूर्ण कहा जा सकता है, क्योंकि हिंसा के बावजूद जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ. लेकिन तीसरे चरण में सारी कसर निकल गई. इस चरण में पहले दो चरणों की घटनाओं की पुनरावृत्ति तो हुई ही, साथ में मुर्शिदाबाद के मतदान केंद्र के सामने एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई. कांग्रेस का आरोप है कि इस घटना को तृणमूल कांग्रेस समर्थकों ने अंजाम दिया. मतदान को कवर करने गए मीडिया कर्मियों पर भी कथित रूप से तृणमूल कांग्रेस समर्थकों ने हमला किया. कई स्थानों पर तृणमूल कांग्रेस, भाजपा एवं वाम मोर्चा समर्थकों के बीच हिंसात्मक झड़पें हुईं. रायगंज से सीपीएम उम्मीदवार मो. सलीम के वाहन पर पथराव किया गया. इसके बाद आसनसोल से भाजपा उम्मीदवार बाबुल सुप्रियो की कार के शीशे तोड़े गए. ममता के शासन में अपराधियों-बदमाशों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे मतदान केंद्र पर देशी बम फेंक कर भागने में कामयाब हो जाते हैं.
राज्य में जब वाम मोर्चे की सरकार थी, तो उस पर चुनावों में वैज्ञानिक धांधली (साइंटिफिक रिगिंग) के आरोप लगते थे. दरअसल, उस धांधली में वैज्ञानिक जैसी कोई चीज नहीं होती थी. आम तौर पर विपक्षी दलों के मतदाताओं को मतदान केंद्र जाने से रोक दिया जाता था और यदि मौका मिल जाता, तो कोई भी उनके नाम पर बोगस वोट डाल देता था. अब राज्य में ममता बनर्जी की सरकार है, लेकिन वाम मोर्चे के शासन के दौरान जिस तरह की चुनावी धांधली होती थी, वह अब भी बरकरार है. आज भी विपक्षी दलों के समर्थकों को मतदान केंद्र जाने से रोका जाता है, उनके बोगस वोट डाले जाते हैं, उन्हें धमकाया जाता है. यदि धमकी से काम नहीं चलता, तो उनके खिलाफ हिंसा की जाती है. मौजूदा चुनाव में भी एक भाजपा समर्थक ने आरोप लगाया कि उसने सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ वोट किया, इसलिए उसके घर को आग लगा दी गई. दरअसल, राजनीतिक हिंसा के मामले में पश्चिम बंगाल का शुमार हमेशा से देश के अग्रणी राज्यों में होता रहा है. राज्य में चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या वाम मोर्चे की या फिर तृणमूल कांग्रेस की, किसी ने भी राजनीतिक हिंसा को रोकने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे प्रोत्साहित ही किया. मिसाल के तौर पर, ममता बनर्जी ‘कानून का राज’ लागू करने के नाम पर सत्ता में आई थीं, लेकिन कार्यभार संभाले उन्हें छह महीने भी नहीं बीते थे कि वह अपने घर से पैदल चलकर भवानीपुर थाने गईं और उन्होंने गुंडागर्दी के आरोप में गिरफ्तार दो युवकों को छोडऩे के लिए पुलिस को कथित तौर पर मजबूर किया.
ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद भी राजनीतिक हिंसा कैसे परवान चढ़ती रही, इसका अंदाजा एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है. राज्य में 2011 में 38, 2012 में 22, 2013 में 26 और 2014 में 11 राजनीतिक हत्याएं हुईं. 2011, 2013 और 2014 में राजनीतिक हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल देश में पहले नंबर पर रहा. उक्त आंकड़े साबित करते हैं कि सत्ता परिवर्तन के बाद भी यहां हालात पहले की तरह बने हुए हैं. ऐसा नहीं है कि चुनावी राजनीतिक हिंसा केवल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित है. पहले भी देश के कई राज्यों से बूथों पर कब्जे एवं अन्य चुनावी धांधलियों की खबरें आती थीं और आज भी आती हैं. लेकिन, जिस सुनियोजित ढंग से यहां ऐसे अपराध होते हैं, शायद ही दूसरे राज्यों में होते हों. जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि तृणमूल कांग्रेस ‘कानून का राज’ कायम करने के लिए सत्ता में आई थी, लेकिन सत्ता पाने के बाद उसके कार्यकर्ता भी वही सब कुछ करते नजर आए, जो 1977 से पहले कांग्रेस और उसके बाद सीपीएम एवं वाम मोर्चे के कार्यकर्ता करते थे. खबर यह भी आई कि 2014 में भाजपा के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद तृणमूल कांग्रेस के प्रकोप से बचने के लिए अनेक सीपीएम कार्यकर्ताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया. फिलहाल देश में चुनाव जारी हैं, कई हिस्सों से छोटी-मोटी हिंसक वारदातों की खबरें हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल की जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, वह 1980 और 1990 के दशक में बिहार जैसे राज्यों की बूथ कैप्चरिंग की याद दिलाती है. ईवीएम आने के बाद बिहार और देश के अन्य हिस्सों से बूथ कैप्चरिंग की घटनाएं न के बराबर हो रही हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में ‘वैज्ञानिक धांधली’ का सिलसिला बदस्तूर जारी है. लिहाजा, यदि कल कोई दूसरी पार्टी भी यहां सत्ता में आ जाती है, तब भी हिंसा के मौजूदा कुचक्र पर लगाम लग सकेगी, कहना मुश्किल है
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