चुनावी राजनीति के अखाड़े में तार-तार होती मर्यादा ने इस बार पूरी तरह जता दिया कि उसने राजनेताओं की सहोदर होना छोड़ दिया है. जनसभाओं एवं रैलियों में लोगों को रिझाने के लिए राजनेताओं ने एक-दूसरे पर जिस तरह कीचड़ उछाला, वह देखना बेहद कष्टप्रद था. मोदी द्वारा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर व्यक्तिगत रूप से कसा गया तंज और गहलोत का तुर्की-ब-तुर्की जवाब सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा. मोदी का कहना था, ‘कांग्रेस मान चुकी है कि वह पूरा राजस्थान हार रही है, इसलिए गहलोत अपने बेटे की सीट बचाने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं. इस पर गहलोत पलटवार करते हुए कहने से नहीं चूके, मोदी जी को बेटा नहीं है, इसलिए कैसे समझेंगे कि बेटे के लिए बाप नहीं घूमेगा, तो कौन घूमेगा?
विराट प्रचार माध्यमों के जरिये मोदी के राष्ट्रवाद की हुंकार लोगों की भुजाएं फडक़ाती तो है, लेकिन जमीनी मुद्दों की आंच में अपना असर खोती नजर आती है. इसे महज इत्तेफाक कहा जाएगा कि राष्ट्रवाद का मंत्र फूंकने की शुरुआत मोदी ने राजस्थान से की थी. कांग्रेस की ‘न्याय योजना’ भी लुभाती तो है, लेकिन ऐसे कई भरोसों की परिणति लोगों के बीच ‘नए भरोसे’ को एकाएक जमने नहीं देती. ऐसे दिलफरेब जुमलों को निहत्था होते देख चुके लोग कुछ कहने के बजाय चुप्पी साध लेते हैं. अलबत्ता, उनकी आंखें बहुत कुछ कह देती हैं. भले ही मोदी फैक्टर सिर चढक़र बोलता दिख रहा है, लेकिन १०-१२ सीटें कांग्रेस की झोली में आती साफ नजर आ रही हैं. बावजूद इसके, कांग्रेस के लिए विधानसभा जैसा प्रदर्शन दोहराना जबरदस्त चुनौती है. उधर, बेशक ऊपरी तौर पर भाजपा मजबूत नजर आ रही है, लेकिन उसके लिए 2014 दोहराना महज एक ख्वाब कहा जाएगा.
वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत के मुताबिक, 2014 के मुकाबले इस बार भाजपा को जबरदस्त नुकसान हो रहा है. पंत कहते हैं कि दोनों ही दलों के शिखर नेता सूबे की धरती पर धमक तो पैदा कर रहे हैं, लेकिन वे खामोश वोटर का मुंह खुलवा पाएंगे, यह कहना मुश्किल है. पहले चरण का मतदान वैभव गहलोत, दुष्यंत सिंह एवं मानवेंद्र सिंह को लेकर ‘विरासत की सियासत’ का भविष्य बांच चुका है. पहले चरण में तेरह सीटों के लिए वोट पड़े, लेकिन लोगों की निगाहें दो सीटों जोधपुर एवं झालावाड़-बारां पर ही ज्यादा टिकी रहीं. सबसे पेचीदा जंग जोधपुर में लड़ी गई, जहां से मुख्यमंत्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कर रहे थे. राजनीतिक रणनीतिकारों का कहना है कि बेशक, यह गहलोत की बाजीगरी का सबसे बड़ा इम्तिहान था, उन्होंने जातीय समीकरण साधने और अपनी विनम्र छवि भुनाने का कौशल दिखाया. भाजपाई दिग्गजों की घेराबंदी के बीच गहलोत एक नए धुरंधर के रूप में नजर आए, उन्होंने वैभव के पक्ष में चुनावी किलेबंदी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वैभव के मुकाबले केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत थे. शेखावत को मोदी का सबसे नजदीकी माना जाता है, लेकिन उनकी इस जुबानदराजी ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दीं कि दो-चार साल में राज बदल जाएगा, एक-एक की जन्मपत्री पढ़ चुका हूं. उल्टा न लटका दूं, तो मेरा नाम भी गजेंद्र सिंह नहीं.
भाजपा ने इस सीट पर सबसे ज्यादा जोर-आजमाइश की. पार्टी नेतृत्व ने अपने भरोसे और कूटनीति का भरपूर इस्तेमाल करते हुए नरेंद्र मोदी, अमित शाह एवं राजनाथ सिंह सरीखे बड़े नेताओं के जरिये पूरी ताकत झोंक दी. हालांकि, विश्लेषक कहते हैं कि राजनीतिक ध्रुवों के विपरीत दिशा में पलटने की प्रक्रिया शायद शुरू हो गई है, लेकिन कोई बड़ा उलटफेर देखे बगैर कुछ भी कहना मुश्किल है. वहीं झालावाड़-बारां संसदीय क्षेत्र से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह चौथी बार चुनाव में उतरे थे, लेकिन यहां मोदी का फेरा नहीं लगा. इस सीट पर पूरा दमखम वसुंधरा राजे का था. राजनीतिक विश्लेषकों के जोड़-घटाव को समझें, तो पहले चरण की १३ सीटों में से चार यानी जोधपुर, टोंक-सवाई माधोपुर, बाड़मेर एवं कोटा-बूंदी आदि सीटें कांग्रेस की झोली में जा सकती हैं.
मारवाड़ संभाग की बाड़मेर सीट पर भाजपा के दिग्गज रहे जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह भी पिता की विरासत आगे बढ़ाने के लिए चुनाव में उतरे. कोटा-बूंदी संसदीय क्षेत्र से दो बार सांसद रह चुके भाजपा के ओम बिरला की चुनावी जमीन में उनकी ही पार्टी के क्षत्रपों ने विरोध की सुरंगें बिछा दीं. बिरला अगर भितरघात से बच निकले होंगे, तो भी उनके लिए अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के राम नारायण मीणा की बिसात से पार पाना मुश्किल है. अगर मीणा चुनाव जीतते हैं, तो उसका श्रेय राज्य सरकार में मंत्री शांति धारीवाल को जाएगा. धारीवाल जिला प्रमुख रह चुके हैं और सांसद भी. इसलिए ग्रामीण इलाकों के चप्पे-चप्पे में उनकी पकड़ काफी मायने रखती है.
राजस्थान के रण में इस बार भाजपा के तारणहार अकेले मोदी हैं और मुद्दा भी वह खुद हैं. लोगों को उनका संदेश इस बात की तस्दीक करता है, याद रखिए, आपका वोट सीधा मुझे मिलेगा. इसलिए कांग्रेस यह बात स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं करती कि चुनावी रण में उसके हर महाबली के सामने मोदी खड़े हैं. इस बार भाजपा ने जनादेश की नई कहानी गढ़ी. यानी भाजपा का चेहरा भी मोदी हैं और एजेंडा भी. कांग्रेस पर मोदी फैक्टर के बरअक्स ‘2018’ दोहराने का दबाव है. स्थानीय मुद्दों के बजाय मोदी फैक्टर क्यों इतना हावी है, के जवाब में टिप्पणीकार कहते हैं कि चुनाव देश का है, लिहाजा मोदी फैक्टर हावी होना स्वाभाविक है. दूसरे चरण में जयपुर ग्रामीण, नागौर, दौसा, भरतपुर, धौलपुर, बीकानेर, अलवर, श्री गंगानगर, झुंझनु, सीकर एवं चूरू आदि संसदीय सीटों के लिए मतदान हुआ.
सबसे बड़ा घमासान नागौर सीट पर मचा. यह राज्य की इकलौती सीट है, जो भाजपा ने 30 सालों बाद कुछ समय पहले अस्तित्व में आई राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के लिए छोड़ी. यहां रालोपा के हनुमान बेनीवाल एवं कांग्रेस की ज्योति मिर्धा आमने-सामने रहे. गौरतलब है कि २०१८ के विधानसभा चुनाव में इस संसदीय क्षेत्र की आठ सीटों में से छह पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. जातीय समीकरणों का मिजाज परखें, तो दूसरे चरण की सभी १२ सीटें जातियों के मजबूत किलों से घिरी हुई हैं. लिहाजा, अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि बीकानेर, श्री गंगानगर, भरतपुर एवं करोली-धौलपुर में जातीय समीकरण परखते हुए लगाया गया दांव ही कामयाब रहेगा. दौसा संसदीय सीट तो ‘जातीय प्रयोगशाला’ मानी जाती है, यहां कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने महिला उम्मीदवार मैदान में उतारे. श्री गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, नागौर, चूरू, भरतपुर एवं दौसा में दलित कुल आबादी के २०वें हिस्से पर काबिज हैं. जयपुर ग्रामीण सीट की फिजां भी कम दिलचस्प न थी. यहां दो ओलंपियंस यानी भाजपा के राज्यवद्र्धन सिंह और कांग्रेस की कृष्णा पूनिया के बीच मुकाबला हुआ. राज्यवद्र्धन की छवि अच्छी है, लेकिन दमदार खिलाड़ी अखाड़े में उतार कर कांग्रेस ने मुकाबला रोचक बना दिया.