अजय विद्युत।
पढ़ने के शौकीन हिंदी भाषियों के लिए, जो आज चालीस के फेटे में होंगे, एक जमाने में ‘हस्तक्षेप’ पढ़ना जरूरत भी था और बहसों, चर्चाओं में भाग लेने के लिए स्टेटस सिंबल भी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं से लेकर लेखकों-अधिकारियों-प्रोफेसरों तक उसके साधारण पाठक ही नहीं थे, बहुत तो लंबे समय तक संग्रह कर रखते भी थे। आज की पीढ़ी को यह अजीब सा लगेगा कि जिस ‘राष्ट्रीय सहारा’ अखबार को छह दिन प्रबुद्धों का एक बड़ा वर्ग कोई भाव नहीं देता था, वे भी शनिवार को उसे मात्र उसके चार पन्ने के परिशिष्ट के लिए खरीदता था। पिछले दस बारह सालों में वह बात नहीं रही। अब तो शायद तमाम लोगों को पता भी न हो कि बीते पंद्रह अगस्त को उसने रजत जयंती मनाई है। पर इसे आकार किसने दिया इसे लेकर एक विवाद भी छिड़ गया है। हस्तक्षेप के रजत जयंती अंक की भूमिका में मुख्य आलेख के लेखक विभांशु दिव्याल को इस परिशिष्ट का वास्तुकार बताया गया है। दिव्याल ने भी इसकी एक तरह से पुष्टि की है और लेख में कहा है, ‘जब सहाराश्री ने मूल अखबार राष्ट्रीय सहारा के साथ ही चार पृष्ठों के एक फीचरत्तेर परिशिष्ट का विचार सामने रखा तो मुझे लगा जैसे उन्होंने यह विचार मेरे लिए ही रखा है। ये चार पृष्ठ कैसे विषय आधारित बनाए जा सकते हैं; इसकी रूपरेखा मैंने उनके सामने रखी।’ फिर वे लिखते हैं, ‘ सांचा और असली भारत का अनुभव मेरे साथ खड़ा था, जो बता रहा था कि पाठक को निष्पक्ष बहुलतावादी विचार प्रवाह चाहिए अगर कोई इसे उसके सामने ईमानदारी से रख सके तो…!’ ‘सांचा’ और ‘असली भारत’ से वे पूर्व में जुड़े रहे थे।
लेकिन असल में प्रारूप किसने बनाया इसे लेकर विवाद तब हो गया जब राष्ट्रीय सहारा में ही शुरू से जुड़े रहे पत्रकार संजय कुमार श्रीवास्तव ने इसे सोशल मीडिया पर सत्य से परे बताया। उनका कहना है, ‘इस अवधारणा में न तो कहीं सांचा था न असली भारत। …मैंने भी कोई तीर नहीं मारा था। मुझे तो बस सेमिनार पढ़ कर लगा कि एक विषय पर गहन काम होना चाहिये, पर ऐसा भी नहीं जैसा सांचा है। तभी अमेरिकन कांग्रेस क्वार्टरली जर्नल देखा तो लगा इस प्रारूप को ढाला जा सकता है। कांग्रेस क्वार्टरली जर्नल की अवधारणा को भारतीय करण कर एक साप्ताहिक परिशिष्ट की रूपरेखा बना ली। बहुत सरल थी परिकल्पना, मुद्दा, पृष्ठभूमि, विषय विस्तार, भविष्य, जनमत, संबंधित व्यक्तियों के साक्षात्कार, नफा-नुकसान,संदर्भ, जैसे कम से कम आठ दस हिस्सों में बांट कर संपूर्ण एक विषय पर समग्र सार्थक प्रस्तुति। रूपरेखा सुब्रत राय जी को सौंप दी। कौन निकालेगा? मेरे पास दूसरी भी जिम्मेदारियां थीं। इस पर उन्होंने कई प्रयोग किये, प्रसिद्ध साहित्यकार अरुण प्रकाश से ले कर अजीज बर्नी तक…. तब तक अवधारणा क्षरित होते होते 30 से 35 फीसदी तक ही रह गयी थी। अंतत: दिव्याल जी के पास जिम्मेदारी आयी।’
राष्ट्रीय सहारा के पूर्व संपादक निशीथ जोशी ने बताया, ‘संजय का कहना काफी हद तक सही हो सकता है कि उन्होंने रूपरेखा बनाकर सुब्रत राय को सौंपी। दरअसल हस्तक्षेप नाम नई दुनिया से सहारा आए वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी का दिया हुआ है और हस्तक्षेप का पहला अंक जोशी जी ने ही प्लान भी कराया था। दिव्याल जी उस समय सामाचार पत्र से अलग सोशल रिसर्च विंग में बैठते थे। एक अलग टीम के साथ। जब उनको हस्तक्षेप की जिम्मेदारी बाद में सौंपी गई तो उन्होंने (सुब्रत राय याने उस जमाने के बड़े साहब) हमसे विचार विमर्श भी किया था। अचानक वह (दिव्याल जी) इसके जनक/वास्तुकार कैसे बन गए यह तो वही जानें। इतनी बड़ी बेईमानी, झूठ और श्रेय लेने का काम इस उम्र के व्यक्ति के लिए कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता।’