पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र
आठवें दिन माता महागौरी का स्तुति वंदन होता है। यही देवी शताक्षी हैं, शाकुंभरी हैं, त्रिनेत्री हैं, दुर्गा हैं, मंशा हैं और चंडी हैं। मां दुर्गा के आठवें स्वरूप माता महागौरी का वर्ण गौर है। इनके वर्ण की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से की गई है। इनके वस्त्र और आभूषण सफेद हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। बैल अर्थात वृषभ इनका वाहन है। चार भुजाओं वाली हैं।
इनके दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशूल सुशोभित हो रहा है। ऊपर वाले हाथ में डमरू है तो नीचे वाला बायां हाथ वरमुद्रा में है। इन्हें देखकर परम शांति मिलती है। पार्वती के रूप में इन्होंने भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए बड़ा कठोर तप किया था। गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है-
जन्मकोटि लगि रगर हमारी। बरउं संभु न त रहउं कुंआरी।।
तप की कठोरता के कारण इनका शरीर काला पड़ गया था लेकिन भगवान शिव ने जब इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इनके शरीर पर गंगाजल डाला तो पुन: इनका शरीर गौर वर्ण का हो गया। जिसके फलस्वरूप इनका नाम महागौरी पड़ गया। नवरात्र के आठवें दिन इनकी पूजा करने से भक्तों के शरीर में उत्पन्न कालिमा धुल जाती है। पुराने पाप नष्ट हो जाते हैं। भविष्य सुखमय बन जाता है। प्रसाद स्वरूप मिले अक्षय पुण्यों से भक्त प्रसन्न हो उठता है। इसलिए भक्तों को सदैव इनके चरणों का ध्यान रखकर इनका पूजन करना चाहिए। माता महागौरी की पूजा से भक्तों के मन में सद्विचारों का जन्म होता है।
अष्टमी और नवमी के दिन विधिवत कन्या पूजन भी किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि मां इन कन्याओं के माध्यम से ही अपना पूजन स्वीकार करती हैं। इन कन्याओं के साथ एक लंगूरा अर्थात लड़के को भी भोजन कराना अनिवार्य है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। साथ ही कन्याओं को घर से विदा करते हुए उनसे आशीर्वाद भी अवश्य लेना चाहिए।
कन्याओं को चने, हलवा, पूरी और फल के साथ चुन्नी और चूड़ी देनी चाहिए। साथ ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा भी कन्याओं को प्रसन्नतापूर्वक देनी चाहिए। जितनी कम उम्र की कन्या होंगी उतना ही अच्छा फल प्राप्त होगा। दस वर्ष से अधिक की कन्या नहीं होनी चाहिए।