सत्यदेव त्रिपाठी।
हिन्दी के एक खांटी गंवई-किसान रचनाकार विवेकी राय 22 नवम्बर की सुबह हमारे बीच से विदा हो गये…
ग्राम जीवन के लेखक तो बहुत हुए, पर विवेकी राय का नाम आते ही एक खांटी गंवई लेखक की जो छवि उभरती है, वैसी छवि और किसी की नहीं बनती…
अजीब है कि आजीवन गांव (लमही) में रहे प्रेमचन्दजी भी गंवई न कहे गये, जबकि विवेकी राय जब प्राध्यापकी करने अपना गांव (सोनवनी) छोड़कर जिला-शहर गाजीपुर गये, तो वहीं रहने लगे, फिर भी खांटी गंवई लगते रहे…।
प्रेमचन्द गांव में रहे, पर कभी किसानी की नहीं, फिर भी किसान का जैसा चित्रण किया, वैसा कोई न कर सका। और जीवन की शुरुआत में ही कुछ वर्ष किसानी करने वाले विवेकी राय पूरे लेखकीय वजूद में किसान लेखक भी लगते हैं। तो ऐसे विवेकी राय के जाने के बाद अब ख्याल आ रहा है कि जिस तरह जीवन पर शहर व शहरीपन हावी हो रहा है, पता नहीं अब इस जैसी छवि किसी रचनाकार की बने, न बने… और सारे के सारे रचनाकार जिस तरह जरा-सा अवसर पाते ही शहर में बस ही नहीं जा रहे, बल्कि देखते ही देखते शहरी हुए भी जा रहे हैं, इसकी सम्भावना भी कम ही है…। अत: विवेकी राय शायद आखिरी गंवई-किसान रचनाकार भी रह जाएं…
शायद मुझे ऐसा इसलिए लग रहा कि सबसे पहले मुझे उनकी जो रचना (आलोचना नहीं) मिली पढ़Þने के लिए, वह थी ‘गंवई गन्ध गुलाब’, जो उन्हें भी इतनी प्रिय लगी कि उसी के नाम पर उन्होंने अपने घर का नाम यही रख दिया। -लोकप्रियता भी पहले सर्वाधिक इसी को मिली और बाद में भी ‘सोनामाटी’ उपन्यास ही इसके समकक्ष आ सका। उक्त किताब भी मुझे ग्राम जीवन के जाने-माने कथाकार शिवप्रसाद सिंह के यहां से मिली थी। विवेकी राय उम्र में उनसे बडे थे, पर जिस विनम्र निष्ठा से उन पर और अपने से कम उम्र वाले अन्य लेखकों पर उन्होंने काम किया और सबसे उनका मिलना-जुलना था कि सचाई न जानने वाला उनको सबसे जूनियर ही समझेगा, जैसा कि मैं समझता रहा।
उन दिनों मैं डॉ. शिवप्रसाद सिंह के कथा साहित्य पर पीएच.डी. का अपना शोध-कार्य कर रहा था और ‘लोकभारती’ से प्रकाशित विवेकी राय के शोध-प्रबन्ध ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा साहित्य में ग्राम जीवन’ का सत्यनारायण की व्रत-कथा की तरह पारायण कर चुका था- था ही वह मेरे विषय के इतने काम का और इतना अच्छा। तब तक मैं विवेकी राय को बिल्कुल नहीं जानता था, लेकिन पुस्तक की उपयोगिता व प्रियता से उत्फुल्ल होकर इसका यशोगान शिवप्रसादजी से ‘बार अनेक भांति बहु बरनी’ की तरह कर रहा था और उन्होंने ‘गंवई गंध गुलाब’ पकड़ा दी थी। तब कल्पना भी न थी कि ऐसा पक्का शोधक शख़्स निबन्ध… आदि भी लिखता होगा। लेकिन जब पढ़ा, तो रचनाकर विवेकी राय की वह पहली गन्ध ही पहली मुहब्बत जैसी छा गयी मुझ पर…
शायद उसी ने जेहन में गंवई-किसान का विशेषण सिरजा हो…
उस शोध-ग्रंथ का इतिहास भी 2009-10 में मालूम हुआ, जब मैं ‘काशी विद्यापीठ’ में पढ़ाने आया कि वहां से 1970 में पीएच.डी. की डिग्री पाने वाले विवेकी राय पहले शोधार्थी रहे। विभाग आज उनके साथ बडे घनिष्ठ सम्बन्ध की गुहार लगा रहा है, पर मेरे रहते दो सालों में कभी विवेकी राय वहां याद नहीं किये गये…. इसमें मेरा भी कुछ दाय मिला लीजिए, लिहाजा गाजीपुर से इतने नजदीक बनारस आकर भी उनसे मिलना न हो पाया। और इस दुर्भाग्य को क्या कहंू कि 23 नवम्बर को उनका शव बनारस के मेरे घर के ठीक पीछे केंद्रीय विद्यालय में ही रखा गया था, पर मैं गांव से बनारस की यात्रा में था…। और पहुंचने पर भी घुटने का दर्द लेकर आने के चलते तमाम गलियों-सीढ़ियों वाले मणिकर्णिका घाट पर अंतिम विदा तक के लिए न जा सका, जहां सशस्त्र जवानों द्वारा ‘गॉर्ड आॅफ आॅनर’ की सलामी के साथ उनके पार्थिव शरीर को काशीनरेश डॉ. विभूतिनारायण वाले स्थल पर ही रखा गया।
लेकिन मुम्बई-निवास के दौरान 1987-88 में ही विवेकी राय के साथ मेरी खतो-किताबत शुरू हो गयी थी, जिन दिनों वे जनसत्ता में ‘अड़बड़ भैया’ नाम से ‘भोजपुरी की चिट्ठी’ लिखा करते थे तथा मैं प्राय: नियमित रूप से आलेख, रंग व पुस्तक-समीक्षाएं तथा फीचर्स लिखा करता था। उसी में चार किस्तों में लिखे फीचर ‘क्यों गैर बने हैं मुम्बई में हिन्दीभाषी’ को पढ़कर उन्होंने दफ्तर से पता लेकर मुझे पत्र लिखा था और अपने स्तंभ की एक चिट्ठी मुझ पर लिखी थी, जिसका एक वाक्य मुझे अब तक याद है ‘का सुहराय के गाले पर तमाचा मरले बाटा भयवा!!’ और मैंने उन्हें बताया था कि सुदूर मुम्बई रहने के कारण आपके ‘चतुरी चमार’ व ‘मनबोध की डायरी’ स्तम्भों को धारावाहिक न पढ़Þ पाने (बाद में पुस्तकाकार पढ़ सके) के हमारे दुर्भाग्य को ‘भोजपुरी की चिट्ठी’ ने किंचित सौभाग्य में बदल दिया है।
उन चिट्ठियों में भी विवेकी राय की खांटी गंवई-किसानी गन्ध मह-मह करती थी।
लेकिन इस गन्ध को पाने व जन-जन तक फैलाने के लिए विवेकी राय को उसी खांटी गंवई किसान की तरह अपने गांव की करइल माटी से जूझना पड़ा था। उनका पूरा जीवन इसी जूझ व त्याग-तपस्या का फल है। त्याग आज की सहज महत्त्वाकांक्षा का, वरना तीन-तीन राष्ट्रपतियों (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. शंकर दयाल शर्मा और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम) के हाथों सम्मानित होने वाले हिन्दी के इकलौते रचनाकार के रूप में वे जिस मुकाम पर पहुंच सके थे, उसके पुण्य-प्रताप के बल पर गाजीपुर जैसी छोटी जगह के बदले किसी भी बड़ी जगह जाकर ज्यादा सुख-सुविधा-सम्पन्नता व नाम-गाम हासिल कर सकते थे। लेकिन उन्होंने बांह थामी अपने गांव की और संकल्प लिया उसके दुख-सुखों को उजागर करने का तथा उसी छोटी जगह को बड़ी जगह बनाने का और सचमुच ही गाजीपुर जाने वाले तमाम आमो-खास के कदम ‘विवेकी राय पथ’ की तरफ मुड़े बिना न रह सके।
और जूझ तो बहुआयामी रही उनकी जीवन में और इसीलिए साहित्य-लेखन में भी। 19 नवम्बर, 1924 को पैदा होने के कुछ महीने पहले ही पिता शिवपाल राय स्वर्गवासी हो गये और शिशु विवेकी राय को जन्म लेने के लिए ननिहाल (जिला बलिया स्थित गांव भरौली) जाना पड़ा, जहां नाना बचाऊ राय के संरक्षण और मां जविता देवी के कुशल लालन-पालन में शैशव बीता। लेकिन प्राथमिक शिक्षा के लिए बालक विवेकी राय गाजीपुर स्थित अपने पैतृक गांव सोनवनी ही आये। उसके बाद की जूझ की कल्पना कुछ विश्रुत तथ्यों से की जा सकती है।
17 साल की उम्र में 1941 में उर्दू में मिडिल पास करने के बाद उन्हें खेती में और फिर अगले ही साल गांव के प्राइमरी स्कूल में नौकरी पर लग जाना पड़ा। फिर कालांतर में नियमित शिक्षा शुरू की और 1953 में हाईस्कूल पास करते हुए जीवन के 29 साल बीत चुके थे।
इंटर 1958 में, बी.ए. 1961 और एम.ए. 1964 में ही कर पाये और तभी गाजीपुर डिग्री कॉलेज में लगे और जीवन की गाड़ी कुछ लाइन पर आयी लेकिन किशोरावस्था में ही अपने अंचल के सभी पुस्तकालयों को छान चुके थे।
इसी लगन-परिश्रम-अध्यवसाय का ही सुपरिणाम थी- देर आयद, दुरुस्त आयद उक्त शिक्षा और इसी का सुविस्तार हुआ आगे के डॉक्टरेट व प्रभूत लेखन-कार्य में। कोई विधा बची नहीं- 5 काव्य संग्रह, 7 कहानी-संग्रह, 10 ललित व व्यंग्य निबन्ध तथा रिपोर्ताज-संग्रह, 10 उपन्यास, 2 संस्मरण व 12 आलोचनात्मक पुस्तकें, जिनमें कविताओं-कहानियों व निबन्धों के समग्र संकलन भी निकल चुके हैं। और इनके अलावा छह पुस्तकें भोजपुरी में लिखी हुई, जिसमें ‘भोजपुरी साहित्य का इतिहास’ जैसा दस्तावेजी काम भी शामिल है। इनके पठन-पाठन यानी लोकप्रियता का दायरा तय करने वाले तथ्य भी काफी स्पष्ट हैं। रचना के विविध पक्षों पर अब तक अस्सी से ऊपर शोध-कार्य हो चुके हैं, जो आगे भी सैकड़ों की संख्या तक होते रहेंगे। 1980 में दूरदर्शन ने उन पर वृत्तचित्र बनाया और राष्ट्रीय स्तर के दर्जन भर सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजे भी गये।इतने विपुल लेखन में विवेकी राय का एकमात्र उद्देश्य बहुत साफ था- पूर्वांचल के अपने देखे गांवों के माध्यम से भारतीय गांवों की व्यथा-कथा, सभ्यता-संस्कृति, संघर्षांे-सम्भावनाओं को व्यक्त करना। जैसे राम-कथा के माध्यम से अपने युग-जीवन को व्यक्त करने का उद्देश्य तुलसी के सामने स्पष्ट था, तो तत्कालीन हर काव्यरूप, हर छन्द व विधा में फैल गयी राम-कथा, उसी तरह उक्त सभी विधाओं में फैल गया पूर्वांचल का गांव। शायद ही कोई पक्ष बचा हो, जो विवेकी राय के यहां अनुपस्थित रह गया हो- और अपने विवेक की राय के साथ…।