अभिषेक रंजन सिंह।
भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों का टूटना और बिखरना कोई पहली और अंतिम घटना नहीं है। विशेषकर समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़े दलों में बिखराव या आपसी मनमुटाव तो इसकी जन्मजात प्रवृति रही है। डॉ. राममनोहर लोहिया के जमाने से लेकर मुलायम सिंह यादव के युग तक समाजवादी दलों की यही नियति रही है। यह बात अलग है कि समाजवादी दलों में कई बार टूट मूल सिद्धांतों की वजह से हुई है, तो कभी आपसी राजनीतिक स्वार्थ की वजह से। लेकिन जब भी पार्टियां टूटी हैं या आंतरिक कलह की स्थिति बनी है, उसने इतिहास में अपना स्थान भी दर्ज कर लिया है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी में वर्चस्व को लेकर जिस प्रकार जंग छिड़ी ऐसी घटना भारतीय राजनीति में संभवतः दुर्लभ है। मुलायम सिंह यादव जिन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से समाजवादी पार्टी को खड़ा किया आज वह न सिर्फ सियासी हाशिए पर पहुंच गए, बल्कि उनके हाथों से समाजवादी पार्टी की कमान भी निकल गई। राजनीति में सियासी हैसियत कम होने से उनके तमाम समर्थक जो कभी ‘नेताजी’ जी के इशारे पर चलते थे। वे सब आज अखिलेश यादव के साथ हो गए। कुछ ऐसा ही हाल शिवपाल सिंह यादव का हुआ। समाजवादी पार्टी को मजबूत करने में उनके योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता है। बावजूद इसके उन्हें अखिलेश यादव ने कोई तव्वजो नहीं दी। यहां तक कि प्रदेश चुनाव समिति और स्टार चुनाव प्रचारक में भी उनका नाम नहीं है।
उत्तर प्रदेश की जनता मुलायम परिवार में मचे इस खींचतान को लगातार देखती रही। ऐसे में जो सच्चे समाजवादी मतदाता है, उनके लिए अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि वे किसके साथ जाएं। क्योंकि अखिलेश यादव ने जिस तरह कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है, जो पक्के समाजवादी मतदाताओं को रास नहीं आ रहा है। चुनाव आयोग के समक्ष समाजवादी पार्टी के वास्तविक वारिस होने की जीत भले ही अखिलेश यादव ने जीत ली हो, लेकिन मुलायम के साथ जुड़े पक्के लोहियावादी आज भी उनके साथ खड़े हैं। उन्हें यह कत्तई मजूंर नहीं है कि समाजवादी पार्टी उस कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी समझौता करें, जिसका विरोध डॉ. राममनोहर लोहिया आजन्म करते रहे। मुलायम सिंह यादव को भी कांग्रेस के साथ यह गठबंधन पसंद नहीं है। यही वजह है कि उन्होंने कल मीडिया से बातचीत में कहा कि वह समाजवादी पार्टी का चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अखिलेश ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके पार्टी की जीत का मौका खो दिया है। मुलायम सिंह यादव का यह बयान महत्वपूर्ण है और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। साथ ही मुलायम ने अपने समर्थकों को बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने का आह्वान किया। अगर ऐसा होता है तो मुलायम और शिवपाल समर्थकों की भितरघात से अखिलेश और राहुल के मंसूबों पर पानी फिरना तय है। हालांकि, इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि तमाम दावों के बावजूद समाजवादी पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि, एक बार मनभेद होने से उसे पाटना मुश्किल होता है। यही मनभेद जब चुनावों से ठीक पहले सतह पर आ जाता है तो पराजय के लिए किसी विपक्षी पार्टी की जरूरत नहीं पड़ती।