कैराना (उत्तर प्रदेश)- यहां चुनावी मुद्दा है पलायन

संध्या द्विवेदी।

मेरठ के बाद हमारा अगला पड़ाव बना कैराना। करीब छह महीने पहले हिंदू पलायन के मुद्दे की वजह से चर्चा में आए इस इलाके में हमने गाड़ी रोकी मेन चौराहे पर। जैसे ही हमने हल्के अंदाज में पूछा कि कैराना में सब अमन-चैन है, समूह में बैठे आठ-दस लोगों में से एक व्यक्ति ने जोर से कहा- ‘लो जी यो कैराना कब का चंडीगढ़ बन गया, आपको पता भी नहीं। यहां तो अमन-चैन, भाई चारा सब कुछ है। हां दो चार महीने में एकाध मर्डर हो जावें हैं, बाकी तो सब अमन में है। तीन लाला मार दिए गए बाकी सब अमन में है। बेरोजगारी है, बाकी सब अमन है। लड़कियां बिना टोंट सुने घर नहीं पहुंचती बाकी सब अमन में है। मैडम जी आप यहीं बस जाओ, अपनी जमीन और दुकान आधे दामों में बेच देंगे आपको। हमारा तो अब चंडीगढ़ से जी भर लिया, अब आप भी आकर मन भर लो। अपराध और फिरौती में आगे….।’ सुरेंदर सैनी और न जाने क्या क्या बोले जा रहे थे। उनके करीब खड़े सब लोग लगातार हंस रहे थे। बात तो हंसी की ही थी। जहां विकास किसी के लिए मुद्दा न हो वहां विकास की बात करने वाले को लोग पागल ही तो समझेंगे। अपराध जहां पुलिस के लिए भी मुद्दा नहीं बचा, वहां अपराध चुनावी मुद्दा कैसे हो सकता है? साथ में खड़े जब्बार ने कहा, ‘मैडम सुरेंदर भाई थोड़ा गुस्सैल हैं। वह कलियुग में रामराज की उम्मीद कर रहे हैं।’ लतीब, आबिद के लिए भी यह बड़ा मुद्दा नहीं था। मगर सुरेंदर का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा था- ‘जी किसे वोट दें हम, हमारा सांसद फूल वाला है और विधायक साईकिल वाला। दोनों की खूब जमती है। चंडीगढ़ भी मिल के ही बनाया है, दोनों ने।’ जुनैद ने बताया, ‘यहां अपराध खुले आम होते हैं। हाल तो यह है कि एक भी पेट्रोल पंप नहीं है यहां। पांच किलोमीटर जाकर पेट्रोल लाते हैं। हर दुकान में पेट्रोल से भरी बोतलें मिल जाएंगी। जबकि दुकान में पेट्रोल रखना गैरकानूनी है। पुलिस वालों का यहां बस इतना काम है कि हफ्ता लो और चौकी संभालो।’ मैंने पूछा- हिंदुओं के पलायन का मुद्दा क्या सही है? उन्होंने इशारा किया, ‘आप देख लीजिए यहां लाइन से कई दुकानें आज भी दिख जाएंगी जिनमें लिखा है- दुकान बिकाऊ है। आप ही बताइए कोई तरक्की पसंद व्यक्ति यहां क्यों रहना चाहेगा।’ सुरेंदर सैनी एक मंझे हुए व्यंग्यकार की तरह प्रशासन और सरकार पर चोट करते जा रहे थे। उनकी बात किसी को गंभीर नहीं लग रही थी। लेकिन यहां ये मुद्दे गौण हैं। जो इन पर बात करता है उसे लोग पागल करार देते हैं।

चौराहा पार कर हम आगे गए, बिल्कुल चौकी के पास। एक चाय की दुकान पर। चाय वाले ने चाय हाथ में थमाते हुए कहा, ‘देखिए नोटबंदी का मुद्दा बेअसर है यह तो नहीं कह सकते। मगर हां, चुनावी मुद्दा नहीं है। मुकाबला रालोद के अनिल चौहान और सपा के नाहिद हसन के बीच में है। अनिल अगर फूल से लड़ते तो पक्का जीतते। मगर अब नाहिद की तरफ थोड़ा ज्यादा वोट गिरेगा। सांसद हुकुम सिंह जी ने अपनी बेटी मृगांकिका को लाकर नाहिद को फायदा पहुंचाया है। पता नहीं चाचा भतीजे में क्यों ठन गई जो हुकूम सिंह ने अनिल की जगह बेटी को मैदान में उतार दिया। रही पलायन की बात तो हां, यह सच है कि पलायन हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि पलायन की वजह अपराध है। कौन ऐसी जगह रहना चाहेगा जहां आपके बच्चे सुरक्षित न हों।’ उन्होंने कहा, ‘हुकुम सिंह तो लंबे समय यहां से विधायक भी रहे और सांसद भी। यहां मुद्दा लॉ एंड आर्डर है। मगर चुनाव इस मुद्दे पर नहीं बल्कि स्थानीय और दबंग छवि वाले नेता के बीच होगा। भाजपा का काफी वोट रालोद को भी पड़ेगा। जबकि मुस्लिम एकजुट होकर नाहिद को वोट करेगा। भाजपा का वोट बंटने से नुकसान होगा।’

चौराहे से आगे बढ़कर पंजीठ गांव पहुंचे तो वहां हम रविंदर पाल के घर गए। ये लोग तीन चार महीने बाद घर लौटे हैं। रविंदर पाल घर पर नहीं थे लेकिन उनकी पत्नी ने कहा, ‘हम मजदूरी के लिए गए थे। हर साल जाते हैं। किसी ने हमें धमकाया नहीं था। कई परिवार जाते हैं यहां से पानीपत मजदूरी करने।’ रविंदर के बेटे ने बताया, ‘पंजीठ के आसपास ही चार मुसलमान बस्तियां बन गई हैं। ये लोग शामली से दंगे के समय आए थे। कुरावा, उस्मानपुर, बावड़ी से आकर ये लोग यहीं बस गए। ऐसी और भी बस्तियां यहां हैं। मुस्लिमों को यहां ला-लाकर बसाया जा रहा है।’ हम पंजीठ के करीब नई बसी मदीना बस्ती में पहुंच गए। वहां भीड़ हमारे पास आ गई। शादिया, नाहिदा, जमाल, जुबैर, तबस्सुम ने एक एक कर अपना नाम बताया। ये लोग मुजफ्फरनगर दंगों के समय यहां आकर बस गए थे। इस बस्ती के करीब ही गुलजार बस्ती है। ऐसी ही कई बस्तियां और भी थीं। अच्छी बात यह थी कि इन सबका वोटर आईकार्ड बन चुका था लेकिन बुरी बात यह थी कि इनके पास सरकारी सुविधा के लिए कोई बी.पी.एल. कार्ड नहीं था। पूरे कैराना में कई बस्तियां ऐसी बन चुकी हैं। वहां रहने वाली आबादी वोटर में तब्दील हो चुकी है। लेकिन इन्हें आम नागरिक की बुनियादी सुविधाएं देने की पहल किसी ने नहीं की। यह बात तय थी कि कैराना के पलायन का मुद्दा पश्चिम यूपी का चुनावी मुद्दा है।

रायशुमारी के लिए हमें और सफर तय करना था। पहुंच गए बुच्चाखेड़ी गांव। वहां गुर्जर आबादी ज्यादा है। हुक्का गुड़गुड़ाते हुए बनवारी गुर्जर ने कहा, ‘यहां तो कमल ही खिलना चाहिए। वैसे हुकुम सिंह ने अनिल चौहान को टिकट न दिलवाकर खेल बिगाड़ दिया है। पैराशूट प्रत्याशी को लोग पसंद नहीं करते। हुकुम सिंह की बेटी एक तो बाहरी दूसरे राजनीति में नई। फिर भी देखते हैं।’यह वही कैराना है जिसने सुरों के महारथी उस्ताद करीम खां और उस्ताद वाहिद खां को जन्म दिया। उस्तादों का किराना घराना देशभर में मशहूर हुआ। लेकिन आज यहां सुरों की मिठास नहीं बल्कि बंदूकों की आवाज गूंजती है। किराने घराने की वजह से मशहूर हुआ कैराना आज प्रदेश का बेहद बदनाम इलाका है। दबे पांव यहां बार्डर एरिया से ड्रग्स के कारोबारियों ने भी घुसपैठ कर दी है। सलीम ने अपनी साईकिल रोककर फैसला सुनाते हुए कहा कि अखिलेश ही मुख्यमंत्री बनेंगे। जब उनसे बातचीत बढ़ी तो उन्होंने भी ड्रग्स की दस्तक पर हामी भरी और कहा, ‘दारू पुरानी पड़ गई है। पाउडर का नशा जो मजा देता है वह दारू में कहां!’ मुस्तकीम और मुनव्वर दो भाई हैं जिनका अड्डा बस अड्डा है। वे धर्म के नाम पर नहीं बल्कि एक ऐसे नेता को जिताना चाहते हैं, जिसे कैराना की बबार्दी दिखे, सियासत नहीं। मगर वे भी जानते हैं कि खुलकर बोलना उन्हें मुश्किल में डाल देगा। 

शामली

जिससे फौरी फायदा दिखेगा वहीं वोट गिर जावेगा-

अब हमें शामली की तरफ बढ़ना था। पश्चिम उत्तर प्रदेश की सियासत का ताज किसके सिर पर होगा? इस सवाल का जवाब अभी तक के सफर में स्पष्ट नहीं हो पाया था। हां यह जरूर लग रहा था कि मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच है। जाटों की राजनीति का गढ़ रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल कुछ सीटें निकाल पाएगा इसमें संशय है, लेकिन वोट जरूर काटेगा। चौधरी चरण सिंह की मूर्ति लगे चौराहे के करीब ही गुप्ता कालोनी में हमारी मुलाकात हुई राकेश गोयल से। राकेश भाजपा के मीडिया प्रभारी हैं। लेकिन उनकी पहली पहचान बीएसएनएल के फ्रेंचाइजी कारोबारी के रूप में होती है। चुनाव का जिक्र क्या हुआ गोयल साहेब का दर्द बाहर आ गया। उन्होंने नोटबंदी के कारण मंझोले और छोटे व्यापारियों को हुई तकलीफों का खाका हमारे सामने खींच दिया। बताया, ‘अभी तक चार कर्मचारियों को नौकरी से छुट्टी दे चुका हूं। चार और कर्मचारी इस हफ्ते घर भेजे जाएंगे। आठ कर्मचारी बचेंगे। रोज का एक-सवा लाख का कलेक्शन सिमटकर 28-30 हजार तक रह गया। नोटबंदी नहीं यह एक तरह से व्यापारबंदी थी। मेरा मानना है कि नोटबंदी ने हमारी इकोनॉमी को पांच साल पीछे धकेल दिया।’ दुकान के करीब आए दूसरे व्यापारियों ने बताया, ‘भाजपा के पास इन दिनों कोई मुद्दा तो है नहीं। इसलिए प्रचार यह कहकर किया जा रहा है कि अगर आप भाजपा को वोट नहीं देंगे तो मुसलमान जीत जाएगा। बस ऐसा ही खेल चल रहा है।’

मुजफ्फरनगर दंगों का कितना असर इन चुनाव में होगा, उनका जवाब था, ‘मुजफ्फरनगर दंगे असर नहीं करेंगे। अब सबसे बड़ा मुद्दा है, नोटबंदी। कम से कम व्यापारी के लिए तो है ही।’ शामली की सबसे मशहूर कालोनी में हम पहुंचे। यहां मुस्लिमों की आबादी ठीक-ठाक है। सामने बुजुर्ग चचा शमशेर बैठे थे। उन्होंने बात कुछ यूं शुरू की, ‘देखो यो देश तो यूं ही चल्लेगा। सोचने का नहीं कोई सा भी नेता। न पब्लिक सोचने की। जिससे फौरी फायदा पहुंचता दिखेगा वहीं वोट गिर जावेगा।’ आपकी पहली पसंद क्या है, जवाब तुरंत मिला- ‘जी कोण होवेगी? मौलाना मुलायम सिंह ही होंगे और कौन है हमारा।’ जब दंगों में समाजवादी पार्टी की भूमिका को लेकर सवाल पूछा गया तो चचा शमशेर का जवाब था, ‘मारा तो चमकाया भी उन्हीं ने।’

एक नवयुवक शब्बीर ने बताया, ‘मुसलमानों की अनदेखी करते हैं भाजपा नेता। थानाभवन से प्रत्याशी सुरेश राणा की रैली थी। मैं भी वहीं खड़ा था, सबसे हाथ मिलाया उसने मगर हमारी तरफ तिरछी निगाह से देखा।’ शब्बीर ने कहा, ‘शामली विधानसभा सीट का कांग्रेस उम्मीदवार अच्छा नेता है। सबको साथ लेकर चलता है। हिंदू जरूर है। मगर कोई भी उसके पास पहुंच जाए वह सबका साथ देता है।’ दस-पंद्रह लोगों के समूह के बीच यह साफ हो चला था कि बुजुर्ग से लेकर युवा मुस्लिम तक में मुलायम सिंह का क्रेज है।

नईम भी युवा हैं। भाजपा के सबका साथ सबका विकास नारे और भाजपा की कार्यशैली के बीच एक जुड़ाव जरूर देखते हैं। मगर उनका वोट अपने दूसरे भाइयों के साथ ही जाना है। उन्होंने जनधन खातों और गरीबों को मिली गैस सब्सिडी की सराहना जरूर की, ‘यह तो नहीं कहूंगा कि भाजपा की योजनाएं मुस्लिम विरोधी हैं क्योंकि इन योजनाओं का लाभ हर गरीब को मिला।’ उन्होंने सपा सरकार द्वारा बांटे गए ई-रिक्शे की भी खूब तारीफ की। यहां से हम पहुंचे शामली की गन्ना मंडी में जहां ज्यादातर जाट वोटर थे। नोटबंदी से लोग यहां परेशान थे, मगर इस बात के पक्ष में नहीं थे कि इसका वोटिंग पर कोई असर पड़ेगा। गन्ना किसानों की तरफ से केंद्र और राज्य दोनों की उदासीनता से दुखी थे। रालोद के उम्मीदवार के बारे में पूछने पर कुछ ने कहा, ‘नया करने की सोच तो रहे हैं मगर तय तो वोटिंग के एक दिन पहले ही होता है कि किसका बटन दबेगा।’ यहां से हमने सीधे थाना भवन की तरफ रुख किया और मुखिया जी के घर के बाहर एक घेरे में डेरा डाला।
ओमवीर सिंह जी बुजुर्ग थे और तेज तर्रार भी। बात शुरू की तो बोले, ‘एक बात तो साफ है कि हम साफ सुथरी छवि के नेता को खोज रहे हैं। सुरेश राणा के लिए इस बार रण जीतना इतना आसान नहीं होगा। सुधीर पंवार उनके सामने खड़े हैं। लोग उनकी तरफ झुक रहे हैं। पहली बात तो अखिलेश के राज में आखिरी के एक साल में खूब काम हुआ। दूसरी बात सुरेश राणा बयान खूब देवें हैं। लेकिन काम कम ही करे हैं’ बातचीत जारी थी कि तभी सुधीर पंवार की पत्नी संगीता पंवार वोट मांगने आ पहुंचीं। संगीता और सुधीर पंवार दोनों लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वहां खड़े सभी बुजुर्गों से आशीर्वाद लेकर उन्होंने कहा, ‘धर्म की नहीं विकास की राजनीति की जरूरत अब प्रदेश को है।’ वहां खड़े ज्यादातर बुजुर्गों ने प्रोफेसर पंवार की तारीफ की, ‘राणा की धूमिल छवि के सामने प्रोफेसर साहेब तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं।’ संगीता पंवार से पूछा कि आप महिला हैं, महिलाओं के लिए आपके पास क्या योजना है। उनका जवाब था, ‘सुरक्षा और शिक्षा को तरजीह देंगे।’ खाप पंचायतों पर राय पूछने पर उन्होंने उसे सामाजिक ताने-बाने की एक पारंपरिक व्यवस्था कहकर पल्ला झाड़ लिया। यहां बैठे लोगों ने साफ कहा कि गन्ना किसानों का बड़ा मुद्दा है मगर चुनावी नहीं। चुनाव में तो व्यक्तिगत छवि और जाति बिरादरी हावी रहती है। किसान और जाट होने के नाते क्या उन सबकी पसंद रालोद भी बन सकती है, जवाब में लगभग सभी का जवाब था, ‘अभी से क्या कहें! मगर हां, जाट राजनीति को बचाना तो चाहिए।’
शामली के किसान नेता कुलदीप पंवार ने क्षेत्र के बारे में कई बातें बतार्इं। कई मुद्दे भी बताए। किसानों के मुद्दे पर उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘गन्ना किसान मुद्दा है पर चुनावी नहीं।’

मुजफ्फरनगर-

‘सबके अपने नेता हैं, वे उसे ही चुनेंगे’

शामली से मुजफ्फरनगर के रास्ते में हम ‘शुद्ध देशी’ ढाबे में रुके। वहां लोगों में कुछ उन गांवों से थे जो दंगे के दौरान सबसे ज्यादा हिंसाग्रस्त रहे। कुटबा के रिंकू ने बताया, ‘दंगों को हम भूल चुके हैं। और न ही मुस्लिमों को कोई खतरा है। पर वे यहां आना नहीं चाहते। वजह यह नहीं कि वे डरे हुए हैं। वजह यह कि इन गांवों में उनकी कोई खास जमीन नहीं थी। मुआवजे ने एक मौका दिया उन्हें यहां से बाहर निकलने का। दंगे को ऐसे दिखाया गया कि मुसलमान ही पीड़ित हैं। मगर उन जाट लड़कों के भविष्य की कौन सोचेगा जिन पर मुकदमें दर्ज हुए?’

करीब ही शामली के उस्मानपुर गांव के शब्बीर भी बैठे थे उन्होंने कहा, ‘जिन मुसलमानों को मुआवजा मिला वे तो फिर भी उबर पाएंगे। मगर हमसे पूछिए जिन्हें घर निकाला मिला मगर मुआवजा नहीं।’ रिंकू और शब्बीर के बीच बहस बढ़े इससे पहले वहां बैठे दूसरे लोगों ने बात मोड़ते हुए कहा, ‘दंगों में दोनों समुदाय झुलसे। इसका फायदा भाजपा और सपा दोनों को मिला।’ रिंकू से रहा नहीं गया और उसने साफ कहा, ‘अगर सपा राज्य में आई तो फिर दंगे होंगे।’

हम निकल पड़े मुजफ्फरनगर के गांव रोहिणीखुर्द की तरफ। एक घर के बाहर चुनावी चर्चा शुरू ही की थी कि लोग जुटने लगे और अपने अपने मुद्दे कहने लगे। कालेज की समस्या। सुरक्षा की समस्या। गन्ना किसानों की समस्या। बात शुरू विकास से हुई मगर खत्म जाति-बिरादरी पर हुई। करीब सत्तर साल के सोना त्यागी ने मुद्दा विहीन राजनीति को जमकर कोसा मगर खुलकर यह भी कहा कि वोट भाजपा में गिरेगा।

यह गांव त्यागियों का है। नोटबंदी यहां बिल्कुल भी मुद्दा नहीं है। आशीष और अक्षित जैसे नवयुवकों का मानना था कि नोटबंदी से कश्मीर में पत्थरबाजी बंद हो गई है। तो सर्जिकल स्ट्राइक कर पाकिस्तान के हौसले पस्त करना भी उनके लिए एक मुद्दा था। डिग्री कालेज का दूर होना उनके लिए मुद्दा नहीं था। युवा एकजुट फूल खिलाने को बेताब दिखा तो बुजुर्गों के पास शिकायतें थीं। बुजुर्ग अबकी जाट नेता की तरफ भी जाएंगे। सोना त्यागी ने कहा, सारे नहीं तो कुछ तो जरूर जाएंगे।’

मंजूर ने खुले आम मंजूर किया, ‘मुद्दे बहुत हैं। मगर मुस्लिमों की रहनुमा पार्टी समाजवादी ही है।’ अब तक चालीस से पचास लोगों का मजमा लग चुका था। झड़प भी शुरू हो गई थी दोनों समुदाय के बीच कि बलवाई कौन होते हैं? अफसोसजनक यह था कि मुद्दों पर बात नहीं हो रही थी। इस बीच आदेश जी ने थोड़ा कड़क होकर कहा, ‘यहां चार साल नौ महीने मुद्दों पर बात होती है। लेकिन चुनाव प्रचार शुरू होते ही जाति-बिरादरी और धर्म में लोग बंट जाते हैं। जाट तो इस बार थोड़ा खफा हैं, नहीं तो एक मिनट भी नहीं सोचता कि वोट कहां गिराना है!’
इसके बाद हम पहुंचे गांव गिद्दारी। यह गांव मुस्लिम राजपूतों का गांव कहा जाता है। माना जाता है कि यहां के मुस्लिम राजपूतों के वंशज हैं। यहां का ज्यादातर वोट हाथी पर पड़ता है। लोगों ने इस बात को खुलकर माना भी। मो. मूसा और उनके साथियों ने खुलकर कहा, ‘बटन हाथी पर दबेगा।’ काली नदी के प्रदूषण का मुद्दा, मिडिल क्लास के बाद कालेज न होने के मुद्दे का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया। किसान नेता धर्मंेद्र मलिक भी वहां मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘पश्चिम यूपी में आप जितना कोशिश कर लो सबके अपने नेता हैं। वे उसे ही चुनेंगे। यहां चुनाव आने से पहले मुद्दा मर जाता है। हां, किसान नेता होने के नाते आपसे एक बात जरूर कहूंगा कि चुनाव में इस बार गन्ना किसान न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में है और न जनता के मुद्दों में।

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