संध्या द्विवेदी
तिहरे तलाक के मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अब आमने सामने होंगे। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शरई कानूनों में अदालतों की दखलंदाजी के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। शायरा बानो केस में अब बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में बतौर पार्टी कानूनी लड़ाई लड़ेगा। वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई के लिए शायरा बानो की ओर से खड़ा होगा। इसकी तैयारियां शुरू हो गई हैं।
ओपिनियन पोस्ट पत्रिका ने 16-30 अप्रैल, 2016 के अंक में शायरा बानो मामले को लेकर कवर स्टोरी प्रकाशित की है। इसी के बाद यह डेवलपमेंट हुआ है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शरई कानूनों की हिफाजत के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने का कदम उत्तराखंड की शायरा बानो की ओर से सुप्रीम कोर्ट में 23 फरवरी, 2016 को दायर की गई याचिका के खिलाफ उठाया है। इस मामले की सुनवाई मई के दूसरे हफ्ते में होनी है।
शायरा ने मुस्लिमों में प्रचलित तिहरे तलाक, बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली है। ओपिनियन पोस्ट पत्रिका में छपी खबर के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड ने शायरा को न्याय दिलाने की ठान ली है। बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने ओपिनियन पोस्ट को बताया कि हमने तैयारियां शुरू कर दी हैं। अब यह लड़ाई आर पार की होगी। बोर्ड शायरा के पक्ष से सुप्रीम कोर्ट में पार्टी बनेगा। यानी शायरा की लड़ाई अब ऑल इंडिया वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड और ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच की लड़ाई होगी।
शायरा को नहीं बनने दूंगी शाहबानो – शाइस्ता अंबर
ऑल इंडिया मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने साफ कहा कि वह शाहबानो का इतिहास नहीं दोहराने देंगी। शायरा बानो की लड़ाई वह खुद लड़ेंगी। शरिया कानूनों का बेजा इस्तेमाल अब और नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने साफ कहा कि शरीयत में तलाक के लिए तीन महीने का समय दिया गया है। एक बार में बोले गए तीन तलाक शरीयत के खिलाफ है। इस्लाम को कोई और नहीं बल्कि मुल्ला-मौलवी बदनाम कर रहे हैं। शरीयत अगर ठीक से लागू हो तो मुस्लिम औरतों का शोषण करने की हिम्मत किसी मर्द में नहीं होगी। उन्होंने कहा कि शाहबानो की तरह इस बार ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सियासी चाल चलकर अपने पक्ष में फैसला नहीं ले पाएगा।
दरअसल, 16 अप्रैल को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक बैठक कर शरई कानूनों की हिफाजत के लिए लड़ाई लड़ने का ऐलान किया। बोर्ड ने मौलाना सैयद राबे हसनी नदवी की अध्यक्षता में एकमत होकर इस बारे में एक प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव में कहा गया है कि इस मामले में प्रधानमंत्री से भी संपर्क कर कहा जाएगा कि शरई मामलों में दखल देने की कोशिशों पर विराम लगाया जाए। बोर्ड का कहना है कि यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि मुस्लिम औरतों की स्थिति ठीक नहीं है जबकि वास्तविकता इसके एकदम उलट है।
क्या है शायरा का मामला
इलाहाबाद के रहने वाले रिजवान से शायरा की शादी 2002 में हुई थी। शादी के दो-तीन सालों बाद ही रिजवान और उसके घर वाले शायरा को परेशान करने लगे। इस दौरान उसके दो बच्चे भी हो गए। शायरा इस डर से यह सब सहती रही कि कहीं रिजवान उसे तलाक न दे दे। 2015 में रिजवान ने बच्चों की स्कूलों की छुट्टियों के बहाने शायरा को मायके भेज दिया। उसके बाद उसने शरई कानून का हवाला देते हुए डाक से तलाकनामा भेज दिया। शायरा ने डाक के जरिये हुए इस तलाक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है।
लखनऊ के मशहूर मदरसे नदवातुल उलूम से निकली बोर्ड की इस आवाज में हैदराबाद के जाने माने मुस्लिम नेता और ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमिन (एआईएमआईएम) पार्टी के प्रमुख असददुद्दीन ओवैसी भी शामिल थे। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस सक्रियता के पीछे सुप्रीम कोर्ट की दो टिप्पणियां हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा की एक मुस्लिम महिला के मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव पर गंभीर टिप्पणी की थी। यह मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि उत्तराखंड की शायरा बानो की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी पर भी कोर्ट ने कड़ा रुख दिखाया। कोर्ट ने साफ कहा कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो के पक्ष में 1985 में दिए गए फैसले के खिलाफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की पहल पर ही तब देशव्यापी आंदोलन और जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई थी। तब राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स) एक्ट, 1986 लागू किया था।
क्या सरकार लेगी सबक
शायरा के केस से एक बार फिर हालात इतिहास पलटने को मजबूर होते दिख रहे हैं। केंद्र में भाजपा की सरकार है और अल्पसंख्यकों में अपने मजहबी अधिकारों की रक्षा की लड़ाई फिर शुरू हो गई है। देखना यह है कि शाहबानो केस की तरह सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाएगी या मुस्लिम महिलाओं को हक दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई में मददगार होगी। भाजपा को मुस्लिम विरोधी के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा है। ऐसे में सवाल उठना जायज है कि क्या केंद्र की भाजपा सरकार मुस्लिम औरतों के हक के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से टकराएगी?
एशियाई समस्या
दरअसल, एक झटके में तीन बार ‘तलाक, तलाक, तलाक’ बोल कर बीवी से छुटकारा पाने का चलन दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया में ही है। सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में ही इस तलाक को मजहबी वैधता प्राप्त है। मुसलमानों में चार मसलक (पंथ) हैं। शाफई मलेशिया अफ्रीका में प्रचलित मसलक है। हम्बली तुर्की और यूरोप में, मालिकी यूरोप और अरब में पाए जाते हैं। जबकि हनफी इराक, ईरान और मध्य तथा दक्षिण एशिया में सबसे अधिक पाए जाते हैं। तीन तलाक हनफी मुसलमानों में ही प्रचलित है। यही मसलक अरब से लेकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक फैला हुआ है।
विश्वविख्यात दारुल उलूम देवबंद, लखनऊ के नदवा और फिरंगी महल जैसे मदरसे हनफी मसलक के स्कूल ऑफ थॉट कहे जाते हैं। इनमें 1693 में स्थापित लखनऊ का फिरंगी महल सबसे पुराना मदरसा है जिसे औरंगजेब ने शुरू करवाया था। इसी का बनाया पाठ्यक्रम ‘दर्से निजामी’ देवबंद, नदवा और अन्य मदरसों में लागू है।
हनफी उलेमा यह तो मानते हैं कि एक झटके में तीन बार बोल कर दिया गया तलाक ठीक नहीं है। इसीलिए उसे ‘तलाके बिद्दत’ (बिद्दत की अवधारणा यह है कि इस्लाम में जो कुछ प्रचलित नहीं है) कहते हैं। लेकिन कोई शौहर तीन बार तलाक बोल दे तो तलाक मान लिया जाता है। तीन महीनों के अंतराल पर दिए जाने वाले तलाक को ‘तलाके अहसन’ कहते हैं।