प्रियदर्शी रंजन ।
नीतीश कुमार के महागठबंधन से अलग होकर एनडीए में वापस आने और राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद वोटों के समीकरण के लिहाज से कयास लगाया जा रहा था कि भाजपा अपनी भभुआ विधानसभा सीट बचाने में कामयाब रहेगी और राजद से जहानाबाद विधानसभा और अररिया लोकसभा सीट छिन जाएगी। उम्मीद के मुताबिक भाजपा भभुआ विधानसभा सीट को बचाने में कामयाब भी रही लेकिन राजद की सीटें झटकने में एनडीए बुरी तरह नाकाम रहा।
उपचुनाव के परिणाम से जाहिर है कि एनडीए में नीतीश कुमार की घर वापसी और लालू के जेल जाने के बाद भी महाठबंधन अपने वोट बैंक पर मजबूत पकड़ बरकरार रखने में कामयाब रहा है। मतदान के ट्रेंड से यह साबित हो रहा है कि नीतीश कुमार भले ही एनडीए के साथ ज्यादा सहज महसूस करते हों और अपना वोट बैंक शिफ्ट कराने में कमोबेश कामयाब भी रहे हैं, लेकिन गठबंधन के उलटफेर के लिहाज से भी महागठबंधन ने इस उपचुनाव में एनडीए से बाजी मार ली है। जीतन राम मांझी का एनडीए से निकलकर लालू के साथ खड़ा होना महादलितों को रास आया है तो अतिपिछड़ों का एनडीए के प्रति उदासीन होना नीतीश कुमार की कमजोर छवि को बयां कर रहा है। अररिया लोकसभा सीट पर महादलितों के वोट महागठबंधन उम्मीदवार की ओर ट्रांसफर होने की वजह से भाजपा प्रत्याशी प्रदीप सिंह को बड़ी हार का सामना करना पड़ा तो जहानाबाद जैसे शहरी विधानसभा क्षेत्र में अतिपिछड़ों की राजद के प्रति दिलचस्पी ने मुकाबले को एकतरफा बना दिया। राजनीतिक जानकार डॉ. रजी अहमद के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में भाजपा का कमजोर पड़ना इस उपचुनाव का सबसे दिलचस्प मामला है। डॉ. रजी के मुताबिक भाजपा को शहरी क्षेत्रों में स्वाभाविक तौर पर मजबूत माना जाता है लेकिन जहानाबाद जैसे शहरी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के पाले में मजबूत उम्मीदवार का अकाल है। पिछले चुनाव में इस सीट पर एनडीए के कोटे से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने अपना उम्मीदवार लड़ाया था। उपचुनाव में इसी सीट पर तब एनडीए के घटक रहे जीतन राम मांझी की हम पार्टी ने अपना उम्मीदवार उतारने के लिए दावा ठोक दिया। रालोसपा और हम के टकराव में भाजपा ने यह सीट अपने खाते में ले तो ली, लेकिन अपना उम्मीदवार ढूंढ पाने में भी नकामयाब रही। लिहाजा भाजपा ने यहां से जदयू को अपना उम्मीदवार लड़ाने को आमंत्रित किया। जदयू ने 2010 के विधानसभा चुनाव में जिताऊ उम्मीदवार साबित होने वाले अभिराम शर्मा को एक बार फिर आजमाइश के लिए मैदान में उतार दिया। जदयू के भाजपा के वोटों के गुणा-भाग के लिहाज से परिणाम आने के पहले एनडीए का पलड़ा भारी माना जा रहा था। जहानाबाद में भले ही जदयू उम्मीदवार की हार हुई है मगर इस हार से सबक भाजपा को मिला है।
जहानाबाद की तर्ज पर ही अररिया लोकसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार प्रदीप सिंह की हार और राजद के सरफराज आलम की जीत भाजपा के लिए बेहद संवेदनशील मसला है। अररिया लोकसभा उपचुनाव में हार से भाजपा को सीमांचल की राजनीति में तगड़ा झटका लगा है। हार ने पार्टी की अंदरूनी कलह को भी उजागर किया है। हालांकि अररिया लोकसभा सीट राजद के कब्जे में थी, लेकिन भाजपा ने जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। राजद को यहां से उखाड़ने की तैयारी भाजपा काफी दिनों से कर रही थी। बिहार में जदयू के साथ सरकार बनाने के साथ यह प्रयास और तेज हो गया था। पार्टी ने इस सीट से 2009 में सांसद रहे प्रदीप सिंह को मैदान में उतारा था। लेकिन सफलता नहीं मिली। इस हार ने अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सीमाचंल के लिए भाजपा को पुर्नविचार करने को विवश किया है।
बिहार में सत्ता में आने के बाद से भाजपा सीमांचल अपनी पैठ बढ़ाने के लिए तमाम हथकंडे आजमा रही है। बिहार सरकार में इस इलाके से दो मंत्री हैं, किशनगंज में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक जिसमें सभी दिग्गजों का शामिल होना व आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का दौरा इस रणनीति का हिस्सा था। आरएसएस लंबे अर्से से इन इलाकों में सघन अभियान चला रही है। चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने प्रदेश के सभी दिग्गजों को प्रचार में उतारा था। हालांकि परिणाम पर प्रत्याशी प्रदीप सिंह का कहना था कि ‘उनके साथ भितरघात हुआ है।’
उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी की मानें तो ‘बिहार की तीनों सीटों पर दिवंगत जनप्रतिनिधियों के परिवार के प्रति मतदाताओं की सहज मानवीय सहानुभूति का गहरा प्रभाव था। अगर किसी नेता का कमाल होता तो फिर भभुआ सीट पर उनकी पार्टी या गठबंधन की जीत नहीं होती। इसलिए इस चुनाव का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए।’ राजनीतिक जानकार सुरेंद्र किशोर भी उप चुनाव के नतीजों से किसी बड़े राजनीतिक उलटफेर की संभावना से इनकार करते हैं। वहीं ‘द हिन्दू’ के स्थानीय संपादक अमरनाथ तिवारी के मुताबिक, ‘बिहार के उपचुनाव से एनडीए को कड़ा सबक मिला है। नीतीश अपनी छवि के मुताबिक वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता खो चुके हैं। समाजवाद की लड़ाई में भी वो पिछड़ रहे हैं। जहानाबाद में लालू के समाजवाद के आगे नीतीश का समाजवाद भारी वोटों से नकार दिया गया।’ तिवारी पिछले उपचुनावों के नतीजों की बारीकियों को समझाते हुए कहते हैं, ‘2009 के उपचुनाव में राजद की भारी जीत और 2010 में जब एनडीए की तीन चौथाई बहुमत से सरकार बनी थी, उस वक्त नीतीश के मुकाबले का कोई फ्रेश चेहरा बिहार में विकल्प नहीं था।राजनीतिक जानकार देवांषु शेखर मिश्रा के मुताबिक, ‘केंद्र और राज्य सरकार के कई कदमों से भी लोगों के अंदर काफी नाराजगी थी।’