उमेश चतुर्वेदी
भारत के पूर्वोत्तर में भाजपा का वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस क्षेत्र के आठ राज्यों में से सात में भाजपा अकेले या सहयोगियों के साथ सत्ता में है। इस बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति ने दो बड़े बदलाव किए हैं। पहला, भारतीय जनता पार्टी मल्टी स्टेट पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी बन गई है। अब वह हिंदी पट्टी की हिंदू पार्टी नहीं रह गई है। इसका दूसरा असर यह हुआ है कि केंद्र सरकार, राष्ट्रीय राजनीति और मीडिया की नजरों में पूर्वोत्तर के राज्य मुख्य धारा में आ गए हैं। मुझे याद नहीं कि इससे पहले कभी पूर्वोत्तर के राज्यों के विधानसभा चुनाव और उसके नतीजों को मीडिया या राष्ट्रीय राजनीतिक हलकों में इतनी तवज्जो मिली हो। अलगाववाद का शिकार रहा पूर्वोत्तर मुख्य धारा में आ गया है। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि देश के प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री इन राज्यों में इतनी बार गए हों। पिछले करीब चार साल में केंद्र सरकार ने नीति बनाकर तय किया कि हर पंद्रह दिन में एक केंद्रीय मंत्री पूर्वोत्तर के किसी न किसी राज्य में जाएगा, वहां रात बिताएगा, लोगों से मिलेगा और अपने विभाग से संबंधित विकास कार्यों की समीक्षा करेगा। पूर्वोत्तर के तीन और राज्यों में भाजपा और सहयोगी दलों की सरकार के बनने के बाद देश के इक्कीस राज्यों में भाजपा की सरकार बन गई है। यह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के संगठन कौशल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता का नतीजा है। अमित शाह ने पिछले चार साल में पार्टी संगठन को बूथ स्तर पर पहुंचा दिया है। पांच साल पहले जिस त्रिपुरा का भाजपा को डेढ़ फीसदी वोट मिले थे वह पिछले साढेÞ तीन साल की शाह और उनके सहयोगियों की मेहनत से पचास फीसदी (सहयोगी दल के साथ) से ज्यादा वोट लेकर आई है। इसमें त्रिपुरा का प्रभार देख रहे संघ से भाजपा में आए सुनील देवधर की भूमिका बहुत अहम है। उन्होंने पार्टी की पैठ बढ़ाने के लिए बांग्ला और स्थानीय आदिवासियों की भाषा सीखी। त्रिपुरा में में पच्चीस साल पुराने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन को उखाड़कर सत्ता में आना सिफर से शिखर की यात्रा है। बिना किसी जनआंदोलन के ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ है।
भाजपा की इस जीत ने विपक्षी खेमे में हलचल मचा दी है। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें कम होने, कांग्रेस की सीटें बढ़ने, राजस्थान की दो लोकसभा व एक विधानसभा सीट और मध्य प्रदेश विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में जाने के बाद से चर्चा चलने लगी थी कि भाजपा का ग्राफ गिर रहा है। यहां तक कहा गया कि हो सकता है कि स्थिति और खराब होने से पहले ही इस साल के आखिर तक मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधानसभा के साथ लोकसभा के चुनाव हो जाएं। मगर पूर्वोत्तर के राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद भाजपा विरोधी खेमे में खलबली है। भाजपा की जीत से घबराए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव के लिए समझौता कर लिया। ममता बनर्जी ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री टी चंद्रशेखर राव को राष्ट्रीय राजनीति में आने और तीसरे मोर्चे की अगुआई का प्रस्ताव दे दिया। प्रस्ताव से उत्साहित राव ने आगे की रणनीति बनाने के लिए अपने सलाहकारों की बैठक बुला ली। अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद रोजमर्रा की राजनीति से अलग हुर्इं सोनिया गांधी एकदम सक्रिय हो गर्इं। उन्हें शायद लगा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए विपक्षी दलों को एक करना संभव नहीं होगा। सोनिया गांधी को पता था कि त्रिपुरा में ममता बनर्जी ने कांग्रेस से तालमेल के लिए राहुल गांधी से बात की थी। पर राहुल गांधी ने कोई रुचि नहीं दिखाई। उन्होंने साथियों की तलाश में बीजू जनता दल के भर्तृहरि मेहताब से संपर्क किया। वो दरअसल नवीन पटनायक का मन टटोलना चाहती थीं।
भाजपा विरोधियों की समस्या यह है कि उनके पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। कई भाजपा विरोधी दलों को राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है। विपक्ष का यह बिखराव भाजपा को और ताकतवर बनाता है। भाजपा को अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के समय की भाजपा समझकर जो मुकाबला करेगा, मुंह की खाएगा। यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा है। यहां अपने राजनीतिक विरोधी के लिए एक इंच जमीन छोड़ना भी गुनाह माना जाता है। यह टीम हर चुनाव ऐसे लड़ती है जैसे वह उनके जीवन का आखिरी चुनाव हो। नतीजा पक्ष में आए या खिलाफ उसके बाद वे आगे बढ़ जाते हैं। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव में हार से पार्टी हतोत्साहित होकर घर नहीं बैठ गई। कांग्रेस और भाजपा का अगला मुकाबला पहले कर्नाटक और फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में होना है। कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता विरोधी रुझान से जूझ रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ेगा।
हताश कांग्रेस
पूर्वोत्तर में करारी शिकस्त से कांग्रेस की हताशा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह अब ऐसे वादे कर रही है जिसे पूरा करना शायद ही संभव हो सके। कांग्रेस के अध्यक्ष ने आंध्र प्रदेश को लेकर जो वादा किया है उसे इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। राहुल गांधी का कहना है कि अगर 2019 में केंद्र में उनकी सरकार बनी तो आंध्र प्रदेश को उनकी सरकार विशेष राज्य का दर्जा देने में देर नहीं लगाएगी। लेकिन क्या यह वैधानिक रूप से संभव है? यह सवाल राहुल गांधी ही नहीं आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री नारा चंद्रबाबू नायडू से भी पूछा जाना चाहिए। 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद अब संभव नहीं रह गया है कि किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया जा सके। राजनीतिक समीक्षक इस वादे को राहुल गांधी की हताशा से जोड़कर देख रहे हैं।
पहले लोकसभा और बाद में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में तरजीह न मिलने से शिवसेना भारतीय जनता पार्टी से नाराज चल रही है। केंद्र और राज्य सरकार में शामिल होने के बावजूद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला करने का कोई मौका नहीं चूकते। इस बीच विशेष राज्य के दर्जे को लेकर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपनी पार्टी के मंत्रियों का केंद्र सरकार से इस्तीफा दिलवा दिया है। बदले में भाजपा के मंत्री भी आंध्र सरकार से अलग हो गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि विशेष राज्य का दर्जा पहाड़ी राज्यों को ही दिया जा सकता है। अभी 11 राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और मणिपुर को ही दिया गया है। अतीत में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे थे। हालांकि वे भी जानते थे कि 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद अब किसी नए राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं रह गया है। यह बात चंद्रबाबू नायडू भी जानते हैं लेकिन वे अपनी मांग पर अडिग हैं।
1998 और 1999 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने हार के चलते पस्त पड़ी कांग्रेस को संजीवनी आंध्र प्रदेश ने ही दी थी। 1999 के आम चुनाव में कांग्रेस को भाजपा से सिर्फ सात सीटें ज्यादा यानी 145 लोकसभा सीटें मिली थीं जिसने कांग्रेस का भाग्य ही बदल कर रख दिया था। उसमें सबसे बड़ा योगदान आंध्र प्रदेश का था जहां तकरीबन पांच साल तक लगातार पदयात्राएं करके तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष वाईएस राजशेखर रेड्डी ने न सिर्फ लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी बढ़त दिलाई थी बल्कि विधानसभा में भारी जीत दर्ज कर सरकार बनाई थी। एक विमान हादसे में उनकी असमय मौत के बाद उनके बेटे जगन रेड्डी ने मुख्यमंत्री पद की चाहत पूरी होते न देख विद्रोह करके वाईएसआर कांग्रेस बना ली। जगन की पार्टी के मौजूदा लोकसभा में आठ सांसद हैं। राहुल गांधी को लगता है कि शायद इस बार भी कांग्रेस का भाग्य बदलने में आंध्र प्रदेश भूमिका निभा सकता है।
दो महीने पहले ही गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को राहुल गांधी की अगुआई में जीत के लिए नाकों चने चबवा दिए थे। इससे माना जाने लगा था कि राहुल गांधी को लोग गंभीरता से लेने लगे हैं। इसके बाद मध्य प्रदेश में दो बार में हुए पांच विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भी कांग्रेस को जीत मिली। इसी दौरान राजस्थान में अलवर और अजमेर लोकसभा सीटों के साथ एक विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी कांग्रेस को जीत मिली। इसलिए कांग्रेस को जीत की खुशी मनाने का मौका मिल गया। यह जीत कांग्रेस के लिए सकारात्मक मानी गई। यह बात और है कि पूर्वोत्तर में कांग्रेस की बुरी गत से कांग्रेस का वह उत्साह ठंडा पड़ता नजर आ रहा है।
अप्रैल-मई में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि कर्नाटक वे निश्चित तौर पर जीतेंगे। चुनावी रणनीति के कुशल रणनीतिकार के तौर पर स्थापित हो चुके अमित शाह ने हवाई दावा नहीं किया है। इसलिए राहुल गांधी की एक और परीक्षा जल्द ही होने वाली है। उनके अध्यक्ष बनने के बाद हुए चुनावों में उपचुनावों को छोड़ दें तो उनका रिकॉर्ड खराब ही रहा है। इसलिए यह देखना होगा कि आखिर राहुल गांधी की क्या रणनीति होगी? इस बीच एक मीडिया हाउस के आयोजन में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के दिए इंटरव्यू से साफ है कि 2019 के आम चुनाव में उन्हें अपनी पार्टी और बेटे की मेहनत से कहीं ज्यादा खुद-ब-खुद इतिहास दोहराए जाने पर भरोसा ज्यादा है। उन्होंने कहा कि 2004 के इंडिया शाइनिंग की तरह अगले आम चुनाव में अच्छे दिन का तिलिस्म टूटेगा। हालांकि मोदी विरोधी विपक्ष से एकजुट होने की अपील करके उन्होंने अपनी अगली रणनीति का भी संकेत दे दिया। हालांकि सोनिया की भावी रणनीति की कामयाबी उनके स्वास्थ्य पर कहीं ज्यादा निर्भर करेगी।
राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए हैं उनमें से दो हिमाचल प्रदेश और मेघालय में बाकायदा कांग्रेस की सरकारें थीं जबकि नगालैंड में कांग्रेस के सहयोग से सरकार चल रही थी। लेकिन इन तीनों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। हिमाचल प्रदेश की हार को छोड़ भी दें क्योंकि वहां हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज रहा है, नगालैंड और मेघालय की शिकस्त पार्टी के भविष्य को लेकर बड़ी चुनौती खड़ी करती है। चूंकि गुजरात में कांग्रेस ने 22 सालों से सत्ता पर काबिज भाजपा को कड़ी चुनौती पेश की थी लिहाजा राष्ट्रीय मीडिया में यह धारणा बनी कि भाजपा राहुल गांधी को गंभीरता से लेने लगी है। लेकिन यह अवधारणा गहरे तक स्थापित हो पाती उससे पहले ही उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में पार्टी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ गई। त्रिपुरा में बेशक 25 साल से वामपंथी शासन था लेकिन वहां प्रमुख विपक्ष कांग्रेस ही रही थी। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को वहां 36.5 फीसदी वोट मिले थे मगर इस बार वह महज 1.8 फीसदी वोटों पर सिमट कर रह गई। कुछ ऐसी ही हालत नगालैंड में भी कांग्रेस की रही जहां पिछले चुनाव में उसे 24.9 फीसदी वोट मिले थे, वहीं इस बार उसे सिर्फ 2.1 फीसदी वोटों से संतोष करना पड़ा।
जिस तरह की तुष्टिकरण की राजनीति कांग्रेस करती रही है उस हिसाब से ईसाई बहुल राज्य मेघालय उसके लिए सोने की खान साबित होना चाहिए था लेकिन यहां भी राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर बनती गंभीर धारणा कोई चमत्कार नहीं दिखा पाई। पिछली बार के चुनाव में 29 सीटों और 34.8 फीसदी वोटों के मुकाबले मेघालय में कांग्रेस को इस बार 21 सीटों और 28.5 फीसदी वोट पर ही ठहरना पड़ा। इससे जाहिर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की कथित विभाजक राजनीति को लेकर राहुल गांधी चाहे जितने भी सवाल उठा रहे हों, भारतीय मतदाता अभी राहुल की बातों को तवज्जो देता नजर नहीं आ रहा। कांग्रेस पार्टी में अंदरूनी तौर पर चाहे लाख खींचतान चलती रही हो लेकिन पार्टी के करीब-करीब सभी नेता एक मत हैं कि सोनिया गांधी ही पार्टी को आगे पार लगा सकती हैं। कांग्रेस की यह सोच उसकी ताकत भी है और उसकी कमजोरी भी। ताकत यह कि सोनिया के नाम पर पार्टी एकजुट तो हो जाती है लेकिन कमजोरी यह कि सोनिया आखिर कब तक पार्टी को संभालती रहेंगी। उनके ही बेटे को लेकर पार्टी में इतनी गंभीरता क्यों नहीं नजर आती।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी इन दिनों कांग्रेस से रूठी हुई हैं। इसलिए हो सकता है कि सोनिया गांधी उन्हें मनाने की कोशिश करें। वैसे भी राहुल गांधी के लिए अगर विपक्षी खेमे में कोई बड़ी चुनौती है तो वह ममता बनर्जी ही हैं। गुजरात में कांग्रेस का सहयोग कर चुके हार्दिक पटेल तो ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग तक कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं। हाल के महीनों में भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज कराई है। उसका समर्थन आधार राज्य में लगातार बढ़ता नजर आ रहा है। केरल और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के सफाये के बावजूद केरल में वामपंथी पार्टियों का मुख्य मुकाबला कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन से ही है। बेशक सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर वे कांग्रेस के साथ आ जाएं लेकिन यह तय है कि उनके सामने ऊहापोह की स्थिति बनी रहेगी। वैसे भी सीपीएम में प्रकाश करात खेमा जहां अकेले दम पर राजनीति का पैरोकार है, वहीं महासचिव सीताराम येचुरी खेमा कांग्रेस के सहयोग से व्यापक विपक्षी गठजोड़ के जरिये मोर्चा संभालने का हिमायती है। हालांकि कांग्रेस की कोशिश भाजपा विरोधी मोर्चा में 2004 की तरह वामपंथी दलों को साथ लाने की होगी।
उत्तर प्रदेश में सपा के साथ पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का गठबंधन कामयाब नहीं रहा था। इसलिए अखिलेश यादव इस गठबंधन को लेकर उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। दो महीने पहले तो वे यहां तक बोल चुके हैं कि गठबंधन के लिए बातचीत में वक्त बहुत जाया होता है। इसलिए वे अकेले दम पर ही चुनाव की तैयारी करेंगे। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव को लेकर हालांकि सपा ने लंबे अरसे बाद बसपा के साथ रणनीतिक सहयोग तो कर लिया लेकिन इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया। इससे साफ है कि कांग्रेस से गठबंधन को लेकर न तो सपा में कोई उत्साह है और न ही बसपा में। ऐसे में मोदी विरोधी गठबंधन में सपा और बसपा के शामिल होने को लेकर भी ऊहापोह बने रहने के आसार हैं। तमिलनाडु में बेशक डीएमके कांग्रेस के साथ है लेकिन वहां दो लोकप्रिय चेहरों ने राजनीति में दस्तक दे दी है। मशहूर अभिनेता रजनीकांत के राजनीति में आने के कयास लगाए जा रहे हैं तो कमल हासन ने बाकायदा राजनीति शुरू भी कर दी है। कांग्रेस के सामने चुनौती होगी कि इन लोगों को साधे। हालांकि रजनीकांत की भाजपा से नजदीकियां छिपी नहीं हैं। असम में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी कांग्रेस का साथ दे सकती है। उसकी मजबूरी भी है। इसी तरह झारखंड में कांग्रेस शिबू सोरेन को भी साथ लाने की कोशिश करेगी। इसमें लालू यादव मददगार हो सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की कोशिश महबूबा मुफ्ती को भी तोड़ने की होगी। हालांकि गठजोड़ के चलते यह फिलहाल संभव नहीं लगता। इसी तरह हरियाणा में भाजपा को मात देने के लिए कांग्रेस ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल से हाथ मिला सकती है।
इस बीच खबर यह भी है कि अगले आम चुनाव में रायबरेली से खुद चुनाव लड़ने की बात सोनिया गांधी ने राहुल गांधी पर छोड़ दी है। माना जा रहा है कि रायबरेली से अगला चुनाव प्रियंका गांधी लड़ सकती हैं। पार्टी का एक खेमा प्रियंका की लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें महासचिव बनाने की मांग भी कर रहा है। लेकिन कांग्रेस और सोनिया गांधी की दिक्कत यह है कि जैसे ही प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएंगी, राहुल से उनकी तुलना शुरू हो जाएगी। इसलिए सोनिया शायद ही चाहेंगी कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएं। वैसे भी रायबरेली लोकसभा सीट के साथ ही राहुल गांधी के दफ्तर की जिम्मेदारी भी प्रियंका ही संभाल रही हैं। लेकिन 2019 का चुनाव जीतने के लिए हो सकता है कि राहुल प्रियंका को भी राजनीतिक दांव पर चढ़ा दें।