महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के लिए अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना एक बड़ी चुनौती थी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को 41 सीटें मिली थीं, जिन्हें बरकरार रखना बहुत मुश्किल था. मराठा आंदोलन, किसान आंदोलन, भीमा-कोरेगांव हिंसा के बावजूद भाजपा-शिवसेना ने अपना पिछला प्रदर्शन दोहराया, जबकि कांग्रेस को एक सीट का नुकसान उठाना पड़ा.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और शिवसेना ने बड़ी जीत हासिल की थी. उस समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और उसके चलते सत्ता विरोधी लहर का असर होना भी लाजिमी था. इसके अलावा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने और पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनने के कारण भी इस गठबंधन को फायदा हुआ था. लेकिन, इस बार भाजपा-शिवसेना गठबंधन के लिए अपने पुराने आंकड़े तक पहुंचना एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन उसने यह कर दिखाया. भाजपा ने राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 23 और शिवसेना ने 18 सीटों पर जीत दर्ज की.
दरअसल, पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कुछ राज्यों में बेहद अच्छा प्रदर्शन किया था. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश के साथ-साथ महाराष्ट्र में भी उसका प्रदर्शन काफी अच्छा रहा था. ऐसे में पांच साल तक शासन करने के बाद किसी भी सरकार के लिए अपना प्रदर्शन बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती होती है. महाराष्ट्र में तो स्थिति और भी विकट थी. यहां पिछले लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव हुआ था, जिसके बाद राज्य में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी थी. इन परिस्थितियों में गठबंधन को दोनों ही मोर्चों पर अपने कामों की समीक्षा का सामना करना था. ऐसे में सरकार के लिए अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना कोई आसान काम नहीं होता है. यही नहीं, महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस को राज्य के भीतर कई तरह के विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा. मराठाओं ने आरक्षण की मांग की और उसके लिए पूरे महाराष्ट्र में विरोध प्रदर्शन हुए. एक समय तो ऐसा लग रहा था कि मराठाओं का वोट भारतीय जनता पार्टी से खिसकने वाला है. हालांकि, फडऩवीस ने इस स्थिति को समय रहते संभाल लिया. कुछ समय तक मराठा आरक्षण आंदोलन सुलगने दिया गया और फिर बाद में उन्हें आरक्षण देने की सिफारिश राज्य सरकार ने कर दी. इसके बाद जब केंद्र सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी, तो फडऩवीस की समस्या थोड़ी और कम हो गई. जातीय आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले कई नेताओं को अपनी दुकान बंद होती दिखाई देने लगी और मराठा आरक्षण आंदोलन भी कमजोर होता गया. अंतत: उसे भडक़ाने वाले नेताओं के पास कोई मुद्दा नहीं रहा.
मराठाओं के अलावा राज्य में किसानों का आंदोलन भी लंबे समय तक चला. विदर्भ में पानी की कमी के कारण फसल को होने वाले नुकसान और फसल की सही कीमत न मिलने को मुद्दा बनाकर किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए. महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या को एक बड़ा मुद्दा बनाया गया और उसके लिए राज्य और केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताया गया. चूंकि राज्य और केंद्र, दोनों ही जगह भाजपा की सरकार थी, तो विपक्ष को किसान आंदोलन में जान फूंकने का मौका मिल गया. किसानों ने कई बार मुंबई तक पैदल मार्च किया और राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन किए. किसानों को खुश करना राज्य और केंद्र, दोनों के लिए एक बड़ी चुनौती थी, जिसके लिए राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी बड़ा कदम उठाना था. मुख्यमंत्री फडऩवीस ने इस पूरे आंदोलन को बहुत समझदारी के साथ संभाला. उन्होंने किसानों का गुस्सा ठंडा करने के लिए उनके प्रतिनिधियों से बातचीत की, लिखित रूप से उनकी मांगों को स्वीकार किया, उन्हें आश्वासन दिया कि सभी समस्याओं का समाधान होगा और हर दो महीने पर किसान हित में हुए सरकारी प्रयासों की समीक्षा की जाएगी. तब जाकर लोक संघर्ष समिति के बैनर तले आंदोलन कर रहे किसान शांत हुए. राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार की ओर से भी किसानों की समस्याओं के समाधान का प्रयास किया गया. फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए गए और उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए केंद्र सरकार ने योजना बनाई, जिसके तहत किसानों के खाते में साल में छह हजार रुपये दिए जाने थे, जो दो-दो हजार रुपये की तीन किस्तों में जारी होने थे. लाखों किसानों के खाते में दो हजार रुपये की पहली किस्त डाली गई, जिसका गरीब किसानों को फायदा हुआ और सरकार की पहल के प्रति उनका विश्वास बढ़ा. इस तरह भाजपा ने एक बड़े वोट बैंक का गुस्सा ठंडा कर दिया, जिसका फायदा उसे चुनाव में दिखाई पड़ा.
महाराष्ट्र में भाजपा की एक बड़ी चुनौती दलित आंदोलन की भी रही. भीमा-कोरेगांव युद्ध की वर्षगांठ के दौरान हिंसा हो गई थी, जिसके चलते राज्य सरकार की छवि दलित विरोधी बताई जाने लगी. इस कारण मराठों और दलितों के बीच टकराव की बात कही जा रही थी. लेकिन, राज्य सरकार ने मामले को दूसरी ओर मोड़ दिया और घटना के एक दिन पहले हुई वामपंथियों की यलगार परिषद की बैठक को हिंसा के लिए जिम्मेदार बताया गया. यही नहीं, यलगार परिषद की बैठक को देश के खिलाफ एक षड्यंत्र के तौर पर पेश किया गया. बैठक में प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचे जाने की बात कही गई और कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं, जिसके चलते भीमा-कोरेगांव मामला ठंडा पड़ गया. विपक्ष के चौतरफा हमलों के साथ-साथ भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना की ओर से भी मोदी सरकार को कई चुनौतियां पेश की गईं. पिछले करीब दो साल से शिवसेना का भाजपा पर हमला हो रहा था. कई बार तो दोनों दलों के बीच गठबंधन टूटने की नौबत आ गई. शिवसेना प्रमुख लगातार मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना कर रहे थे. यहां तक कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में अकेले उतरने की घोषणा भी कर दी थी. हालांकि, भाजपा ने गठबंधन बनाए रखने की कोशिशें नहीं छोड़ीं और शिवसेना के आरोपों का तल्ख जवाब नहीं दिया. भाजपा संयम बरतती रही, ताकि समय आने पर शिवसेना को समझाया जा सके. शिवसेना को भी अपनी स्थिति का अंदाजा था, इसलिए उसने गठबंधन को नकारने का जोखिम उठाना उचित नहीं समझा और चुनाव की घोषणा के पहले ही दोनों दलों के बीच दोबारा गठबंधन हो गया.
हालांकि, भाजपा-शिवसेना की जीत में जितनी भूमिका उनकी रणनीति की है, उससे कम बड़ी भूमिका कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की नहीं है. इस गठबंधन के पास मुद्दों की कमी थी. महाराष्ट्र की समस्याओं को उभारने की जगह उसने मोदी पर प्रत्यक्ष प्रहार करने की विफल रणनीति बनाई. इस वजह से वहजनता से जुड़ नहीं सका. और, पूरा चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के बीच केंद्रित हो गया. महाराष्ट्र से आई कई मीडिया रिपोट्र्स में साफ दिखाई दिया कि लोगों ने अपना सांसद चुनने के लिए नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट किया. लोगों का कहना था कि समस्याएं तो बहुत हैं और उम्मीदवार भी ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी वे मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट देंगे. ऐसी अवधारणा बनाने में भाजपा से ज्यादा योगदान विपक्षी पार्टियों का रहा, जिन्होंने मोदी को निशाना तो बना लिया, लेकिन उनका विकल्प देने में नाकाम रहीं. इसका असर दूसरे राज्यों की तरह महाराष्ट्र में भी दिखाई दिया.