सत्यदेव त्रिपाठी
‘मुझे चांद चाहिए’ की रेकॉर्ड लोकप्रियता, चमत्कारिक पठनीयता और पत्र-पत्रिकाओं में ढेरों-ढेर विमर्शकारी चर्चाओं तथा ‘साहित्य अकादमी’ से पुरस्कृत होने की महनीयता के बस पांच साल बाद सुरेंद्र वर्मा का उपन्यास आया- ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’, जिससे साहित्य-जगत में हैरत फैल उठी। आम पाठकों में तो खूब पढ़ा गया, पर समूचा साहित्य-जगत चुप्पी साध गया। सिर्फ गोपाल राय ने दो पृष्ठ की एक टिप्पणी लिखी अपनी पत्रिका में और सुरेंद्र वर्मा नामक- ‘तीसरे मुर्दे के लिए आखिरी गुलदस्ता’ पेश किया।
कारण सिर्फ यह कि इस उपन्यास में जिस विषय को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया गया है, वह है पुरुष वेश्या यानी जिगालो। जी हां, इसका नायक एक सुदर्शन युवक है, जो यही पेशा करता है। और इस विषय पर हिन्दी तो क्या, समूचे भारतीय साहित्य में कदाचित यह पहली रचना हो। लेकिन यदि सुरेंद्र वर्मा के उपन्यासों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो पता चलेगा कि माध्यम चाहे पुरुष वेश्या का विषय हो या माफिया का अथवा फिल्म-जगत का, सुरेंद्र वर्मा की चिंता है उन इंसानी मूल्यों की, जिन्हें छोड़कर आज भौतिक मोह के पीछे बेतहाशा और बेतरह भागा जा रहा है जमाना। और इसे रोकने का उनका ब्रह्मास्त्र है- प्रेम।
‘मुझे चांद चाहिए’ में माध्यम के रूप में विषय है नाटक और फिल्म क्षेत्र। और सारे के सारे कलाकर सिर्फ पैसे के पीछे भाग रहे हैं – चाहे जरूरतन हो, चाहे इरादतन। तीन सालों के प्रशिक्षण से पढ़े-पाये नाट्यमूल्य की उन्हें कोई परवाह नहीं। हर कला व कर्म के बेसिक लक्ष्य -मानव जीवन व मानव मूल्यों की बेहतरी- की कोई फिक्र नहीं। किये जा रहे हैं कुछ भी ऊलजलूल और किसी भी तरह… ऐसे में एक हर्ष (नायक) है -अपने समय का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, जो इस गड्डलिका प्रवाह के समक्ष सीना तान के खड़ा होता है और बेकारी की यातना, कमतर प्रतिभा वाले साथी अभिनेताओं की सफलताओं की कसक और अपने सर्वोत्तम को न व्यक्त कर पाने की मर्मांतक पीड़ा झेलता है, किंतु समझौता नहीं करता। और सफल एवं समझदार प्रेयसी तथा खैरख़्वाह दोस्तों के दबाव में जब उसे समझौता करने का मन बनाना पड़ता है, तो बड़ी पराकाष्ठा (क्लाइमेक्स) की स्थिति पैदा करके लेखक उससे आत्महत्या कराके उन मूल्यों को बचा लेता है- ‘मुश्किल हैं अगर हालात यहां, दिल बेच आएं, जां दे आएं’ को साकार कराते हुए…। और फिर उसकी प्रेयसी से वही करवाता है, जो हर्ष करना चाह रहा था। वह करती है – हर्ष के प्रेम के वास्ते।
नायक नील का अधिकाधिक पैसे यथाशीघ्र कमाने का इरादा मिसेज मेहताब के भावात्मक सलाहकार के रूप में एक प्राध्यापक के वेतन जितने पैसे से शुरू होकर मिसेज मेहताब के ही चलते मिलने वाली अमीर स्त्रियों की सोहबत में पुरुष वेश्या में परिणत होकर पूरा होने लगा। इस यात्रा में सोपान-दर-सोपान आगे बढ़ते हुए वह उस मुकाम पर पहुंचता है कि बहुत बडेÞ घराने की बेटी और बहू पारुल ग्राहक के रूप में आती है, पर उसके प्रेम में यूं मुब्तिला होती है कि समुद्र-किनारे आलीशान फ्लैट, कम्पनी में बड़ी पोस्ट, विदेश यात्राएं और सभी सुख-सुविधाओं से भरी-पूरी एक राजसी जिंदगी मुहय्या कराने के साथ उसके बच्चे को जन्म भी देना चाहती है।
किंतु नील को इससे तृप्ति नहीं, क्योंकि वह नैन नामक एक सामान्य लड़की से प्रेम करता है, उससे शादी करना चाहता है। इसके लिए गांव से मां को बुला लेता है। मुम्बई की सारी सम्पत्ति बेचकर दिल्ली में बसने की योजना है। इस सारी योजना की भनक पाते ही पारुल आती है। अनुनय-विनय करती है। पांव पर सर टेक देती है। रो-रोकर अपने सच्चे प्रेम का वास्ता देती है… आदि-आदि। लेकिन सारे तरीकों के बाद नील को अपने फैसले पर अटल जानकर बदले पर उतर आती है। फिर तो अपने बड़े रसूखों और अकूत संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए उसे सड़क पर ही नहीं ला देती, बल्कि पुरुषवेश्या वाले धन्धे को उजागर करके बदनाम भी करती है और उस कमाई से इकट्ठा किये पैसों-गहनों को नाजायज सिद्ध करके उसे मुजरिम ठहरा के जेल की सजा ही नहीं दिलवाती, जेल में गुण्डों से उसकी पिटाई के साथ-साथ होमो-बलात्कार भी कराती है। इतने के बावजूद नील टस से मस नहीं होता। सारी भौतिक समृद्धियों के समक्ष अपना प्रेम पाना चाहता है- नैन के साथ घर बसाना चाहता है।
अब विचारणीय है कि राजा जैसी जिन्दगी और राजकुमारी जैसी पारुल के समक्ष अनाथ-सी गायिका नैन की क्या बिसात? और जब हर्ष के पीछे दीवानी थीं एक से एक सुन्दर युवतियां और हिरोइनें, तो पूरे ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ में ‘काली लौकी’ के नाम से मशहूर एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आयी वर्षा के प्रति हर्ष जैसा स्मार्ट क्यों रीझता! ये जज्बे हैं अपने प्रिय के सरल सौन्दर्य को ही दुनिया की सारी नेमतों से अमूल्य मानने के, जो सुरेंद्र वर्मा की सोची-समझी और उससे ज्यादा महसूसी हुई चेतना व संवेदना है। आज के समय को साधने का यह एक अमोघ साधन बन सकता है। और इसी के सफल प्रयोक्ता हैं सुरेंद्रजी, जिनके तीसरे उपन्यास ‘काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से’ में भी कालिदास और राजा की बेटी में गहरा प्रेम होता है, पर जब शादी की चर्चा होती है, तो गांव की बचपन की प्रेमिका को भुला व ठुकरा नहीं पाता। इस तरह लगातार भौतिक समृद्धियों के समक्ष महनीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं- बजरिये प्रेम और प्रेम तथा हमारे प्रेम विरोधी रूढ़िवादी समाज को भी नयी दिशा देने का कारगर प्रयत्न करते हैं।
इस मूल्य-चेतना के माध्यम के अलावा ‘दो मुर्दांे के लिए गुलदस्ता’ में लेखक पुरुषवेश्या के पेशे के परिणामों से भी समाज को यूं आगाह करता है कि पढ़ने के बाद कोई उस पेशे की तरफ जाने की सोचे भी न। नैन के लिए यदि नील सब कुछ को न ठुकराता, तो भी इस पेशे के त्रासद पक्ष को मेडिकली सिद्ध किया गया है। कई-कई शिफ्टों में एक दिन में तीन-चार ग्राहकों को घण्टों-घण्टों निपटाते हुए कामसूत्रीय ज्ञान से सीखे कौशल से अपने पेशे का डंका पिटवा रहा था और उसका धन्धा उजले पक्ष की चांदनी की तरह बढ़ गया था… लेकिन एक दिन ऐसा आता है कि प्रौढ़ा उर्वशी ने उसे ‘कसा, झिंझोडा, चूमा, काटा। उसके आक्रामक आवेग ने नील के शरीर को नाजुक दूब-सा रौंदा, पर उसके भीतर उत्तेजना की जगह ठंडी सिहरन भरती गयी’। और अंत में उर्वशी की भर्त्सना ‘मैंने तो सुना था, तुम बड़े प्रोफेशनल हो…’ सुनकर ‘घुटने में सिर झुकाये बैठा रह गया’। पूरी स्थिति डॉक्टर स्पष्ट करता है- ‘जिस पेशे में तुम हो, वह स्त्री से निभ सकता है, क्योंकि उसे सक्रिय नहीं होना होता, पर पुरुष की यही नियति है। तुम उत्तेजक औषधि ले सकते हो, पर धीरे-धीरे उसकी आदत हो जाएगी। तुम्हें उसकी मात्रा बराबर बढ़ानी पड़ेगी। फिर देर-सबेर वे कारगर होना बन्द कर देंगी, पर तब तक तुम्हारे तन-मन को स्थायी नुकसान पहुंच चुका होगा’। यह पढ़ने वाला भला इस काम की तरफ रुख करेगा!
दूसरा है इस पेशे की प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिक व भावात्मक पक्ष। काम की क्रिया सिर्फ शारीरिक क्रिया-व्यापार नहीं, मानस से संचालित हुए बिना शरीर सक्रिय नहीं हो सकता, बार-बार तो कतई नहीं। फिर नील परिष्कृत रुचि का सुशिक्षित प्राणी है। उधर पहली ग्राहक व अपनी सेक्स ट्रेनर कुमुद, फिर पत्नीवत सब कुछ लुटाने वाली पारुल और अंत में नैन के प्रति पूर्णत: समर्पित होने से बार-बार रोज-रोज नये-नये के साथ अवांच्छित सम्भोग करना बड़ी यंत्रणा-दायक प्रक्रिया रही। कई बार किसी नितांत अवांच्छित बदन के साथ एकाकार होने की कठिनाई से उबरने के लिए थोड़ी सुन्दर व चहेती औरतों -यास्मीन व पारुल- की कल्पना की, पर यह सब भी बन्द हो चला, जब सब पर नैन की छवि सुपर इम्पोज होने लगी। इस प्रकार नील की दमित भावनाओं ने विद्रोह कर दिया। और इस तरह पेशे व कमाने की वृत्ति भी रुकी – बजरिये प्रेम।
लेकिन जब नील ने यह पेशा अख़्तियार किया, तो वह अपने अतीत के दंश से प्रेरित व प्रतिक्रियायित भी रहा। उससे जब-जब किसी ने सवाल किया, पूरे विश्वास के साथ उसने उस व्यावसायिकता का दोटूक विवेचन प्रस्तुत किया। दो स्थल बड़े मार्मिक हैं। पहला जब नौकरी से निकालते मेहताबजी से समक्षता हुई- ‘आपके माध्यम से मैंने समृद्धि की शक्ति पहचानी है। वही पाने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने शॉर्ट कट का चुनाव किया है, जो आपको खासा गलत लग सकता है। आपको इस शहर में अकेले अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी, इसलिए आपको ऐसे संघर्ष व उसकी पीड़ा का अन्दाजा नहीं होगा। नैतिक दृष्टि लचीली होती है, वह व्यक्ति के साथ बदलती है- जैसे हजारों साल पहले एक स्त्री के पांच पति का विधान। मेरे ये तर्क शायद आप स्वीकार न करें, लेकिन हर समाज में मूल्यांकन की कसौटी सफलता ही होती है’। और दूसरा स्थल है, जब सबकुछ लुट जाने के बाद नील ने नैन के घर फोन किया तो उसके अभिभावक से हुई बातचीत- अगर माथे पर सोने का ताज आ जाए, तो हर रास्ता सही होता है। मेरा छिन गया, तो थू-थू होने लगी। अपने किये पर पछतावे की बावत पूछने पर, ‘दूसरों की नैतिकता के चश्मे से मुझे मत देखो। मैंने डाका नहीं डाला, कानून नहीं तोड़ा, एडल्ट औरत अपनी मर्जी से मेरे पास आयी। मैंने किसी को ब्लैकमेल नहीं किया। मनुस्मृति के कौन से ऐंगल से रजामन्दी का सौदा गुनाह हो गया’? अभिभावक को भी मानना पडा कि यह चीरफाड बहुत पेचीदी है।
साहित्य में बातों की प्रस्तुति निर्णायक होती है। और इस स्तर पर कहीं रंचमात्र भी अश्लीलता या अरुचि का सिला नहीं बनता। कहा सब कुछ गया है, पर ऐसे सलीके से कि बस… ‘क्लास’ बन पड़ा है, क्योंकि सलीका ही क्लासिक कामसूत्र से लिया गया है। और इतने आसनों-चुम्बन व नख-दंत-क्षत-प्रकारों के उल्लेख हुए कि कुछ पता न चले- कृष्ण को दी गयी शिशुपाल की गालियां आज की पीढ़ी को महाभारत से सुना दी जाएं, तो आशीर्वचन लगें। लेकिन इन्हें समझे बिना भी तह तक का आनन्द आ जाए और समझना हो, तो कामसूत्र खोला जाए- ‘उत्सव’ फिल्म में अमजद खान का रोल बार-बार याद आता है।
अब जिगालो के होने-बनने की बात भी यथार्थ की जानिब से कर ली जाए। जिस भौतिक युग और बाजार की व्यवस्था में हम जी रहे हैं, वहां यदि जिगालो का पेशा चल रहा है, तो मांग और पूर्त्ति का यथार्थ अवश्य है। जिगालो को अपने टार्गेट एरिया का पता है- कोलाबा और मध्य मुंबई की मांग और दर (रेट) में फर्क है। साहित्यिक नील का विनोद-बोध सोचता है- ‘ क्या उपनगरों की जीवनदृष्टि मलाबार कफ परेड से अलग थी? या बान्द्रा से बोरीवली तक के भूभाग में वैवाहिक संतोष पनपाने की खास क्षमता थी?’ जाहिर है कि ऐसी नीडी स्त्रियों का एक उच्च-उच्चतम वर्ग है। वे कुंवारी हैं, तो मां-बाप के पास समय नहीं और विवाहित हैं, तो पति अपने कारोबार में डूबा है। 1970 के दशक में जब एक्सपेरीमेंटल सिनेमा आया, ‘एक बार फिर’, ‘परोमा’ जैसी फिल्मों में ऐसी अमीर पत्नियों की ऊब प्रेम के रास्ते बाहर आती थी- किसी अध्यापक, ट्यूटर, गीत-चित्र शिक्षक आदि के साथ प्यार हो जाता था। अब वही बाजार के जरिये बाहर आती है- कौन जाए कश्मकश की सांसत सहने- ठीक वैसे ही कि जब होटेल से मंगा लेने या जाकर खा लेने में ज्यादा सहूलियत है, तो घर में बनाने की क्या जरूरत है? वहां पंजाबी-गुजराती-दक्षिण भारतीय व्यंजनों के साथ चायनीज-स्पैनिश आदि की वैरायटी का मजा भी है। लेकिन पारुल के पति के रूप में एक विचित्र, पर समझ सकने योग्य स्थिति से साबका पड़ता है। वह नील व पारुल के संबन्ध को जान जाने के बाद नील को पैसे और सुविधाएं देकर इसे जारी रखने के लिए कहता है, ताकि वह मुक्त होकर अपने बिजनेस का काम जोर-शोर से कर सके।
सुरेंद्र वर्मा ने तो ऐण्डी कार्सिया की फिल्म ‘द मैन फ्रॉम एलीसियन फील्ड्स’ देखी थी, लेकिन तब से दो दशक बाद अब साहित्य में न सही, ‘देसी ब्वायज’ व ‘हे बेबी’ जैसी हिन्दी फिल्में भी पुरुष-वेश्या जैसे विषय को उठा रही हैं – गोकि व्यावसायिक रिस्क के चलते विदेशी सरजमीं पर चल रही कहानियों में ही। हां, युवा लड़कियों के बीच नाचने का कैबरे जैसा धन्धा करने का यथार्थ दीपक काजिर की संजीदा फिल्म ‘ऊप्स’ में आ चुका है और इसी विषय पर एम टीवी का सीरियल ‘बिग एफ’ घरू माध्यम में घुसने की हिम्मत करके लोकप्रियता हासिल कर रहा है… यानी जीवन का यह यथार्थ आज कला-जगत में अपनी जगह बना रहा है।
फिर ‘दो मुर्दांे के लिए गुलदस्ता’ के नायक की भी ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी’, यूं कोई वेश्यागीरी के धंधे में नहीं जाता, की सच्चाई के तहत इस उपन्यास के नायक नील माथुर की मजबूरी भी एक ज्वलंत यथार्थ का नमूना है। ‘दिल्ली विश्वविद्यालय के तख़्ते ताऊस (हिन्दी विभाग) पर बैठा मुगल बादशाह’ (विभागाध्यक्ष) इस अपने तेज-तर्रार व प्रतिभाशाली शिष्य को अपना शोध सहायक व किसी कॉलेज में प्रवक्ता बना चुका है। विश्वविद्यालय के विभाग में उसका शीघ्र ही होना सुनिश्चित है, पर तभी उसकी बेटी के साथ नील के सम्बन्ध उजागर हो जाते हैं। और बेटी द्वारा नील की निर्दोषता बताने के बावजूद अपनी शान में गुस्ताखी की क्रूर सजा मुकर्रर होती है कि अब उसे पूरे देश में कहीं भी प्राध्यापकी नहीं मिलेगी। और उस बादशाही नाफरमानी की हिम्मत किसी में नहीं। और ऐसे तत्कालीन बादशाहों के नाम सबको मालूम हैं। यह बादशाहत कुछेक मामलों में आज भी कायम है।
कॉलेज जैसे पारम्परिक पेशे की जकड़बन्दी और ज्ञान क्षेत्र की महारत के बावजूद यूं वंचित हो जाने से आहत नील की दो मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएं – ‘जो काम करेगा, पारम्परिक न होगा’ और ‘लक्ष्य सिर्फ इतना कि दो साल में पर्याप्त द्रव्य’। दोनों के लिए मुफीद मुम्बई। और मुम्बई के रास्ते में मथुरा से गाड़ी में दाखिल हुआ भोला भी अपने काका द्वारा सारी सम्पत्ति से महरूम किया गया है और नील के हेड की तरह ही काका के सामने पूरा गांव पस्त। सो, ‘निश्चित वर्तमान से अनिश्चित भविष्य’ का यात्री वह भी। बस, फर्क यह कि उसका सपना चौकीदारी का था और नील का कुछ और। डिब्बे में हुई नाटकीय मुलाकात में दो भिन्न व्यक्तित्त्व की समान स्थितियों ने दोस्ती करा दी।
दोनों को गैर पारम्परिक व अनिश्चित भविष्य के काम मिले। नील की चर्चा हुई और अपने जिस गांव वाले के वसीले से भोला आया था, वह एक माफिया गिरोह (गैंग) में सक्रिय था। सो, उसी में शामिल हो गया। दोनों ही मित्रों की प्रगति के समानांतर विकास में भी एक रचना-कौशल छिपा है- इधर नील की ग्राहकी बढ़ती है, उधर गैंग में भोला की पोजीशन। साथ में दोनों की आमदनी भी। इस प्रकार इन दोनों पर रखे गये नाम ‘दो मुर्दांे के लिए गुलदस्ता’ को सड़क की चालू भाषा में ‘एक था गुण्डा और एक था रण्डा’ भी कहा जा सकता है। माफिया गैंग में भोला की अपने मालिक के प्रति जान पर खेल जाने तक की वफादारी उसकी प्रगति और पर्याप्त समृद्धि का मानक बनती है। वह एक जिस्मफरोश, पर भली-प्यारी लड़की से शादी करके सुख से रह रहा होता है। गांव में घर बनवा रहा है।
यह उपन्यास दोनों ही माध्यमों से मूल्यों की शिनाख़्त करता है। लेकिन दोनों के फर्क को भी रेखांकित करता है। वाकया दरपेश है –
नील के जेल से छूटने के बाद पारुल और उसके लोग उसे खत्म करने की सुपारी भोला के बॉस को ही देते हैं। भोला-नील की गाढ़ी दोस्ती पूरी गैंग को पता है। उधर बॉस के ही जरिये नील के लिए भोला एक अच्छे वकील का बन्दोबस्त करा रहा है। वकील के पास पेपर्स लेके जाने के दिन बॉस अचानक भोला को सीनियारिटी के नाते महत्त्वपूर्ण काम के नाम पर कहीं और तथा नील के साथ किसी और को भेज देता है। शाम को मालूम पड़ता है कि रेल से कटकर नील की मौत हो गयी। सब समझ कर भोला गुस्से में बॉस के पास पूछने जाता है। उसका आक्रोश सुन लेने के बाद बॉस ने बताया- ‘सोमपुरिया हमारे पुराने ग्राहक हैं। बड़े-बड़े संकट में काम आते हैं’। और एक लाख का बण्डल सामने रख दिया- ‘तुम्हार हिस्सा। और वो अपने लंगड़े राव को रेडीमेड की दुकान खुलवा रहे हैं। हम दोनों के साथ तुम भी 25 टके के पार्टनर रहोगे। शालू (पत्नी) के नाम से कागजाद तैयार करा दूंगा। हम लोगों की जिन्दगी का कुछ ठीक नहीं। बीवी-बच्चों को थोड़ा सहारा चाहिए कि नहीं’?
भोला बण्डल को देखता रहा और बाहर निकल गया। दरवाजे पर दो पल ठिठका, फिर मुड़कर ‘ठीक है’ कहते हुए बण्डल उठा लिया।
और घर जाकर नील की राख को वेणी में लपेटते हुए बोला- इलाहाबाद जाकर त्रिवेणी में विसर्जन करूंगा। जीतेजी नील भैया माया नगरी से मुक्त नहीं हो पाये, कम से कम उनकी राख तो हो जाए।