राजनीतिक दृष्टि से सनसनीखेज यह पहला हाई प्रोफाइल मामला नहीं है जिसमें सीबीआई विफल रही है। इससे पहले भी कई मामलों में ऐसा हो चुका है। बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड, आरूषि-हेमराज दोहरा हत्याकांड, हरियाणा का रूचिका गिरहोत्रा आत्महत्या मामला जिसमें राज्य के पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर पर गंभीर आरोप लगे थे जैसे कई ऐसे मामले हैं। भ्रष्टाचार और अपराध से जुड़े हाई प्रोफाइल मामलों में सीबीआई की कार्यशैली अलग ही होती है। यदि भ्रष्टाचार का मामला सत्तारूढ दल या सरकार का समर्थन कर रहे किसी घटक या दल के नेता से संबंधित हो तो जांच एजेंसी का काम करने का ढंग अलग होता है। लेकिन यदि यही मामला प्रतिपक्ष के किसी दल या उसके नेताओं से संबंधित हो तो सीबीआई की जांच का तरीका एकदम अलग होता है।
हरियाणा के शिक्षक भर्ती घोटाला कांड में पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला सहित 50 से अधिक अभियुक्तों को सजा दिलाने में सफल रहने वाली जांच एजेंसी राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड जैसे मामलों में मात खा जाती है। बोफोर्स मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने 31 मई, 2005 को हिंदुजा बंधुओं- श्रीचंद, गोपीचंद और प्रकाश चंद के साथ ही बोफोर्स कंपनी के खिलाफ सारे आरोप निरस्त कर दिए थे। यही नहीं हाई कोर्ट ने सीबीआई की कार्यशैली पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि उसकी वजह से इस मामले में 250 करोड़ रुपये बर्बाद हो गए। इसी तरह राजीव गांधी हत्याकांड में व्यापक साजिश की जांच के लिए सीबीआई की अध्यक्षता में गठति बहुपक्षीय निगरानी एजेंसी की जांच को लेकर भी हाल में सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी का सामना करना पड़ा। अदालत ने इसकी प्रगति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह जांच तो अंतहीन लगती है।
इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, उनके बेटे अखिलेश यादव और एक अन्य परिजन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के आरोपों की जांच करने वाली सीबीआई ने संप्रग के कार्यकाल में ही पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इसे बंद करने की रिपोर्ट अदालत में दायर की। सीबीआई ने 2006 में आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में राजद सुप्रीमो लालू प्रयाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी को बरी करने के विशेष अदालत के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती देना तक मुनासिब नहीं समझा। इस निर्णय को जब बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने हाई कोर्ट में चुनौती दी तो सीबीआई ने ऐसे मामले में अपील दायर करने के राज्य सरकार के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली थी। इसी तरह बसपा सुप्रीमो मायावती के मामले में भी जांच एजेंसी का कुछ ऐसा ही ढुलमुल रवैया था। ऐसा होना भी स्वाभाविक था क्योंकि उस समय ये तीनों नेता ही केंद्र की यूपीए सरकार को हर तरह से सहयोग दे रहे थे।
1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों के तमाम आरोपों के बावजूद सीबीआई को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जगदीश टाइटलर के खिलाफ मुकदमा चलाने के पर्याप्त सबूत नहीं मिले और उसने 2009 में मामला बंद करने की रिपोर्ट दायर कर दी। हालांकि विशेष अदालत ने मामला बंद करने की रिपोर्ट स्वीकार करने संबंधी मजिस्ट्रेट का 2010 का आदेश निरस्त करते हुए अप्रैल 2013 में जांच एजेंसी का यह निष्कर्ष अस्वीकार कर दिया।
बहुचर्चित रूचिका गिरहोत्रा आत्महत्या मामले में हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर के खिलाफ दो मामलों को सीबीआई ने नवंबर 2010 में ठोस सबूतों के अभाव में बंद करने की रिपोर्ट दाखिल की थी। हालांकि रूचिका के परिजनों के जुझारू तेवरों की वजह से उसे इसमें सफलता नहीं मिली और अंत में राठौर को दोषी ठहराया गया जिसे सितंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बकरार रखा। यही नहीं उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित स्वास्थ्य घोटाले में 5 अप्रैल, 2011 को प्रदेश की स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा गिरफ्तार पूर्व उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. वाईएस सचान की 22 जून, 2011 को लखनऊ जेल के शौचालय में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत के मामले में सीबीआई को ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे यह पता चले कि उनकी हत्या की गई थी।