प्रो. बी आर दीपक
भारत और चीन के बीच डोकलाम मुद्दे को लेकर जिस तरह का तनाव बना हुआ है वह काफी चिंताजनक है। वैसे डोकलाम विवाद काफी पुराना है। बीते 33 वर्षों में इसे लेकर चीन और भूटान के बीच 24 वार्ताएं हो चुकी हैं। चीन की तरफ से भूटान को प्रलोभन दिया जाता है कि भूटान डोकलाम दे दे और बदले में वह भूटान को विवादित उत्तरी और पश्चिमी भाग देने को तैयार है। हालांकि, एक समय भूटान तैयार भी हो गया था, लेकिन भारत के दवाब के चलते वह पीछे हट गया। भारत की चिंता इसलिए वाजिब है कि अगर डोकलाम चीन के कब्जे में आ जाता है तो इससे भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीन का दखल बढ़ जाएगा। जो हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए उचित नहीं है। जब भी डोकलाम मुद्दे को सुलझाने की बात होती है तो चीन हमेशा 1890 में मंचू राजशाही और ब्रिटिश इंडिया के बीच हुई संधि का हवाला देता है। किसी मुद्दे को सुलझाना है तो उसके लिए कई बातों की अनदेखी करनी पड़ती है। चीन ने 1998 में लिखित तौर पर कहा है कि वह विवादित डोकलाम क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखेगा। लेकिन चीन अब इससे पीछे हट रहा है, जो गलत है। मेरे ख्याल से डोकलाम सीमा विवाद को समाप्त करने की दिशा में भारत और चीन को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। डोकलाम से दोनों देशों को एक साथ हटना चाहिए। चीन की सेना जून 2017 में झिंपेरी पोस्ट तक आ गई थी। मौजूदा तनाव खत्म करने के लिए उसकी सेना को वापस अपनी जगह लौट जाना चाहिए। हालांकि चीन के रवैये को देखकर नहीं लगता कि उसकी सेना पीछे हटेगी। वहां का मीडिया भी इसे लेकर अपनी सरकार पर भारत विरोधी दवाब बना रहा है। चीन अखबार पीपुल्स डेली ने जुलाई 2017 में एक नक्शा प्रकाशित किया और उसके कैप्शन में लिखा, ‘बॉर्डर लाइन इज द बॉटम लाइन’। इससे चीन सरकार और वहां के मीडिया की राय समझी जा सकती है। भारत और चीन के बीच जारी तनाव को खत्म करने के लिए विश्व बिरादरी अगर पहल भी करे तो चीन उसके दवाब में नहीं आएगा। मेरे ख्याल से डोकलाम मुद्दे को लेकर भारत और चीन में युद्ध जैसी कोई आशंका नहीं है। सितंबर-अक्टूबर तक दोनों देशों की सेनाएं वहां रहेंगी और सर्दी बढ़ने पर वे पीछे हट जाएंगी। डोकलाम के मुद्दे पर भारत और चीन के बीच भले ही जुबानी जंग जारी है, लेकिन चीन भी नहीं चाहेगा कि किसी भी सूरत में भारत के साथ युद्ध हो। चीन एक विकासशील देश है उसके कई लक्ष्य हैं। साल 2021 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल पूरे हो जाएंगे। चीन का दूसरा लक्ष्य है कि वह साल 2049 तक विकसित देश बन जाए। यह साल इसलिए अहम है कि चीन को गणराज्य बने 100 साल पूरे हो जाएंगे। 1991 में चीन की सत्तर फीसदी आबादी गांवों में निवास करती थी, लेकिन अब अड़तालीस फीसदी आबादी ही गांवों में रहती है। चीन भारत की आर्थिक तरक्की से भी घबराया हुआ है। चीन मानता है कि भारत युवाओं का देश है और वहां पैंसठ फीसदी आबादी युवाओं की है। भारत और चीन के बीच मौजूदा कुल व्यापार 70 अरब डॉलर का है। साल 2013 में यह व्यापार 75 अरब डॉलर का था।
अब दिक्कत यह है कि सिक्किम (भारत) और तिब्बत (चीन) के बीच डोकलाम में अंतरराष्ट्रीय सीमा का बहुत पहले निर्धारण हो चुका है और इसमें कोई विवाद नहीं है। अस्सी के दशक में भूटान और चीन के बीच चौबीस वार्ताएं हुर्इं और दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारण पर सहमति भी बनी। फिलहाल जिस क्षेत्र को विवाद का रूप दिया गया है उसमें चीन भूटान के हिस्से की कुछ जमीन चाहता है और बदले में इससे अधिक जमीन किसी दूसरे इलाके में देने के लिए राजी है। चीन और भारत दोनों देशों में उच्च राजनयिक स्तर पर हलचल दिखायी दे रही है। तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या का समाधान बातचीत के जरिए संभव है, क्योंकि अगर युद्ध जैसी स्थिति ने तीव्र रूप लिया तो इससे दोनों देशों को नुकसान होगा। रक्षा मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे अरुण जेटली ने जो बयान दिया कि ‘यह 1962 का भारत नहीं है’ और फिर जवाब में चीन ने अपने सरकारी मुखपत्र में जो भड़काऊ लेख प्रकाशित किए उससे स्थिति काफी विस्फोटक हो गई थी।
भारत और चीन दोनों ने अगर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया तो यह समूचे दक्षिण एशिया के लिए एक खतरनाक स्थिति को जन्म देगा। पिछले दिनों एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने दावा किया कि भारत उन परमाणु मिसाइल की तकनीकी पर काम कर रहा है, जिनकी मारक क्षमता चीन तक हो। इस दावे को झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि भारत को चीन से काफी बड़ा खतरा है। इसलिए वह अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा कर रहा है। आमतौर पर कहा जाता है कि भारत चीन के मुकाबले मजबूत है। लेकिन हमारे लिए यह जानना भी जरूरी है कि लड़ाइयां सिर्फ परमाणु मिसाइलों से नहीं लड़ी जाती हैं। हमारे पास कितनी फौज है, उन्हें कहां तैनात किया गया है। हमारे पास कितने हथियार और लड़ाकू विमान हैं। यह भी समझने की जरूरत है।
भारत और चीन के संबंधों को द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक नजरिए से देखना होगा। जहां तक द्विपक्षीय संबंधों की बात है तो वह ठीक-ठाक ही चले थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन गए और साल 2014 में वहां के राष्ट्रपति भी भारत आए। दोनों देशों ने कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की थीं। चीन के राष्ट्रपति ने अपने भारत दौरे में कहा था कि ‘हम भारत में बीस अरब डॉलर का निवेश करेंगे।’ लेकिन उसके बाद जब प्रधानमंत्री मोदी चीन से वापस आए तो आतंकवाद और एनएसजी में एंट्री को लेकर दोनों देशों के बीच असहमति पैदा हो गई। इन दो मुद्दों ने हमारी चीन के साथ विदेश नीति को जकड़ लिया। नतीजतन दोनों देशों के संबंध निचले स्तर पर आ गए। यहां तक कि हमारे प्रधानमंत्री ने सीधे-सीधे राष्ट्रपति शी-जिनपिंग से भी अपनी आपत्ति दर्ज कराई। वहीं चीन को लगा कि इस मुद्दे पर ऊपरी लीडरशिप के जरिए बात नहीं की जा सकती, बल्कि भारत को एक चैनल के जरिए बात करनी चाहिए। मई 2017 में चीन ने एक मार्ग एक पट्टी का सम्मेलन पेइचिंग में बुलाया, लेकिन भारत ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। मेरे ख्याल से यह आखिरी पड़ाव था दोनों देशों के रिश्ते खराब होने में। भारत के विदेश सचिव ने खुले तौर पर चीन को बता दिया कि उनका देश इस परियोजना में शामिल नहीं होगा क्योंकि चीन जो गलियारा पाकिस्तान के साथ मिलकर बना रहा है वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर होकर जाता है और यह भारत की संप्रभुता के लिए सही नहीं है। उसके बाद हमारे संबंधों में खटास पैदा हो गई। जहां तक क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य का सवाल है तो उसमें भी हमारे संबंध सार्क देशों के साथ कुछ खास अच्छे नहीं रहे। श्रीलंका के साथ खासकर राजपक्षे के समय ठीक संबंध नहीं रहे। हालांकि अब संबंध जरूर अच्छे हुए हैं। श्रीलंका को लगता है कि उसकी जो मदद चीन कर सकता है, वह भारत नहीं कर सकता। बांग्लादेश के साथ हमारे संबंध अभी ठीक हैं क्योंकि वहां की मौजूदा सरकार हमारे पक्ष की मानी जाती है। हालांकि, चीन की सक्रियता हाल के वर्षांे में वहां बढ़ी है। बांग्लादेश भी अपना झुकाव पूरी तरह भारत की तरफ नहीं रखना चाहता। चीनी राष्ट्रपति जब वहां गए तो 24 अरब डॉलर की मदद देने का ऐलान कर आए। नेपाल के साथ भी हमारा यही किस्सा है मनमुटाव का। आज सिर्फ भूटान और अफगानिस्तान के साथ हमारे संबंध नई ऊंचाइयों पर हैं। पाकिस्तान के साथ हमारे कैसे संबंध हैं इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। दरअसल चीन सार्क देशों के साथ अच्छे संबंध बनाने की कोशिशों में जुटा है। भारत की बढ़ती आर्थिक तरक्की से चीन खासा परेशान है। पाकिस्तान को चीन इसलिए मदद करता है कि भारत एशियाई क्षेत्रों में ही उलझा रहे और एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में न उभर सके। पाकिस्तान को सत्तर फीसदी रक्षा सामग्री चीन आपूर्ति करता है। यहां तक कि मिसाइल तकनीक भी चीन पाकिस्तान को देता है, ताकि वह भारत के खिलाफ सामरिक रूप से मजबूत हो। पाकिस्तान एक बड़ा कर्जदार बन गया है चीन का। पाकिस्तान पर चीन का 62 अरब डॉलर का कर्ज है। अगर हम पाकिस्तान की कुल जीडीपी की बात करें तो वह महज 200 बिलियन डॉलर का है। पाकिस्तान को चीन का साथ अभी काफी पसंद आ रहा है, लेकिन भविष्य में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। जबसे चीन की आर्थिक स्थिति अच्छी हुई है और 2013 से एक मार्ग एक पट्टी का प्रस्ताव दिया है, हमारे पड़ोसी देश को इसमें फायदा दिखता है। कई देशों ने एक मार्ग एक पट्टी को लेकर उत्सुकता दिखाई है। यह बात सही है कि हाल के वर्षांे में चीन की आर्थिक विकास दर थोड़ी कम हुई है। तीस सालों तक उसकी विकास दर नौ फीसदी थी। इस विकास दर की वजह से उसने 70 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया। अमेरिका के बाद चीन दुनिया की दूसरी महाशक्ति है। चीन का विश्व अर्थव्यवस्था में 30 फीसदी योगदान है। हालांकि इस समय बैलेंस आॅफ पॉवर भी अटलांटिक से प्रशांत महासागर की तरफ शिफ्ट हो रहा है। अगर चीन की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाएगी तो इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ेगा। इसलिए विश्व भी नहीं चाहेगा कि चीन की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो।
…जैसा अभिषेक रंजन सिंह को बताया