अभिषेक रंजन सिंह
भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर बहत्तर दिन चला गतिरोध शांतिपूर्ण तरीके से दूर हो गया। दोनों देशों ने सोलह जून से एक-दूसरे के खिलाफ डटी अपनी सेनाओं को हटाने की घोषणा की। निश्चित रूप से यह भारत की कूटनीतिक जीत है। उस दौरान चीनी सरकार और मीडिया ने भारत के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहीं भारत ने न केवल एक जिम्मेदार देश की तरह संयम से काम लिया बल्कि वह डोकलाम मुद्दे पर गतिरोध को राजनयिक तरीकों और बातचीत से दूर करने की बात दोहराता रहा। पहले चीन अड़ा था कि पहले भारत अपनी सेना को वापस बुलाए तभी उससे बातचीत हो सकती है। वहीं भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में दिए अपने बयान में साफ कर दिया था कि भारत अपने सैनिकों को तभी वापस बुलाएगा, जब चीन भी डोकलाम से अपनी फौज को हटाएगा। अंतत: चीन को भारत की बात माननी पड़ी और दोनों देशों ने अपनी सेनाएं वापस बुला लीं।
गौरतलब है कि डोकलाम एक विवादित क्षेत्र है। चीन और भूटान दोनों उस पर अपना दावा करते हैं। भारत और चीन के बीच तनाव तब पैदा हुआ जब चीन ने उस इलाके में सड़क बनानी शुरू कर दी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिस विवादित जमीन पर दो पक्षों के अपने-अपने दावे हों, वहां स्थायी निर्माण करने की क्या आवश्यकता थी? चीन की इस कारगुजारी से भूटान का चिंतित होना लाजिमी था। उसने भारत से अपनी चिंता साझा की क्योंकि भूटान राजनयिक और सुरक्षा संबंधी मामलों में भारत पर निर्भर है। उसके बाद भारत ने एक पड़ोसी देश होने के नाते वही किया जो डोकलाम में यथास्थिति को बदलने की चीन की कोशिशों को रोकने के लिए किया जाना चाहिए था। भारतीय सैनिकों ने चीन की तरफ से जारी निर्माण कार्य रोक दिया और वहां अपना पड़ाव डाल दिया। चीनी विदेश मंत्रालय और सरकारी मीडिया ने भारत को डराने-धमकाने व नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि चीन ने भारत को साल 1962 की लड़ाई की याद भी दिलाई। जवाब में तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने भी चीन को कड़ा संदेश दिया कि वह किसी गफलत में न रहे। मौजूदा भारत 1962 का भारत नहीं है। वैसे डोकलाम के मुद्दे पर चीन के नरम होने का कारण ब्रिक्स शिखर सम्मेलन भी रहा। सम्मेलन का मेजबान चीन था। उसकी चिंता की बड़ी वजह थी नरेंद्र मोदी के इस सम्मेलन में शामिल होने पर सस्पेंस। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन कामयाब हो, इसलिए डोकलाम पर चीन को अपना कदम पीछे हटाना पड़ा। इस बदली हुई परिस्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न केवल चीन में आयोजित ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शामिल हुए बल्कि चीन की अनिच्छा के बावजूद आतंकवाद का मुद्दा उठाया। इससे भी बड़ी बात यह रही कि ब्रिक्स के सदस्य देशों ने भी आतंकवाद पर चिंता प्रकट की। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के संयुक्त घोषणा पत्र में आतंकवाद को एक वैश्विक समस्या माना गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इसमें लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद आतंकी संगठनों का जिक्र किया गया जो पाकिस्तान की सरपरस्ती में फल-फूल रहे हैं।