संध्या दि्वेदी।
सवाल-आपका ‘थर्ड जेंडर’ यानी किन्नरों की जिंदगी पर आधारित उपन्यास ‘नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस मुद्दे पर लिखने का विचार कैसे आया आपको?
जवाब-लंबे समय से मेरे मन में पीड़ा थी। एक छटपटाहट थी, कि आखिर क्यों हमारे इस अहम हिस्से को अलग-थलग किया जा रहा है। हमारे बच्चों को क्यों हमसे दूर किया जा रहा है। आजादी से लेकर अभी तक कई रूढ़ियां टूटीं। लेकिन किन्नरों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया। क्यों, आखिर इनका दोष क्या है? यही सवाल था जो मुझे बेचैन करता था। 1974 में मैं मुंबई के नालासोपारा में रहती थी तब मेरी मुलाकात एक इसी समुदाय के एक व्यक्ति से हुई जिसे किन्नर होने की वजह से घर से निकाल दिया गया था। यह उपन्यास उसी व्यक्ति के विद्रोह की कहानी कहता है। मैंने उसे अपने घर पर बहुत दिनों तक साथ रखा।
सवाल- समाज के इस हिस्से को कैसे न्याय मिलेगा? कैसे बराबरी मिलेगी?
जवाब-जब मां चाहेगी। जब स्त्री अपनी कोख पर हक जमाएगी। स्त्री ने कभी अपनी कोख को अपनी स्वायतता का विषय बनाया ही नहीं। शायद इसकी वजह पितृसत्ता का दबाव है। लेकिन अब समय आ गया है जबकि स्त्रियों को अपनी कोख पर हक जताना होगा। मेरे इस उपन्यास में समाज और घरवालों के दबाव के आगे झुकी मां आखिर में अपने बच्चे को न केवल खुद सार्वजनिक स्वीकृति देती है बल्कि पिता को भी अपने ट्रांसजेंडर बेटे को स्वीकार करने के लिए राजी करती है। उपन्यास के अंत में अखबार में बेटे को घर वापस बुलाने का आग्रह और संपत्ति में हिस्सा देने की बात के जरिए मैं कहना चाहती हूं कि स्त्री को अब अपने बच्चों के लिए चुप्पी तोड़नी होगी। अजीब बात है कि लिंग और योनि की पूजा करने वाले समाज ने लिंग दोष से पीड़ित बच्चों को इस काबिल नहीं समझा कि उन्हें अपना हिस्सा बनाया जाए। मैं पूछती हूं कि यह कैसा समाज है? समाज द्वारा निर्धारित ऐसे मानदंडो से मैं इनकार करती हूं। मेरे इस उपन्यास का विषय है मां और बेटा। आखिर में समाज से डरने वाली मां विद्रोह करती है, अपनी कोख के खातिर।
सवाल –ट्रांसजेंडर्स पर्सन्स (प्रोटेक्शन एंड राइट) बिल, 2016 को लोकसभा में लाया गया, क्या कानून बनने से कुछ बदलाव होगा?
जवाब-कानून जरूरी है, मगर यह कानून राजनीतिक मंशा से प्रेरित नहीं होना चाहिए। सबसे पहले इन्हें शिक्षा देने की जरूरत है। भरोसा दिलाने की जरूरत है कि वह हमारा हिस्सा हैं। वह जैसे चाहें रहें, वह जिस जेंडर या जिस स्थिति के साथ रहना चाहते हैं, रहें। हमें वे जस के तस स्वीकार हैं। एक वोट बैंक की तरह नहीं बल्कि समाज के एक जरूरी हिस्से के रूप में स्वीकार कर इन्हें कानूनी और सामाजिक बराबरी दिलाने की कोशिश करनी चाहिए।
सवाल-उपन्यास का नायक यानी ट्रांसजेंडर युवक उस पारंपरिक काम को स्वीकार नहीं करता जिसे समाज ने इस समुदाय के लिए चुना है। इस विद्रोह के पीछे संदेश क्या है?
जवाब- सीधा संदेश है कि मस्तिष्क में यह बिल्कुल हमारे जैसे हैं, जैसे दूसरे लोगों को हक है अपना काम चुनने का वैसे ही इन्हें भी। ताली बजाना और बच्चा पैदा होने या शादी समारोह में नेग मांगना, ट्रेनों, बसों में भीख मांगने तक यह सीमित नहीं हैं। इन्हें मौका मुहैया करवाने की कोशिश सरकार को करनी चाहिए। समाज, कानून और इनका हौसला अगर मिल जाएगा तो इन्हें मुख्यधारा में आने से कोई नहीं रोक सकता।
सवाल-आपको लगता है कि स्त्री आज इतनी सशक्त है कि अपनी कोख के लिए लड़ पाएगी ?
जवाब-हां, अपनी बेटियों के लिए भी हम स्त्रियां खूब लड़ी हैं। और यह समझने वाली बात है कि औरत की कोख को नकार कर पितृसत्ता अपना वर्चस्व दिखाने का ही स्थापित करती है। कोई विकल्प नहीं है, हमें अपने बच्चों के लिए अपनी कोख के लिए लड़ना ही होगा। विद्रोह अब जरूरी हो गया है। एक औरत ही समाज को बदल सकती है। आखिर आने वाली नई पीढ़ी से सबसे पहला और संवाद तो वही करती है।