संध्या द्विवेदी ।
तीन तलाक को चुनौती देने वाली शायरा बानो की याचिका ने एक बार फिर ‘समान नागरिक संहिता’ पर बहस शुरू कर दी है। केंद्र सरकार ने विधि आयोग को इस विवादित मुद्दे पर सभी पक्षों से चर्चा कर जल्द से जल्द एक रिपोर्ट सौंपने को कहा है। हालांकि यह मुद्दा पहली बार चर्चा में नहीं आया है। संविधान बनने से लेकर अब तक कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग उठी है। लेकिन जितनी बार मांग उठी, उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ।
हर बार यह मुद्दा उठता था और विरोध के बाद दब जाता था। पर इस बार विधि आयोग ने सभी पक्षों को न्योता भेजकर इस पर चर्चा के लिए बुलाया है। देश के अल्पसंख्यक मंत्रालय के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दृढ़ता के साथ कहा, ‘इस बार हम अंजाम तक पहुंचेंगे। तकरीबन सत्तर साल से अनसुलझे इस मुद्दे को अब सुलझाने का वक्त आ गया है।’ उधर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की भौंहें तन गई हैं। सरकार के इस कदम को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताते हुए बोर्ड का बयान आया, ‘यह कदम संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। संविधान का अनुच्छेद 25 हमें धार्मिक स्वतंत्रता का हक देता है।’ यहां तक कि महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाने वाली मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी इसे धर्म में दखलंदाजी करार देते हुए मुस्लिमों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बताया है। मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘हमें यूनिफार्म सिविल कोड नहीं बल्कि कुरान की रोशनी में हमारे पर्सनल लॉ में रिफार्म चाहिए।’ मुस्लिमों की सामाजिक आर्थिक स्थिति की जमीनी रिपोर्ट सौंपने वाले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज राजिंदर सच्चर भी सरकार के इस कदम को राजनीतिक और सांप्रदायिक भावना से प्रेरित मानते हैं। दूसरी तरफ इसके समर्थक संविधान के अनुच्छेद-44 की दुहाई देकर समान नागरिक संहिता बनाकर लागू करने को संकल्पित दिख रहे हैं। संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व (जो अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक हैं) के अनुच्छेद 44 में लिखा है कि ‘केंद्र को भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करना चाहिए।’
सवाल उठता है कि जब संविधान में इस बात के निर्देश दिए गए हैं तो संविधान बनाने वाली टीम ने इसे उस वक्त ही क्यों नहीं लागू किया। आखिर डॉ. भीमराव आंबेडकर के इस मसले पर क्या विचार थे? आंबेडकर ने साफ कहा था, ‘पर्सनल लॉ में सुधार लाए बगैर देश को सामाजिक बदलाव के युग में नहीं ले जाया जा सकता। रूढ़िवादी समाज में धर्म भले जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्राधिकार को घटाये बगैर उस असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता, जिसे नागरिकों का मूल अधिकार बनाया गया है। इसीलिए देश का यह दायित्व होना चाहिए कि वह समान नागरिक संहिता को अपनाए।’
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इसके हिमायती थे। संविधान निर्माण के समय समान नागरिक संहिता की हिमायत करने पर उन्हें अपनी ही पार्टी का विरोध सहना पड़ा था। जबकि दूसरी तरफ देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और बल्लभभाई पटेल जैसे दिग्गज नेताओं ने इसका पुरजोर विरोध किया। सड़क से लेकर संसद तक पैदा हुए विरोध ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। लेकिन संविधान में अनुच्छेद 44 दर्ज रहा। यह बात सच है कि तब से अब तक समान नागरिक संहिता पर सियासत तो खूब हुई, लेकिन इस पर खुली बहस कराने की हिम्मत किसी सरकार की नहीं हुई। एक बड़े तबके का वोट छिटकने के डर से इस पर जमीनी बहस कभी नहीं हुई। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप विधि आयोग में इस मसले पर खुली बहस होने को एक बड़ा और मजबूत कदम मानते हैं। सुभाष कश्यप यूनिफार्म सिविल कोड को महत्वपूर्ण मानते हुए कहते हैं, ‘समान नागरिक संहिता का फायदा यह होगा कि देश के सभी नागरिक केवल एक कानून का पालन करेंगे, जेंडर जस्टिस इस समान नागरिक संहिता की मूल आत्मा है। यह कानून के समक्ष बराबरी लाने से भी ज्यादा कानून के समक्ष समान सुरक्षा देने जैसा होगा।’ हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि समान नागरिक संहिता की राह आसान नहीं है।
पक्ष-विपक्ष के तर्क
भारत में विभिन्न धर्में के लोग रहते हैं। यहां हर समुदाय के अपने ‘पर्सनल लॉ’ हैं। क्रिश्चियन मैरिज एक्ट-1872, इंडियन डिवोर्स एक्ट-1869, भारतीय उत्तराधिकार नियम 1925। इसी तरह से यहूदियों का मैरिज एक्ट अलग है, पारसियों का पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट-1936, उत्तराधिकार कानून या संपत्ति पर अधिकार कानून भी अलग हैं। बिल्कुल ऐसे ही मुस्लिमों का पर्सनल लॉ है। हालांकि सभी कानूनों में समय-समय पर सुधार होते रहे, मगर मुस्लिमों का शरीयत लॉ करीब सौ सालों से जस का तस है। यही वजह है कि समान नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा विरोध मुस्लिम समुदाय द्वारा किया जाता है।
विरोध का आधार
देश में सभी समुदाय के लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले अनुच्छेद-25 को आधार बनाकर समान नागरिक संहिता के विरोध में पहला तर्क दिया जाता है। विरोध करने वालों का मानना है कि समान नागरिक संहिता आने से संविधान में मिले इस अधिकार का हनन होगा। यह तर्क भ्रामक लगता है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता को बल देने वाले धर्म से जुड़े मसलों को इस नए कानून से दूर रखा जाएगा। दूसरा आधार समुदाय विशेष से जुड़ा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ का आधार बनी धार्मिक किताब कुरान का हवाला देते हुए तर्क दिया जाता है कि मुस्लिम समुदाय में इस पवित्र किताब को दरकिनार नहीं किया जा सकता। जबकि टर्की, इजिप्ट, इंडोनेशिया, मलेशिया समेत कई दूसरे मुस्लिम देशों में शरीयत लॉ में कई बड़े सुधार किए जा चुके हैं। ऐसे में ये दोनों तर्क बेबुनियाद साबित होते हैं। यूरोपीय देशों में भी समान नागरिक संहिता लागू है। किसी भी धर्म का व्यक्ति वहां जाता है तो उसे वहां के कानून का पालन करना पड़ता है। हिंदू कानून का कोडिफिकेशन एक बड़ा कदम था, लेकिन संवेदनशील और सियासी मसला होने के कारण मुस्लिम कानून के कोडिफिकेशन और समान नागरिक संहिता की तरफ संविधान निर्माताओं का कदम नहीं बढ़ सका। हालांकि प्रगतिवादी मुस्लिम संगठन मुस्लिम पर्सनल लॉ के कोडिफिकेशन की बात करते हैं, मगर ‘समान नागरिक संहिता’ का एकजुट विरोध किया जा रहा है।
समर्थन का आधार
संविधान के अनुच्छेद-44 और कानून के सामने धर्म या लिंग (जेंडर) के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए इसे सबसे बड़े कानूनी हाथियार के तौर पर देखा जा रहा है। आधुनिक भारत में कॉमन सिविल कोड की जरूरत सबसे पहले 1985 में चर्चित रहे शाह बानो केस के दौरान महसूस की गई। केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जज वाई. वी. चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘कॉमन सिविल कोड राष्ट्रीय अखंडता को बनाए रखने और विभिन्न मतों के बीच फैले मतभेदों को खत्म कर कानून के सामने किसी भी तरह की गैरबराबरी को खत्म करने के लिए जरूरी है।’ राजनीति के कारण न्याय से वंचित रही शाहबानो के केस से लेकर अब तक सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों के निपटारे के वक्त सिविल कोड की जरूरत को दोहराया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा, जरूरी है समान नागरिक संहिता
मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामला- इंदौर की रहने वाली 62 वर्षीय शाह बानो को उनके पति मो. अहमद ने 1972 में तलाक देने के बाद उन्हें केवल मामूली सी मेहर की रकम वापिस की थी। शाह बानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई तो कोर्ट ने सेक्शन 125 के तहत फैसला सुनाते हुए मोहम्मद खान को शाह बानो को खाना खर्चा देने का फैसला सुनाया। लेकिन कट्टर मुस्लिम संगठनों ने इसे शरीयत कानून में दखल मानते हुए तत्कालीन सरकार पर दबाव डाला। मुस्लिम तुष्टिकरण करते हुए तत्कालीन राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने अफरा तफरी में नया ‘राइट टू प्रोटेक्शन आॅन डिवोर्स-1986’ कानून बनाकर फैसला बदल दिया। मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ ने समान नागरिक संहिता की जरूरत बताते हुए कहा था, ‘समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय अखंडता और विरोधाभासी विचारधाराओं के कारण कानून के समक्ष उपजे भेदभाव को खत्म करने में मददगार साबित होगा।’ उस समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि समान नागरिक संहिता के लागू होने से कोई भी सरकार या संसद के काम में किसी भी तरह से बाधा नहीं पहुंचा पाएगा।
इस मामले के कुछ दिनों बाद ही आया जार्डन डिंगदेह बनाम एस चोपड़ा (1985) मामला- इसमें भी सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता को जरूरी बताया। क्रिश्चियन मैरिज एक्ट (1972) के तहत क्रिश्चियन महिला और सिख पुरुष ने शादी की। विवाह के कुछ ही महीनों बाद पति पत्नी के बीच विवाद हुआ। बात तलाक तक पहुंची। ऐसे में क्रिश्चयन पर्सनल लॉ आडेÞ आया। तर्क दिया गया कि दो धर्मांे के लोग इसमें शामिल हैं, फिर एक धर्म के आधार पर कैसे निर्णय हो सकता है? एक बार फिर समुदाय विशेष के धर्म के आधार पर बने कानून पर सवाल उठे और सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को लागू करने की जरूरत पर जोर डाला।
दस साल बाद 1995 में सरला मुद्गल बनाम यूनियन आॅफ इंडिया एंड अदर्स- मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की जरूरत पर जोर दिया था। इस मामले में सरला मुद्गल ने अपनी संस्था कल्याणी के जरिए याचिका दाखिल की थी। साथ ही दूसरी कई और महिलाओं ने भी दूसरी शादी करने की मंशा से पुरुषों द्वारा धर्म परिवर्तन के मामलों को चुनौती दी थी। पहली याचिकाकर्ता सरला मुद्गल थीं। दूसरी याचिकाकर्ता थीं मीना माथुर। मीना माथुर के पति जितेंद्र माथुर ने बिना मीना को तलाक दिए इस्लाम धर्म स्वीकार कर एक मुस्लिम औरत से शादी कर ली थी। इसी तरह से 1992 में गीता रानी के पति प्रदीप कुमार ने भी इस्लाम कुबूल कर बिना उन्हें तलाक दिए दूसरी शादी कर ली थी। इसी तरह से तीसरी याचिका सुश्मिता घोष ने डाली थी। सुश्मिता के पति ने भी उन्हें तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर ली थी। इन सभी याचिकाओं में ऐसे मामलों में रोक लगाने की गुहार सुप्रीम कोर्ट से की गई थी। इन मामलों में न्यायाधीश कुलदीप सिंह की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत फैसला सुनाते हुए पहली पत्नी को तलाक दिए बगैर दूसरे विवाह को अवैध करार दिया था। जस्टिस कुलदीप सिंह ने सरकार से गुजारिश की थी कि इस तरह के मामलों पर रोक लगाने के लिए अनुच्छेद 44 पर विचार करना चाहिए। एडवोकेट लिली थॉमस ने साल 2000 में दूसरी शादी के मकसद से इस्लाम कुबूल करने को गैर कानूनी करार देने और हिंदू मैरिज एक्ट में ऐसा संशोधन करने के लिए याचिका डाली थी, जिससे कि इस्लाम को कुबूल कर लोग हिंदू धर्म के अनुसार ब्याहता को धोखा न दे सकें।
2003 में उत्तराधिकार के मामले जॉन वेल्लामाट्टन एंड एनदर बनाम यूनियन आॅफ इंडिया मामला आया- इस मामले में भी समान नागरिक संहिता की जरूरत पर जोर दिया गया था। हालांकि जस्टिस सहाय ने सरला मुद्गल मामले और पन्नालाल बंशीलाल पित्ती एंड अदर्स बनाम स्टेट आॅफ आंध्र प्रदेश (1996) मामले में यह भी कहा था, ‘यद्यपि समान नागरिक संहिता की जरूरत है फिर भी इसे बिना सर्वसम्मति के थोपा नहीं जा सकता।’
संविधान सभा में हुई थी लंबी बहस
संविधान बनने से पहले संविधान सभा के सदस्यों के बीच भी समान नागरिक संहिता को लेकर लंबी बहस हुई थी। मुस्लिम प्रतिनिधियों ने समान नागरिक संहिता का पुरजोर विरोध करते हुए तर्क दिया कि इससे मुस्लिम पर्सनल लॉ पर आंच आएगी। उनका कहना था कि संविधान ने ही हमें धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। एक मुस्लिम सदस्य ने यह तक कहा, ‘समान नागरिक संहिता एक तरह से मुस्लिमों के लिए दमनकारी सिद्ध होगी।’ दूसरी तरफ समान नागरिक संहिता के समर्थकों ने मुस्लिम सदस्यों से सवाल पूछा कि अगर शरीयत लॉ में बदलाव इस्लाम के खिलाफ है तो ब्रिटिशों द्वारा बनाई गई भारतीय दंड संहिता-1860 को क्यों कुबूल किया? उस पर क्यों नहीं विरोध दर्ज कराया? यहां तक कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भी इसे बदलने के स्वर कहीं से नहीं सुनाई दिए। जबकि शरीयत में इससे पहले सभी आपराधिक और नागरिक मामले शामिल थे। समर्थक सदस्यों ने इस तर्क से यह भी सिद्ध करना चाहा कि धार्मिक आधार पर अलग अलग कानून बनाना अंग्रेजों की एक चाल थी भारत के भीतर पर्सनल लॉ नाम से धार्मिक आधार की दीवारें खींचकर समाज को बांटने की। मुस्लिम पर्सनल लॉ-1937 हो या दूसरे धर्मांे से संबंधित पर्सनल लॉ, अंग्रेजी हुकूमत जानबूझकर यह दरार डाल गई थी। वे चाहते तो भारतीय दंड संहिता की तरह एक समान कानून पूरे भारत के लिए बना सकते थे। लेकिन नहीं बनाया, क्योंकि उनका मंसूबा भारत को भीतर से बांटकर रखने का था। संविधान का प्रारूप तैयार कर रही समिति के सदस्य के.एम.मुंशी ने समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा था, ‘पर्सनल लॉ धर्म का हिस्सा है, यह दिमागी उपज केवल ब्रिटिश हुकूमत की है। हमें अंग्रेजों द्वारा बनाए गए माइंड सेट से बाहर आना चाहिए।’ इतना ही नहीं उन्होंने पहले मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी का उदाहरण देते हुए कहा- ‘अलाउद्दीन ने दिल्ली में अपनी सल्तनत स्थापित की। उसने कई ऐसे सुधारवादी कदम उठाए जो शरीयत के मुताबिक नहीं थे। जब एक काजी ने अलाउद्दीन से कहा कि आप शरीयत के खिलाफ कदम उठा रहे हैं तो उसने जवाब दिया- ‘मैं अज्ञानी पुरुष हूं। मैं इस देश में इसका भला चाहते हुए शासन कर रहा हूं। मैं आश्वस्त हूं कि अल्लाह मेरे अज्ञान और मेरे भले मंसूबों के चलते मुझे माफ कर देगा।’ एक मुस्लिम शासक जब भलाई के लिए ऐसा कर सकता है तो देश की भलाई के लिए सुधारवादी रवैया अपनाते हुए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं अपनाई जा सकती?’
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर समान नागरिक संहिता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने संविधान सभा में कहा, ‘मैं चकित हूं कि समान नागरिक संहिता का इतना विरोध क्यों हो रहा है? यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है कि क्या भारत जैसे देश के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना संभव है? क्या ऐसा करना उचित होगा? तो मैं बताना चाहता हूं कि देश में पहले से ही यूनिफार्म कोड आॅफ लॉज (समान विधि संहिता) है। भारतीय दंड संहिता पूरे देश में लागू है। संपत्ति हस्तांतरण कानून है जो संपत्ति से जुड़े मसलों का नियमन करता है, भी पूरे देश में लागू है। ऐसे और भी कई कानून हैं जो पूरे देश में समान रूप से लागू हैं। केवल विवाह और उत्तराधिकार जैसे कुछ क्षेत्र हैं जहां दीवानी कानून अपनी पकड़ नहीं बना पाए। बस यही एक छोटा सा हिस्सा है जहां समान कानून नहीं हैं। मोटे तौर पर देखें तो समान नागरिक संहिता इन विषयों को छोड़कर सभी जगह लागू है। इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि यह सवाल ही फिजूल है कि क्या भारत जैसे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना उचित होगा? मैं उन लोगों से कहना चाहूंगा जो यह कह रहे हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ अपरिवर्तनीय है और पूरे देश में एक समान है। मैं ऐसा तर्क देने वाले अपने दोस्तों को याद दिलाना चाहूंगा कि 1935 तक उत्तर—पश्चिम सीमांत प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था। पहले उत्तराधिकार और अन्य मामलों में वह हिंदू कानून का पालन करता था। उत्तर—पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों पर प्रभावी हिंदू कानून को रद्द करके उन पर शरीयत कानून लागू करने के लिए सन् 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में उतरना पड़ा था। मेरे दोस्त भूल गए हैं कि उत्तर—पश्चिमी सीमांत प्रांत से अलग, बाकी भारत के विभिन्न भागों, जैसे संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और मुंबई में भी सन 1937 तक उत्तराधिकार के मामले में मुसलमान एक हद तक हिंदू कानून से शासित थे। 1937 में विधानमंडल को हस्तक्षेप करके एक कानून पास करना पड़ा था जो शरीयत कानून को शेष भारत में लागू करता था। ऐसे और भी उदाहरण हैं जिनसे साफ होता है कि यह तर्क फिजूल है कि इस्लामिक कानून एक अपरिवर्तनीय कानून है जिसका वे प्राचीन काल से पालन करते आ रहे हैं। अपने मूल स्वरूप में वह कानून कुछ भागों में लागू नहीं था और केवल दस साल पहले उसे लागू किया गया है। इसलिए अगर यह जरूरी समझा गया कि उनके धर्म से निरपेक्ष, सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता तैयार करने के उद्देश्य से अनुच्छेद 35 के अनुसरण में बनाई जाने वाली नागरिक संहिता में हिंदू कानून के कुछ हिस्से शामिल कर लिए जाएं तो इसके पीछे यह मंशा बिल्कुल भी नहीं है कि हम हिंदू कानून को इसमें शामिल करना चाहते हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि हिंदू कानून के ये हिस्से सबसे उपयुक्त पाए गए थे। इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि मुसलमानों के लिए यह कहने का विकल्प खुला नहीं है कि नई समान नागरिक संहिता के निमार्ताओं ने मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को गहरी चोट पहुंचाई है। हालांकि मैं यह भी आश्वासन देता हूं कि इसे जबरदस्ती लागू नहीं किया जाएगा। शुरुआत में हम उन लोगों पर इसे लागू करेंगे जो स्वेच्छा से इसका पालन करना चाहेंगे। नब्ज टटोलने के बाद ही इसे पूरी तरह लागू किया जाएगा।’
जब संविधान सभा की मौलिक अधिकार कमेटी ने समान नागरिक संहिता को नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल करने का फैसला किया तो संविधान सभा के तीन सदस्यों मीनू मसानी, श्रीमती हंसा मेहता और राजकुमारी अमृतकौर ने समान नागरिक संहिता को मूल अधिकारों की श्रेणी में रखने की जोरदार वकालत की थी। तीनों ने एक संयुक्त बयान में कहा, ‘एक बात जिसने भारत को राष्ट्रत्व की ओर अग्रसर होने से रोक रखा है वह यह है कि हमारे यहां धर्म- आधारित वैयक्तिक कानूनों की भरमार है, जिन्होंने राष्ट्र को विभिन्न रंगों अथवा रूपों में अलग-अलग कर रखा है। जिससे परस्पर आदान-प्रदान संभव नहीं है। हमारा मत है कि भारत के लोगों को संविधान लागू होने के पांच या दस वर्ष की अवधि के अंदर एक समान नागरिक संहिता की गारंटी दी जानी चाहिए।’ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मजबूरी कहें या राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी मगर संविधान सभा में पर्याप्त समर्थन के बावजूद समान नागरिक संहिता को लागू नहीं किया जा सका। एक तरफ हिंदू कोड बिल राजेंद्र प्रसाद और बल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेताओं के विरोध के बावजूद पास हुआ। वहीं दूसरी तरफ मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर और के.एम. मुंशी के समर्थन के बाद भी समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो सकी।
मुस्लिम विद्वान भी करते हैं शरीयत में संशोधन की मांग
कई मुस्लिम विद्वानों और विधिवेत्ताओं ने शरीयत कानून के प्रचलित रूप का विरोध करते हुए इसमें संशोधन की मांग की है। डॉ. मोहम्मद इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- ‘द रिकन्सट्रक्शन आॅफ रिलीजस थॉट इन इस्लाम’ में लिखा है कि ‘कुरान और शरिया की इन व्याख्याओं को अटल नहीं माना जा सकता। अफगानिस्तान व सीमाप्रान्त के पठान शरिया को कम और पश्तूनवाली को अधिक अनुकरणीय मानते हैं। मेमन, वोहरे, खोजा तथा मेव मुसलमान इस्लाम पूर्व अपने कानूनों के तहत अपनी निजी जिंदगी चलाते रहे हैं।’ मशहूर लेखक डॉ. रफीक जकारिया ने तो साफ कहा है,‘इस्लाम में बहुपत्नीवाद एक अपवाद है, कोई नियम नहीं। कुरान के रचयिता ने स्पष्ट लिखा है कि एक मुसलमान चार पत्नियां रख सकता है, लेकिन उसी स्थिति में जब उन चारों से एक समान व्यवहार करे, उन्हें एक समान प्यार दे। लेकिन कुरान की अगली ही आयत में लिखा गया है- लेकिन तुम ऐसा कभी नहीं कर पाओगे।’
प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान डॉ. तारिक महमूद ने अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ में निजी कानून पर समान नागरिक कानून को वरीयता देते हुए लिखा है, ‘पंथनिरपेक्षता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राज्य को धर्म आधारित कानूनों के निर्माण पर रोक लगा देनी चाहिए और भारत के समस्त नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनानी चाहिए।’ इसी प्रकार इस्लाम के अन्य विद्वानों व सुधारकों जैसे मौलवी इम्तियाज अली, मौलवी चिराग अली तथा न्यायमूर्ति आमिर अली ने मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक घोषणा और बहुविवाह आदि कुप्रथाओं को बदलने का समर्थन किया है। इन विद्वानों का दावा है कि तीन बार मौखिक तलाक की घोषणा कुरान पर आधारित नहीं है, बल्कि कुरान की आयत- 4:35 में तो परस्पर सहमति से ही तलाक की बात कही गई है।