भाजपा और शिवसेना : मजबूरी है गठबंधन

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लोकसभा चुनाव की सरगर्मी तेज होते ही शिवसेना की हेकड़ी कम हो गई है. पिछले चार सालों से भाजपा के साथ बिगड़े संबंध फिर से सुधारने के लिए उसने अपने सुर बदल लिए हैं. दोनों दल गठबंधन की डोर में बंधने को तैयार हैं. गठबंधनों के इस दौर में भाजपा की मजबूरी केंद्र की सत्ता बचाए रखने की है, तो शिवसेना की मजबूरी राज्य में अपना अस्तित्व बचाए रखने की.

bjp or shivsenaभारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच गठबंधन की खिचड़ी पकने लगी है. कड़वाहट के बावजूद शिवसेना नेताओं के सुर बदल गए हैं. एनडीए का हिस्सा होने के बावजूद पिछले करीब चार सालों से मोदी सरकार की आलोचना और समय-समय पर विरोधियों की सराहना करने वाली शिवसेना को फिर से भाजपा की जरूरत महसूस होने लगी है. केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने का मौका ढूंढने वाले शिवसेना नेता अब भाजपा के साथ गठबंधन के रास्तों पर चर्चा कर रहे हैं. शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे अपने विधायकों के साथ बैठक कर गठबंधन के लिए आधार तलाश रहे हैं, ताकि अपने पुराने बयानों से मुकरने के लिए वे एक सम्मानजनक रास्ता निकाल सकें. पिछले दिनों शिवसेना ने इस बात के स्पष्ट संकेत दिए कि वह लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के साथ गठबंधन करने को तैयार है, लेकिन साथ ही अपनी अकड़ बरकरार रखने का दिखावा करने के लिए उसने एक शर्त भी जोड़ दी है. शिवसेना ने महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका निभाने की बात कहकर यह जताने की कोशिश की है कि राज्य में उसकी स्थिति भाजपा से अधिक मजबूत है.  लेकिन, जिस तरह महाराष्ट्र की सियासत बदल रही है, उसे स्वीकार करने को शिवसेना तैयार नहीं है.

यूं मिली भाजपा को मजबूती

दरअसल, साल 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान ही भाजपा ने दिखा दिया था कि अब महाराष्ट्र में वह शिवसेना के पीछे नहीं चलने वाली. पिछले विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने हमेशा की तरह भाजपा से अधिक सीटों की मांग की थी, लेकिन लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा को राज्य में अपना आधार बढऩे का संकेत मिल गया था. भाजपा ने लोकसभा की 24 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 23 पर उसे जीत मिली थी. जबकि शिवसेना ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 18 सीटें उसे मिली थीं. इस चुनाव में भाजपा को 27, जबकि शिवसेना को 20 प्रतिशत वोट मिले थे. लोकसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने उसी साल हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के समय शिवसेना को बड़ा भाई मानने से इंकार कर दिया था, जो शिवसेना को मंजूर नहीं था. नतीजतन, दोनों के बीच पिछले 25 सालों से चला आ रहा गठबंधन टूट गया. दोनों ने अलग अलग चुनाव लड़े, लेकिन भाजपा ने कुछ छोटे दलों के साथ राज्य में गठबंधन किया. भाजपा ने राज्य विधानसभा की 288 में से 260 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे और 122 सीटों पर जीत दर्ज की. वहीं शिवसेना ने 287 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन वह केवल 63 सीटें ही जीत सकी.

कमजोर नहीं है शिवसेना

शिवसेना का आधार भी बहुत कमजोर नहीं माना जा सकता है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद उसे 20 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं विधानसभा के लिए अकेले चुनाव लडऩे के बाद भी उसे 19 प्रतिशत वोट मिले. पश्चिमी महाराष्ट्र की 70 सीटों में से भाजपा को 24, तो शिवसेना को केवल 13 सीटें मिली थीं. विदर्भ में भाजपा का प्रदर्शन बेहतरीन रहा था. वहां की 62 सीटों में से 44 सीटों पर भाजपा ने कब्जा कर लिया था, जबकि शिवसेना को केवल चार सीटें मिल पाई थीं. यही कारण है कि उद्धव ठाकरे ने विदर्भ क्षेत्र के कई दौरे किए और वहां अपनी स्थिति मजबूर करने का प्रयास किया. मराठवाड़ा में शिवसेना का प्रदर्शन थोड़ा ठीक रहा था, लेकिन वहां भी उसे भाजपा से कम सीटें मिली थीं. क्षेत्र की 46 सीटों में से भाजपा को 15, जबकि शिवसेना को 11 सीटें मिली थीं. यहां तक कि मुंबई में भी भाजपा ने शिवसेना से बड़े भाई की भूमिका छीन ली थी. मुंबई की 36 विधानसभा सीटों में से भाजपा को 15 और शिवसेना को 14 सीटें मिली थीं. इस तरह विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली बढ़त के बाद शिवसेना को अपनी जमीन खिसकती नजर आई और उसने भाजपा पर हमले शुरू कर दिए. हालांकि, सरकार में रहने की मजबूरी के कारण उसे भाजपा का समर्थन करना पड़ा, लेकिन सालों तक महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका निभाने के बाद अचानक छोटा भाई बनना उसे स्वीकार नहीं था.

बदल गए हालात

हाल में बदली परिस्थितियों पर नजर डालें, तो दोनों ही दलों के लिए लोकसभा चुनाव में गठबंधन करना एक मजबूरी है. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के समय भाजपा के पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं था. पहले से कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार थी. अगर भाजपा को वहां हार का सामना भी करना पड़ता, तो केंद्र में कोई बड़ी मुश्किल नहीं होती. दूसरी बात यह है कि उस समय पूरे देश में भाजपा की एक लहर सी चल रही थी और कांग्रेस के खिलाफ लोगों में गुस्सा था. ऐसे में विधानसभा चुनाव के दौरान शिवसेना की शर्तें मानना भाजपा की मजबूरी नहीं थी. यही कारण है कि भाजपा ने जोखिम उठाया, जिसे एक फायदा कांग्रेस एवं एनसीपी ने भी करा दिया. इन दोनों दलों के बीच भी गठबंधन टूट गया. कांग्रेस ने 287 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, तो एनसीपी ने 278 सीटों पर. दोनों दलों के अलग-अलग चुनाव लडऩे से उनके वोटों का बिखराव हुआ, जिसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ. इस चुनाव में कांग्रेस को 18 और एनसीपी को 17 प्रतिशत वोट मिले थे यानी एनसीपी और कांग्रेस को कुल 35 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि भाजपा को 27 प्रतिशत.

अब स्थितियां बदल गई हैं. पांच सालों तक केंद्र में सत्ता में रहने के बावजूद अब 2014 की तरह मोदी लहर नहीं रही. साथ ही पिछले चार सालों से महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार है और वहां भी किसान, मराठा एवं दलित आंदोलनों के चलते उसे थोड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. इसके साथ-साथ पूरे देश में भाजपा विरोधी राजनीतिक दल गठबंधन बना रहे हैं. महाराष्ट्र में भी एनसीपी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो गया है. ऐसे में, भाजपा और शिवसेना के लिए अलग-अलग चुनाव लडऩा भारी पड़ सकता है. उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले राज्य को भाजपा अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती है. इसलिए शिवसेना द्वारा तमाम आलोचनाओं के बावजूद उसने कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. अमित शाह ने भी विपक्ष को हराने के लिए समान विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर आने की बार-बार अपील की है. हालांकि, भाजपा भी शिवसेना की तरह बार-बार अकेले चुनाव में उतरने के लिए तैयार रहने की बात कहती रही है, लेकिन साथ ही उसने गठबंधन की संभावनाओं को भी दरकिनार नहीं किया.

दूसरी ओर शिवसेना की मजबूरी भी कमोबेश भाजपा की तरह है. महाराष्ट्र से बाहर उसका कोई आधार नहीं है. उद्धव ठाकरे ने अयोध्या जाकर और राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा-संघ की आलोचना करके खुद को हिंदुत्व का पैरोकार साबित करने का प्रयास किया, लेकिन महाराष्ट्र के बाहर उसका कोई बड़ा आधार बन नहीं पाया है. हिंदुत्व के एजेंडे पर काम करने वाली शिवसेना के पास भाजपा के अलावा किसी अन्य दल के साथ गठबंधन करने का विकल्प नहीं है. कांग्रेस और एनसीपी के साथ उसका गठबंधन हो नहीं सकता. कांग्रेस एक राज्य के लिए पूरे देश में फैले अपने वोटों का आधार कमजोर नहीं कर सकती, क्योंकि हिंदुत्व के मामले में शिवसेना की नीति और आक्रामकता भाजपा से अलग नहीं है. अपने संस्थापक बाल ठाकरे के समय तो शिवसेना का सबसे बड़ा एजेंडा हिंदुत्व और मराठी मानुस ही रहा. बाल ठाकरे की छवि और उनकी नेतृत्व क्षमता के कारण आधार के साथ-साथ शिवसेना की हैसियत भी बड़ी थी. लेकिन, उद्धव ठाकरे में न तो वैसी नेतृत्व क्षमता है और न करिश्माई व्यक्तित्व, जिसके दम पर वह महाराष्ट्र में बड़ा आधार बना सकें. राज ठाकरे के अलग होने और पार्टी बनाने के बाद तो मुंबई में भी शिवसेना का आधार बंट गया है. राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भले ही सीटें नहीं जीत पाती है, लेकिन हर चुनाव में प्रत्याशी उतार कर वोट तो काटती ही है. ऐसे में शिवसेना के पास भाजपा से गठबंधन करने या फिर चुनाव हारने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं है. इसलिए जितनी मजबूरी भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने के लिए महाराष्ट्र में अच्छा प्रदर्शन करने की है, उससे कम मजबूरी शिवसेना की नहीं है. इसलिए मजबूरी वाले इस गठबंधन का होना तो लगभग तय है. दोनों ही दलों को अपनी जीत के लिए वोटों का बिखराव रोकना जरूरी है, जो बिना गठबंधन संभव नहीं है. कांग्रेस और एनसीपी के बीच गठबंधन होने के बाद यह मजबूरी और भी बड़ी हो गई है. अब देखना यह है कि कौन किसके सामने घुटने टेकता है. शिवसेना ने तो लगभग मान लिया है कि केंद्र में भाजपा बड़े भाई की भूमिका निभाए और राज्य में उसे बड़ा भाई बनने दे, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में दोनों ही जगह भाजपा बड़े भाई की भूमिका निभा रही है. हालांकि, जिस तरह भाजपा ने बिहार में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन में जदयू को तरजीह दी है, उससे इस बात का संकेत जरूर मिलता है कि इस बार चुनाव जीतने के लिए वह एक कदम पीछे हटने से परहेज नहीं करेगी और शिवसेना भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन की शर्तें मानने को मजबूर होगी.

ठाकरे स्मारक से कम हुई कड़वाहट

भाजपा नीत महाराष्ट्र सरकार ने बाल ठाकरे के लिए स्मारक बनाने की पहल करके शिवसेना की कड़वाहट कम करने की कोशिश की. महाराष्ट्र कैबिनेट ने इसके लिए 100 करोड़ रुपये मंजूर किए और अगले ही दिन बीएमसी ने इसके लिए बने ट्रस्ट को जमीन भी सौंप दी. भूमि पूजन के मौके पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस एवं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे एक मंच पर आए और दोनों के बीच चाय के साथ चर्चा भी हुई. भाजपा की इस पहल से शिवसेना और उसके बीच गठबंधन की संभावनाएं और बढ़ गई हैं. भाजपा ने बाल ठाकरे को किसी दल विशेष का नहीं, बल्कि पूरे महाराष्ट्र का नेता बताकर शिव सैनिकों को खुश कर दिया है, जिसके चलते उद्धव ठाकरे को भी गठबंधन के लिए सोचने का एक नया आधार मिल गया है.

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