गोविंद सिंह।
कोई भी समाज अनंत काल तक अनिश्चित परिस्थितियों में नहीं रह सकता। इसलिए जब कश्मीर में साल-दर साल हिंसा के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकला तो लोगों ने भी हालात से समझौता करना शुरू कर दिया। यह बात सच है कि पढ़े-लिखे युवाओं का इस्लामीकरण और पृथक्करण हुआ है, वहीं यह भी सच है कि आम जनता आतंकवाद से ऊब भी रही है। हाल के वर्षों में यदि फौज को कामयाबी मिली है तो उसके पीछे जनता का सहयोग भी है। एसपीओ यानी विशेष पुलिस अधिकारी इसी सफलता की महत्वपूर्ण कड़ी हैं, जिन्होंने कश्मीर के हालात को सामान्य करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए अब इन पर भी पाक-परस्त आतंकी संगठनों की गाज गिर रही है।
पिछले 20 सितंबर को हिजबुल मुजाहिदीन नामक पृथकतावादी संगठन ने यह चेतावनी दी कि लोग एसपीओ की नौकरी चार दिन के भीतर छोड़ दें, वरना वे घर नहीं लौट पाएंगे। उनके साथ ही उनके घरवालों को भी मार दिया जाएगा। घरवालों को भी चेतावनी दी कि वे अपने बच्चों को ऐसी नौकरियों से हटा लें। हिजबुल ने जम्मू-कश्मीर वासियों से अन्य सुरक्षा बलों और फौज में भी न जाने की अपील की। हिजबुल के कमांडर रियाज नायकू ने कहा भी कि एसपीओ के लोग घर बैठे-बैठे पृथकतावादियों की गतिविधियों की सूचना भारतीय खुफिया एजेंसियों को देते हैं। साथ ही इन लोगों को बाद में पुलिस में भर्ती कर लिया जाता है। यानी ये लोग सीधे-सीधे पुलिस विभाग में न होते हुए भी मुखबिर का काम करते हैं।
इस घटना के बाद आतंकवादियों ने शोपियां में तीन एसपीओ को अपहरण करके मार डाला। उन्हें बिलकुल भी समय नहीं दिया गया। निश्चय ही इसका तत्काल असर अन्य एसपीओ पर भी पड़ा। बताया गया कि छह एसपीओ ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। हालांकि अफवाह यह भी थी कि 33 एसपीओ ने मस्जिद में जाकर इस्तीफा दिया है, लेकिन गृह मंत्रालय की तरफ से इसका तुरंत खंडन आ गया। दरअसल कश्मीर में पाक-परस्त आतंकियों का अफवाह तंत्र इतना मजबूत है कि वह तत्काल घर-घर पहुंच जाता है। इसके साथ ही सुरक्षा बलों ने आतंकियों की धर-पकड़ शुरू कर दी और बड़ी तेजी से आतंकवादी मारे भी जा रहे हैं। इसलिए 22 सितंबर को हिजबुल ने दक्षिण कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियान में लगे 24 पुलिसकर्मियों को एक बार फिर इसी तरह की चेतावनी दे डाली। ये वही संगठन था, जिसने तीन एसपीओ की हत्या की थी।
यानी सुरक्षा बलों और खास कर के एसपीओ के खिलाफ आतंकी संगठनों की धमकी का बहुत कम असर दिखाई दे रहा है। चेतावनी के चार दिन बीत जाने के बावजूद कोई ऐसी अफरा-तफरी नहीं दिखाई दे रही है। पुलिस और एसपीओ अपनी जगह पर डटे हुए हैं। आतंकवादियों ने इस तरह के फार्मूले पहले भी अपनाए हैं। पिछले महीने भी 14 पुलिस-परिजनों का अपहरण किया गया था, लेकिन अगले ही दिन छोड़ भी दिया। पिछले साल उन्होंने कश्मीरी युवाओं को फौज में भर्ती न होने का अल्टीमेटम दिया। उन्होंने इक्का-दुक्का फौजियों को मारा भी लेकिन इसका उल्टा असर हुआ। लोगों में पृथकतावादियों के बारे में उल्टा संदेश गया। शहीद हुए सुरक्षा कर्मियों के जनाजों में आई भीड़ को देखकर जनता के आक्रोश का पता चलता है। दूसरी तरफ फौज की भर्ती में भी कश्मीरी युवाओं का तांता लगा रहा और अब एसपीओ की भर्ती में भी जबर्दस्त भीड़ लगी हुई है।
जहां तक एसपीओ का सवाल है, वे पुलिस की मदद के लिए होते हैं। उनके पास कोई खास सुविधा भी नहीं होती, न ही उनके पास हथियार होते हैं। उनका वेतन सिर्फ छह हजार रुपये मासिक है। वे संवाद सूत्र की तरह काम करते हैं। अभी तक जम्मू-कश्मीर में लगभग 23 हजार एसपीओ हैं। लेकिन सरकार ने हाल में कुछ और रिक्तियों के लिए विज्ञापन निकाला तो 35 हजार आवेदन आ गए। यानी सरकारी नौकरी के लिए यहां के लोग लालायित हैं, भले वह कितनी ही छोटी क्यों न हो। इससे पता चलता है कि एक न एक दिन आतंकवादियों के मंसूबे पस्त होंगे। कश्मीर की जनता ही इसका भी जवाब देगी।
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