कांग्रेस बताए संसद ठप करने का औचित्य

प्रदीप सिंह/जिरह

 

संसद एक बार फिर रुक ज्यादा रही है और चल कम। कांग्रेस ने जैसे तय कर लिया है कि वह संसद को चलने नहीं देगी। इस बार मामला भाजपा के किसी नेता का नहीं देश के प्रथम राजनीतिक परिवार माने जाने वाले नेहरू-गांधी परिवार का है। समस्या इतनी सी है कि यह परिवार अपने लिए विशेष कानून चाहता है पर ऐसा कहता नहीं। नेशनल हेरल्ड के मामले में भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर पटियाला हाउस कोर्ट ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित पांच लोगों को अदालत में हाजिर होने के लिए समन जारी किया था। ये लोग इस आदेश के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट गए। सोमवार सात दिसम्बर को हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को न केवल बरकरार रखा बल्कि कुछ ऐसी टिप्पणियां कीं जिससे गांधी परिवार और उसके बाकी सहयोगियों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

फैसला अदालत का है और कामकाज संसद का रुका हुआ है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का आरोप है कि यह राजनीतिक बदले की भावना से हो रहा है और इसके पीछे प्रधानमंत्री कार्यालय है। उसी के इशारे पर यह सब हो रहा है। यह बयान देते समय उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि वे जो कह रहे हैं उसका मतलब है कि अदालत प्रधानमंत्री कार्यालय या सरकार के इशारे पर काम कर रही है। कांग्रेस के लोग उत्तेजित हैं। वे संसद में इस मुद्दे पर चर्चा भी नहीं चाहते। वे यह भी नहीं बता रहे कि वास्तव में वे चाहते क्या हैं। दरअसल यह बात कांग्रेसियों की कल्पना से भी परे है कि गांधी परिवार के किसी व्यक्ति को अदालत में एक आम आरोपी की तरह पेश होना पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की सोच कांग्रेसियों तक ही सीमित हो। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि इतने साल राजनीति में रहने के बाद अदालत में पेश होना ठीक नहीं है। ऐसा तो है नहीं कि किसी राजनेता को अदालत में पेश होने का पहली बार मौका आया है। लेकिन गांधी परिवार आम नेताओं से ऊपर है। जनतांत्रिक व्यवस्था में दशकों से इस परिवार को राजपरिवार की हैसियत प्राप्त है। इसीलिए केंद्र सरकार का एक पूर्व मंत्री और कांग्रेस का वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को चप्पल पेश करना गर्व की बात समझता है। उन पर देश का कोई कानून लागू नहीं होना चाहिए, उनकी ही नहीं कांग्रेसजनों की भी इच्छा है। सरकार ऐसा नहीं कर रही है तो वह दोषी तो है ही। यह दूसरा मौका है जब इस परिवार को कानून का सामना करना पड़ा रहा है। इससे पहले जून 1975 में इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी माना था और उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया था। उसके बाद देश को इमरजेंसी का कहर झेलना पड़ा था। सोनिया गांधी आज सत्ता में नहीं हैं। कांग्रेस एक बार फिर इतिहास को दोहरा रही है और इस कानूनी मुद्दे को राजनीतिक मसला बनाना चाहती है। सोनिया गांधी इंदिरा गांधी की बहू होने की दुहाई दे रही हैं और कह रही हैं वे किसी से डरती नहीं हैं। वे यह भूल रही हैं कि यह 1975 नहीं 2015 है और वे इंदिरा गांधी नहीं हैं और सत्ता से भी बाहर हैं। वे यह भी भूल रही हैं कि इंदिरा गांधी ने भी कानूनी मुद्दे को राजनीतिक मसला बनाना चाहा था। लेकिन 19 महीने की इमरजेंसी के बावजूद राजनीतिक मोर्चे पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

दरअसल यह परिवार अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। चुनाव के बाजार में नेहरू-गांधी परिवार के सिक्के की कीमत चुनाव दर चुनाव घटती जा रही है। संसदीय जनतंत्र में नेता की हैसियत उसकी वोट दिलाने की क्षमता से आंकी जाती है। सोनिया गांधी की यह ताकत उतार पर है और राहुल गांधी इसे कभी हासिल ही नहीं कर पाए। वे केवल परिवार के नाम पर चल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कोसने से आगे किसी मुद्दे पर उनके पास कहने के लिए ज्यादा होता नहीं। कांग्रेस के बदले की राजनीति के आरोप के जवाब में भाजपा राजनीतिक पिच पर आकर लड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए लड़ाई न तो बन पा रही है और न बढ़ पा रही है। कांग्रेस की बेचैनी इसलिए भी बढ़ रही है। पार्टी अभी तक यह नहीं बता पाई है कि वह संसद क्यों नहीं चलने दे रही है। संसद के शीतकालीन सत्र का हश्र भी मानसून सत्र जैसा ही होता दिख रहा है। सरकार ने भी मान लिया है कि कांग्रेस जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक पास नहीं होने देगी। इसलिए प्रधानमंत्री ने गुरुवार को दैनिक जागरण के एक कार्यक्रम में कहा कि जीएसटी को तो छोड़िए, उसका जो होना है होगा लेकिन कांग्रेस गरीब वेतन भोगियों के बोनस का विधेयक भी पास नहीं होने दे रही। यह कांग्रेस को विकास और गरीब विरोधी के रूप में पेश करने की कोशिश है। वैसे गांधी परिवार को एक बात समझ लेनी चाहिए कि संसद सत्र चले या नहीं,  अदालत की कार्यवाही तो चलेगी ही। उनसे सवाल अदालत पूछ रही है, संसद नहीं। जवाब तो अदालत में ही देना होगा।

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