उमेश चतुर्वेदी
याद कीजिए 20 अगस्त 2014 की तारीख… केंद्र में भाजपा सरकार बने जुमा-जुमा तीन महीने ही हुए थे। इसी बीच महिला कांग्रेस ने राजीव गांधी की जयंती पर दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कार्यक्रम रखा था। उसे संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा था, ‘जो लोग मंदिर जाते हैं, आपको बहन और बेटी कहते हैं, वे ही आपको छेड़ते हैं। मंदिर में देवी की पूजा करते हैं मगर वे ही लोग बसों में आपको छेड़ते हैं।’
ऐसा बयान देने वाले राहुल गांधी से क्या कोई उम्मीद कर सकता था कि वे वोटों की खातिर मंदिर-मंदिर जाएंगे, मत्था टेकेंगे और गुजरात की चुनावी राजनीति को बदल कर रख देंगे। जिस गुजरात में पिछले पंद्रह साल से सिर्फ और सिर्फ मुसलमान और सांप्रदायिकता के नाम पर कांग्रेस बीजेपी का मुकाबला करती रही है, जहां की राजनीति में नुसरत जहां और सोहराबुद्दीन से मुठभेड़ों को सांप्रदायिक नजरिए से देखा जाता रहा हो, जहां कांग्रेस के सांसद रहे एहसान जाफरी की पत्नी जकीया जाफरी की न्यायिक लड़ाई में कांग्रेस खुद एक पार्टी बनी रही हो, जहां की धरती पर जाकर कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से सोनिया गांधी वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कह चुकी हों, वहां अगर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाकर मत्था नवाने लगेंगे तो निश्चित तौर पर सवाल उठेंगे। सवाल उठे भी और उनकी बदलती चुनावी रणनीति को लेकर कांग्रेस में ही दो तरह की विचारधाराएं उठ खड़ी हुर्इं। एक धारा ने राहुल के इस कदम को उदात्त हिंदुत्व या नरम हिंदुत्व की संज्ञा दी तो दूसरे खेमे ने इससे बाज आने की सलाह दी। इस पर चर्चा से पहले जान लेना चाहिए कि पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के वोटर रहे मुस्लिम समुदाय ने गुजरात में कैसा मतदान किया है।
गुजरात में करीब 9.6 फीसदी मुस्लिम आबादी है। राज्य की 182 विधानसभा सीटों में से 66 सीटें ऐसी हैं, जहां दस फीसदी से लेकर साठ फीसदी तक मुस्लिम मतदाता हैं। 18 ऐसी हैं, जहां मुस्लिम समुदाय की आबादी 25 से लेकर 60 फीसदी तक है। गौर करने की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की तरह एक भी मुसलिम उम्मीदवार यहां से नहीं उतारा, लेकिन उसे 18 में से नौ सीटों पर जीत मिली है। वहीं एक सीट निर्दलीय के खाते में गई है। जबकि बाकी सात पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है। एक सीट स्थानीय पार्टी को गई है। उनमें से सिर्फ चार ही मुस्लिम उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने सिर्फ छह मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। गुजरात में राहुल गांधी के मंदिरों में मत्था नवाने के कदम से मुस्लिम वोटरों के बिदकने का डर कांग्रेस को भी था। शायद इसी आशंका के चलते गुजरात कांग्रेस के ही कद्दावर नेता और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को बयान देना पड़ा था, ‘मंदिरों के साथ-साथ दरगाहों में भी राहुल जाते हैं, इसलिए यह सॉफ्ट हिंदुत्व नहीं है। यही नहीं, इससे पहले इंदिरा जी और राहुल गांधी की मां भी ऐसा ही करती थीं।’
छोटे-बड़े कई और कांग्रेस नेताओं ने स्थानीय स्तर पर मुस्लिम वोटरों को रिझाने के लिए ऐसे बयान दिए। लेकिन चुनाव नतीजों से जाहिर है कि कांग्रेस के इस उदात्त हिंदुत्व की अवधारणा से उसका वह मुस्लिम वोटर नाराज हुआ है, जिसे उसी ने उग्र हिंदुत्व का डर दिखाकर अपने पाले में दशकों से कर रखा है। लेकिन यह उदात्त हिंदुत्व भी अब कांग्रेस नेताओं को परेशान करने लगा है। बेशक अपनी निजी जिंदगी में आम मुसलमान की तुलना में कहीं ज्यादा उदार और आधुनिक खानदानी राजनेता सलमान खुर्शीद हैं, लेकिन वोट हासिल करने के लिए वे भी मुसलमान हो जाते हैं। देश के विदेश मंत्री जैसे ओहदे पर रहे सलमान खुर्शीद का कहना है, ‘हमें सॉफ्ट हिंदुत्व के विचार को खारिज करना होगा।’
गुजरात की धरती पर कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को जो जोरदार टक्कर दी है, उसमें आंशिक ही सही, उदात्त हिंदुत्व का भी हाथ है। राहुल के रणनीतिकार अरसे से इसकी तैयारी में जुटे थे। तभी तो छह जून को राहुल गांधी ने बयान दिया था कि वे इन दिनों गीता और उपनिषद भी पढ़ रहे हैं। गुजरात चुनावों में करीब बीस मंदिरों में जाकर राहुल गांधी ने मत्था नवाया। और तो और, अपने पिता राजीव गांधी को मुखाग्नि देते वक्त और बहन प्रियंका की शादी के दौरान कन्यादान की रस्म निभाते वक्त तक की तसवीरें जारी करवाईं, जिसमें वे पूरे कपड़े के उपर से ही जनेऊ धारण किए हुए दिखते हैं। उस सोमनाथ मंदिर तक की यात्रा राहुल ने की, जिसे बनवाने के लिए उनकी दादी के पिता जवाहर लाल नेहरू से तत्कालीन उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल और राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद तक ने विरोध मोल लिया था। जब भारतीय जनता पार्टी ने इस पर सवाल उठाया तो उन्होंने बड़ी चतुराई से यह बयान दे डाला कि वे शिवभक्त हैं। राहुल के इस कदम से लगता है कि कांग्रेस 2014 में हुई हार के कारणों की पड़ताल के लिए गठित एंटनी समिति की रिपोर्ट पर गौर फरमाने लगी है। एंटनी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कांग्रेस की हार की वजह उसकी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति है। राजीव गांधी मंत्रिमंडल में समाज कल्याण मंत्री रहे और शाह बानो केस में कांग्रेस की रणनीति के विरोध में पार्टी छोड़ने वाले नेता आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं कि ‘कांग्रेस ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के लिए शाहबानो केस में संविधान संशोधन नहीं किया होता तो देश में सांप्रदायिकता नहीं बढ़ती।’ उनका कहना है कि ‘देश में बहुसंख्यकवादी सोच के उभार की वजह कांग्रेस की वह नीति ही है।’ बहरहाल कांग्रेस ने इस गलती को तब सुधारने की कोशिश की थी और 1989 में रामजन्मभूमि का ताला खुलवाया था। वहां खुद राजीव गांधी ने शिलान्यास तक किया था। लेकिन उनका दांव उलटा गया। इस दांव के बाद ही कांग्रेस लगातार हाशिए पर बढ़ती गई। जिन राज्यों मसलन उत्तर प्रदेश और बिहार में तीसरी ताकत ने दमखम दिखाया या उम्मीद जगाई, वहां मुस्लिम मतदाता कांग्रेस का दामन छोड़ गया। अगर गुजरात में भी कोई तीसरी ताकत उभरी होती तो शायद ही मुस्लिम मतदाता उसके साथ होता।
वैसे कांग्रेस हिंदुत्व की वैसी विरोधी न तो आजादी के आंदोलन के दौरान रही, न ही आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक रही। आजादी के पहले कांग्रेस को तो विचारधाराओं की छतरी तक कहा जाता था। जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हर मुमकिन जगह पर कांग्रेस नेतृत्व घृणा की हद तक आलोचना करता है, उसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार खुद नागपुर में कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। कांग्रेस के चार बार लाहौर (1909), दिल्ली (1918 और 1931) तथा कलकत्ता (1933) अधिवेशनों के दौरान अध्यक्ष चुने गए महामना मदन मोहन मालवीय हिंदुत्व के प्रबल पैरोकार थे। गंगा को बांधे जाने के खिलाफ आंदोलन उन्होंने ही शुरू किया और दिलचस्प यह है कि हिंदू महासभा तक के वे अध्यक्ष रहे। लेकिन उन पर कभी सवाल नहीं उठा। उल्टे जवाहर लाल नेहरू तक ने उनके बारे में लिखा था, ‘अपने नेतृत्वकाल में हिन्दू महासभा को राजनीतिक प्रतिक्रियावादिता से मुक्त रखा और अनेक बार धर्मों के सहअस्तित्व में अपनी आस्था को अभिव्यक्त किया।’ क्या संभव है कि आज के दौर का कांग्रेस नेतृत्व हिंदुत्ववाद के ऐसे पैरोकार को अपने साथ झेल पाए।
इसके पहले भी कांग्रेस में उदात्त हिंदुत्व रहा है। जब कांग्रेस अध्यक्ष रहे पुरुषोत्तम दास टंडन को भारत रत्न से सम्मानित किया गया तो तब एक वर्ग ने उन पर उदार हिंदुत्व का सहारा लेने का आरोप लगाया था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में प्रतिक्रिया स्वरूप उग्र हिंदुत्व भी जागा था और उसका फायदा बाद में हुए आम चुनावों में कांग्रेस ने ही उठाया और 415 का विशाल बहुमत हासिल किया। नरसिंह राव पर प्रधानमंत्री रहते आरोप लगा कि उन्होंने राम जन्म मूमि को लेकर जो भी फैसले लिए, उनमें उदार हिंदुत्व की गहरी छाप थी। गुजरात चुनावों में अपनाए गए उदार हिंदुत्व के दांव को लेकर कांग्रेस चाहे जो कहे, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस आने वाले दिनों में बदल सकती है। वह इसी हथियार से कर्नाटक और राजस्थान के आगामी विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने की कोशिश करेगी। लेकिन इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प बयान शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का आया है। उनका कहना है कि राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर जाना दरअसल हिंदुत्व की जीत है। तो क्या आने वाले दिनों में वे कांग्रेस के हिंदुत्व के साथ तालमेल करने की सोच रहे हैं… इसका जवाब आने वाले वक्त में ही मिल पाएगा।