अजय विद्युत
सोशल मीडिया ने पूरी दुनिया हमारे एक क्लिक में समा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा, नासा से लेकर हमारे तमाम शहरों की नगर पालिकाओं और बड़े घरों के किशोरों से लेकर इंटरनेट तक पहुंच वाले अतिसामान्य घरों के वृद्ध तक फेसबुक, व्हाट्सएप व ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर हैं। कम्प्यूटर, लैपटॉप गुजरे जमाने की बातें हैं। अब तो सिर्फ तीन हजार रुपए में आने वाले स्मार्टफोन के जरिए लोग इस आभासी दुनिया में दिन-रात गोते लगाते दिखते हैं। जिस तकनीक ने आम आदमी को दुनिया से जुड़ने की ताकत दी थी, वह आत्मघाती नशे और कई अपराधों की भी गवाह बन रही है। ‘ओपिनियन पोस्ट’ के इस आयोजन में पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही सोशल नेटवर्किंग की जादुई ताकत वाली तकनीक के स्याह और उजले पक्षों को समझते हैं अपने तीन विशेषज्ञ मेहमानों- दिनेश श्रीनेत, बालेन्दु दाधीच और डॉ. समीर पारिख की मदद से।
ओपिनियन पोस्ट- सोशल मीडिया ने वैसे तो पूरी दुनिया को ही प्रभावित किया है लेकिन भारतीय समाज में इसका असर कुछ विचित्र सा दिख रहा है। इसे क्या कहेंगे?
दिनेश श्रीनेत- जब भी कोई नई तकनीक आती है तो उसका समाज पर प्रभाव पड़ता ही है। मैं कहूंगा कि क्रांतियों से भी ज्यादा तकनीक ने समाज को बदला है। सन् दो हजार में सदी बदलने पर इकोनोमिस्ट पत्रिका ने मनुष्य के जीवन में बदलाव लाने वाली बड़ी घटनाओं पर विशेषांक निकाला था। उसमें ट्रेन के बारे में लिखा था कि जब ट्रेन आई तो वह न केवल लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का माध्यम बनी, बल्कि विचारों को भी एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का माध्यम बनी।
डॉ. समीर पारिख- यह समझने की जरूरत है कि सोशल नेटवर्किंग संवाद का एक मंच है। मनुष्य हर जमाने में अलग-अलग तरीकों से अपनी बात दूसरों तक पहुंचाता रहा है। किसी जमाने में टेलीग्राम थे, चिट्ठियां थीं। चिट्ठियों के बाद फोन आए, फिर मोबाइल। और अब यह है- सोशल नेटवर्किंग।
बालेन्दु दाधीच- और सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह लोगों को जोड़ता है। चूंकि वह सभी को बराबर का प्लेटफार्म देता है.. इसलिए हमें कभी-कभी ऐसे लोगों के साथ भी जोड़ देता है जिनसे हम जुड़ना नहीं चाहते, या नहीं चाहिए। आप दुनिया में किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति से संपर्क कर सकते हैं। कोई व्यक्ति जो किसी अच्छे मकसद के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करता है, उसके लिए यह सकारात्मक माध्यम है। लेकिन अपराधी प्रवृत्ति या नकारात्मक मानसिकता के लोगों को भी यह उतनी ही सुविधाएं प्रदान करता है।
दिनेश- सोशल मीडिया ने यह किया कि व्यक्ति को व्यक्ति से कनेक्ट करने की एक और खिड़की खोल दी है। भारतीय समाज में इसका नशा इतना ज्यादा इसलिए दिख रहा है क्योंकि हमारे यहां अभिव्यक्ति की छटपटाहट बहुत ज्यादा है। भारतीय समाज की संरचना बहुत जटिल है। न तो यह मध्य पूर्व या पाकिस्तान की तरह बंद समाज है और न यूरोपीय देशों की तरह बहुत खुला समाज है। हमें भोजकाल की भी परंपराएं देखने को मिल जाएंगी, मुगलकाल की भी और फिर ब्रिटिशकाल की भी। तो हमसे कोई चीज छूटी नहीं है। यह एक ट्रांजिशन फेज है जिसका चरम बिंदु हम आज देख रहे हैं। इसमें बहुत सी अच्छी चीजें भी होती हैं और बुरी भी। अच्छी चीजों में मैं बहुत छोटा सा उदाहरण दूंगा- निर्भया मामला। उसमें इतने सारे लोग दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में इसलिए इकट्ठे हो सके क्योंकि सोशल मीडिया पर वह मुद्दा छाया रहा था। वरना एक रैली तक करने में राजनीतिक दलों को कितने पसीने छूट जाते हैं और कैसे-कैसे ट्रकों में भरकर लोग जुटाए जाते हैं, यह आप सब जानते हैं।
बालेन्दु- हमारे समाज में पहले लोगों को अपनी बात कहने के इतने ज्यादा मौके इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं थे। सोशल मीडिया ने हमें अपनी बात हर जन तक पहुंचाने का अवसर दिया, उससे हम चमत्कृत हैं। लगा कि हमें ताकत मिल गई। इसने लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ाया है। संवाद को बहुत आसान कर दिया है जो कि पहले संभव नहीं था।
समीर- पहले ज्यादातर संवाद आमने-सामने होते थे। जहां ऐसा नहीं हो पाता था, उसके पीछे थोड़ा समय लगता था। आपने आज सोचा, कल लिखा। फिर भेजा। दूसरे को वह तीन दिन बाद मिला। अब बदलाव यह है कि हमारा कम्युनिकेशन चौबीस घंटे का बन गया है। सोते हैं फोन के साथ। इंटरनेट हर जगह है। इस तरह जो लोग सुसाइड करते हैं या जिनके रिश्तों में मतभेद होते हैं, ऐसी स्थिति सोशल मीडिया या नेटवर्किंग के कारण नहीं है। वे मतभेद इसलिए हैं कि उन्होंने उन बातों का हल नहीं ढूंढा और ठीक से हल न किए जाने के कारण उन्हें समस्या हुई। हम सबको यह समझने की जरूरत है। जैसे व्हाट्सएप पर मैसेज छोड़कर कोई सुसाइड करता है अथवा फेसबुक या किसी अन्य साइट पर बाकायदा वीडियो बनाते जान देता है तो वह जो कर रहा है वह तो वह करता ही, उसने इसे एक माध्यम बना लिया। आज उसने ऐसे किया, यह न होता तो शायद वह कोई नोट या चिट्ठी लिखता।
सीमाएं टूटीं
बालेन्दु- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ऐसे व्यक्ति जो दूसरों से बात करने में काफी शर्माते हैं और सामान्य जीवन में लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते, दस लोगों के सामने खड़ा कर दें तो वे बोल नहीं पाते, जिनकी अभिव्यक्ति की सीमाएं हैं, लेकिन वे जब सोशल मीडिया पर आते हैं तो अचानक उनकी सीमाएं टूट जाती हैं और वे मुखर हो उठते हैं। ये जो अपने आप को अभिव्यक्त करने की ताकत मिली है यह पहले कभी उपलब्ध नहीं थी। यह नशा भी बनती जा रही है क्योंकि यह ऐसा अनुभव है जिससे हम पहले कभी नहीं गुजरे। यह हमें अपना व्यक्तित्व निर्मित करने और ऐसे अंतरंग मित्र बनाने का मौका दे रही है जो हमारे जितने ही, हमारे निकट और विश्वासपात्र हैं।
दिनेश- स्वाभाविक सी बात है कि जब तकनीक आएगी तो लोग उसका इस्तेमाल करेंगे ही। अब मेट्रो आ जाएगी तो आप बस से जाना पसंद नहीं करेंगे। यहां सोशल मीडिया तो आया लेकिन उसके लिए समाज में, लोगों में जो जहनी मजबूती होनी चाहिए थी, मन का जो संस्कार विकसित होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। ऐसे में मेरा मानना है कि आप फेसबुक उपयोग करते हैं तो आपको इतनी समझ हो जानी चाहिए कि इस माध्यम की अपनी सीमाएं हैं और यहां जो दोस्त हैं वे वास्तविक नहीं हैं।
समीर- मैंने अपने घर में देखा। जब रेडियो आया था तो हमारे पिताजी, चाचाजी को रेडियो नहीं सुनने देते थे कि पढ़ाई करो। आज सोशल मीडिया है। कुछ समय बाद कोई और चीज आ जाएगी। किसी चीज में अच्छाई-बुराई कुछ नहीं होती। यह इसमें होता है कि हम उसका इस्तेमाल कैसे करते हैं।
ओपो- पश्चिम का समाज तो काफी पहले से इस तकनीक के साथ है, वहां के समाज में सोशल नेटवर्किंग के कारण ऐसी हलचल क्यों नहीं हुई?
दिनेश- पश्चिम का समाज बहुत ही संतुलित समाज रहा है। वहां विकास हमसे बहुत पहले हुआ। प्रकाशन उद्योग जिनसे उपन्यास और तमाम कलाओं को बढ़ावा मिला और संपर्क व संवाद के लिए अखबार निकले तथा टेलीविजन, वे वहां बहुत पहले आ चुके थे। यह साठ के दशक में अपने चरम पर था। उसके बाद वहां इंटरनेट और सोशल मीडिया आया।
भारत के संदर्भ में यह हुआ जब तक यहां का जनमानस किसी चीज के लिए तैयार हो पाए उससे पहले ही नई तकनीक आ जाती है और उसे अपनी पकड़ में ले लेती है, चाहे वह मोबाइल फोन हो या सिनेमा। यूं समझिए कि हमारी तमाम जनता इतनी भोलीभाली थी कि वह सिनेमा के परदे पर दिखाई जा रही चीज को असली समझ बैठती थी। जब ट्रेन आती थी तो कई लोग घबरा जाते थे। वैसे ही जब गोलियां चलती थीं तो डर जाते थे। आज वही समस्या सोशल मीडिया को लेकर भी है। पश्चिम सोशल मीडिया और ऐसी तमाम चीजों से दूर भाग रहा है। वहां जितने भी नए विचारक हैं वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कृत्रिम दुनिया के बजाय हमें वास्तविक दुनिया और समाज में अधिक रहना चाहिए। सोशल मीडिया एक कृत्रिम समाज बनाता है।
बालेन्दु- हुआ क्या कि जैसे सामाजिक जीवन या वास्तविकता में मैं इतना अनुभव या योग्यता नहीं रखता हूं कि लोगों को प्रभावित कर सकूं। लेकिन सोशल मीडिया पर मैंने अपनी ऐसी शख्सियत बना ली कि लोगों को मैं प्रभावित कर पा रहा हूं। तो वह मेरी एक झूठी या आभासी पर्सनैलिटी है। उसे मैं लंबे समय तक जीता हूं और उसके माध्यम से लोगों तक पहुंचता हूं। अब ये नशे में तब्दील हो रही है। हम न केवल इससे दूसरों को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि अब वह हमारे वास्तविक जीवन में भी भ्रम ला रही है। हम खुद भी अपने से चमत्कृत हैं कि हमने यह क्या कमाल कर दिया। ऐसा डायलॉग डाला कि दो सौ लाइक मिल गए। यह हमें यह अनुभूति कराता है कि अचानक ही हम काफी लोकप्रिय हो गए। तो संपर्क बढ़ाना और सोशल मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा समय काटना अब एक लत और नशा बनता जा रहा है। एक बहुत लोकप्रिय उपन्यास लेखिका ने कहा था कि हर व्यक्ति पंद्रह मिनट की प्रसिद्धि चाहता है। यह बात हमारे सोशल मीडिया पर बिल्कुल सटीक बैठती है। सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को पंद्रह मिनट की प्रसिद्धि पाने का मौका दे दिया है। और यह लगभग हर व्यक्ति की आकांक्षा है। हर व्यक्ति अपनी एक पहचान बनाना चाहता है और सोशल मीडिया इसका सबसे आसान माध्यम है।
समीर- जब हम संवाद करते हैं तो उसके कुछ पैटर्न होते हैं। यहां पैटर्न का मतलब यह है कि जरूरी नहीं है कि हम एक ही तरीके से कम्युनिकेट करें। जब हम संवाद करेंगे तो कम्युनिकेशन का हर एक तरीका उपयोग करते हैं। जैसे आप ऑफिस में काम करते हैं तो उसके लिए व्हाट्सएप, मोबाइल, ईमेल का उपयोग करेंगे। उसी तरह से अपने पारिवारिक काम के लिए भी करेंगे। अगर आपने अपने किसी जूनियर को ईमेल पर डांटा तो उसमें इंटरनेट की गलती नहीं हैं। इसी तरह अगर आपने व्हाट्सएप पर अपने परिवार में किसी से मतभेद कर लिया तो उसके लिए व्हाट्सएप का कोई हाथ नहीं है।
बढ़ी हैं समस्याएं
बालेन्दु : देखें तो सोशल मीडिया के आने के बाद से समस्याएं बढ़ी हैं। आप बड़े बड़े लोगों जैसे अमिताभ बच्चन को भी संदेश भेज सकते हैं, पहले यह शक्ति आम आदमी के पास नहीं थी। यह नशा अब हमें भी भ्रमित कर रहा है। हम असली दुनिया से कटते जा रहे हैं। असली दुनिया में हमारे मित्र सीमित होते जा रहे हैं। हमने खेल के मैदानों में जाना बंद कर दिया है। इस नकली या आभासी दुनिया में हम खूब रमे हैं। अपराध भी बढ़े हैं और अलग-अलग किस्म के बढ़े हैं। अभी एक लड़की की एक लड़के से फेसबुक के माध्यम से दोस्ती हुई। दोस्ती रिलेशनशिप में बदल गई। फिर कुछ दिनों बाद उनकी रिलेशनशिप टूट गई। तो उस लड़के ने लड़की को परेशान करना शुरू किया और फेसबुक पर एक नकली आईडी के साथ उस लड़की की तस्वीर को दूसरी तस्वीरों के साथ जोड़कर उसकी नग्न फोटो डाल दी और उस पर लिख दिया कि मैं किसी से भी रिलेशनशिप बनाने के लिए प्रस्तुत हूं। इससे वह लड़की इतनी प्रताड़ित हुई कि उसने आत्महत्या कर ली। तो यह अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी आ गए हैं और हम उन्हें पहले से पहचान नहीं सकते।
दिनेश- भारत में यह एक लत तो बन ही गई जो आगे चलकर मेरी समझ में साइकोलॉजी की एक धारा ही बन जाएगी। दूसरे तमाम एडिक्शनों में सोशल मीडिया को भी एक एडिक्शन मान लिया जाएगा। यह सभी उम्र के लोगों में नशा बन चुका है। बच्चों, युवाओं को क्या कहें, बुजुर्ग भी जो इंटरनेट का इस्तेमाल जानते हैं इसके भीषण प्रभाव में हैं। जब हमारा समाज किसी चीज के लिए तैयार नहीं होता और वह तकनीक आ जाती है तो उसके दुष्प्रभाव भी ज्यादा दिखते हैं। आज वही हो रहा है।
बालेन्दु- सोशल मीडिया अपनी पहचान छिपाने का भी बहुत आसान माध्यम है। आप अपना नाम, पता, फोटो कोई भी असली पहचान बताए बिना अपराध करके आसानी से निकल सकते हैं। यह अपराध करने, लोगों को परेशान करने या उनकी मानहानि करने का एक बेहतरीन प्लेटफॉर्म भी बन गया है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग ही नहीं सामान्य आदमी के भी मन में भाव उठता है कि वह दूसरों को परेशान करे। मनोरंजन करने या दूसरों को परेशान करने की नीयत से साइबर बुलिंग, साइबर स्टाकिंग या इंटरनेट ट्रॉलिंग जैसे काम अब आम लोग भी करने लगे हैं। हालांकि यह भी एक अपराध ही है। एक व्यक्ति कोई टिप्पणी करता है और उसके विरोध में लाखों की संख्या में टिप्पणियां आने लगती हैं, जिनमें कई बहुत ही अभद्र और अश्लील होती हैं।
दिनेश- सोशल मीडिया पर अपराध और अराजकता का सारा खेल नकली पहचान ‘फेक आईडी’ के जरिये होता है और इसमें व्यक्तिगत लोगों से लेकर संगठित समूह तक तमाम लोग शामिल हैं। तो कानून इस तरह का हो कि फेक आईडी लगभग बंद हो जाएं। धार्मिक और राजनीतिक मतों के प्रचार के साथ ही लोगों को भड़काने और लड़ाने का काम भी कम आपराधिक नहीं है। इसके अलावा फेसबुक आदि पर तमाम सेलिब्रिटी तमाम विचारों को फैलाने का काम भी कर रहे हैं जिसके पीछे उनके कुछ निहित स्वार्थ हो भी सकते हैं। और बेवजह हम उसका मोहरा बन जाते हैं, उनसे जुड़ जाते हैं।
युवाओं के लिए जीवन का विस्तार
समीर- देखिए फेसबुक, सोशल मीडिया, मोबाइल फोन… यह सब आज के युवाओं के लिए उतना ही असली है, जितना हमारे लिए बातचीत करना है। उनके लिए वह उनके जीवन का एक विस्तार है। एक जगह पर आकर उनके फेसबुक के मित्र और वास्तविक जीवन के मित्र दोनों घुलमिल जाते हैं। समस्या कहीं से भी आ रही हो, हमें उनको समर्थन और मार्गदर्शन देने की जरूरत है। मार्गदर्शन यानी जीवन में संतुलन कैसे लाएं, यह बताना। जैसे अगर वास्तविक जीवन में हमारी मित्रता संतुलित है तो हम फेसबुक मित्रता भी सकारात्मक रख सकेंगे। अब चूंकि जीवन में कुछ अच्छा नहीं चल रहा है तो वे आभासी दुनिया में वह प्रेम या मित्रता पाने की चाह रखते हैं और इसी कारण वे समस्याओं में पड़ जाते हैं।
बालेन्दु- अभी एक किताब आई है जिसमें कहा गया है कि इंटरनेट हमारे सोचने का तरीका बदल रहा है। यह हमें सोशल मीडिया के अनुरूप ही सोचने के लिए प्रेरित करने लगा है। हम कहीं जाते हैं या किसी के साथ होते हैं तो तुरंत दिमाग में आता है कि यह सेल्फी अगर मैं ट्विटर पर डाल दूंगा तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। हम कोई टिप्पणी या बात कहीं सुनते या देखते हैं तो तुरंत लिख लेते हैं कि बाद में फेसबुक पर डाल देंगे। तो हमारे लिए सोशल मीडिया और इंटरनेट इतना प्रमुख बन गया है, जिसका कोई औचित्य नहीं है।
दिनेश- आप युवाओं से इससे दूर रहने को मत कहिए क्योंकि वह और गलत होगा। जैसे मेरा बेटा अपने पूना, चेन्नई और अमेरिका में बैठे दोस्तों से बात करने के लिए इसका उपयोग करता है। पर उसे यह समझ होनी चाहिए कि कहीं मैं सोशल साइटों पर इतना समय तो नहीं दे रहा कि अपने आसपास के मेरे दोस्तों से मेरा ताल्लुक ही खत्म हो रहा है। तो फिर वह दूसरे दोस्तों से पंद्रह मिनट ही बात करेंगे सोशल मीडिया पर।
अकेलापन अब भी उतना ही
समीर- लेकिन गौर करने का पहलू यह है कि हमारे जीवन में सोशल नेटवर्किंग और तमाम दूसरी बातें आ जाने के बाद भी अकेलापन अब भी उतना ही है, बल्कि बढ़ा है। हम अपने एकाकीपन से उबरने का रास्ता नहीं ढूंढ पाते। और इस एकाकीपन को शहरीकरण ने पोसा है, बढ़ाया है।
दिनेश- दुनिया के विकसित देशों में देखें तो जहां हम वहां के समाज को मशीनों पर आधारित पाते हैं, वहीं उनमें ‘कम्युनिटी फीलिंग’ समाज के लिए कुछ करने का जज्बा भी है। रिटायर्ड लोग अपना समय समाज को देते हैं। चाहे ट्रैफिक नियंत्रण के क्षेत्र में या दूसरों के बच्चों को पढ़ाना और देखभाल भी बात हो, अपने आसपास की सफाई आदि को भी देखते हैं। काफी हद तक अपने देश में दक्षिण भारत में भी इस तरह की संस्कृति है। लोग अपने समाज से ज्यादा जुड़ते हैं। बाकी भारत में दिक्कतें ज्यादा हैं क्योंकि उदारीकरण के बाद के दौर में हम बहुत ज्यादा आत्मकेंद्रित होते चले गए। अपना घर, अपना करियर, अपना पैसा… यह सब अधिक महत्वपूर्ण हो गया और फिर सोशल मीडिया ने आकर उसमें आग में घी वाला काम कर दिया। सोशल मीडिया ने आत्मकेंद्रित व्यक्ति को और अधिक आत्मकेंद्रित बना दिया। और आप जब आत्मकेंद्रित हो जाते हैं तो आपके लिए सामाजिक सरोकार ही खत्म हो जाते हैं।
पेरेंट्स क्या करें?
समीर- बच्चे इंटरनेट और सोशल साइटों पर बहुत समय गुजारते हैं, किसी बात का ध्यान नहीं रखते- यह पेरेंट्स की आम समस्या है। तो इसके लिए उन्हें अपने बच्चों को समय देने की जरूरत है, लेकिन इसके साथ ही स्पेस भी देने की जरूरत है। हम उन्हें कभी-कभी स्पेस नहीं देते हैं। हम चाहते हैं कि हर चीज हमारे हिसाब से हो, इसे ऐसे करो, उसे वैसे करो, है ना! और हम इतना दबाव डालते हैं कि उनकी लाइफ से कम्फर्ट हटा देते हैं। वह कम्फर्ट लाना बहुत जरूरी है। वे इतने सहज हो जाएं हमारे साथ कि अगर गलती भी करें तो हमें बताएं। हमें उन पर बहुत रोकटोक लगाने की जरूरत भी नहीं है। अब जो आज का बच्चा है वह तो मोबाइल पर संदेश भेज रहा है, वे उसे नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। वो जो कर रहा है उसे अपने बाकी कामों का ध्यान रखते हुए कितना संतुलित कर पा रहा है, इसका असर पड़ रहा है। मना करने के अलावा आप उन्हें यह सिखाएं कि डेढ़ घंटा पढ़ाई करो, इतना समय यह काम करो, बस पढ़ते समय सोशल साइटों का इस्तेमाल मत करो वरना हमें कोई परेशानी नहीं है। जीवन में संतुलन लाना दरअसल पहले बड़ों के ही सीखने की चीज है, फिर वे बच्चों को बताएं, सिखाएं।
दुष्प्रभावों से कैसे बचें
ओपो- सोशल मीडिया को भले हम आभासी दुनिया कहें पर उसकी मौजूदगी को नकारना नामुमकिन है? ऐसे में अपने समाज को उसके दुष्प्रभावों से दूर रखने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
समीर- जीवन में संतुलन सबसे आवश्यक है। हर चीज को उसकी प्राथमिकता के अनुसार समय दें। वास्तविक जीवन यानी परिवार, शारीरिक गतिविधियां, कार्य, मित्र आदि सब को हम किस तरह से संतुलित करते हैं, वही जीवन का सार है। फिर आपको किसी भी चीज की अतिरिक्त भरपाई करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। सारी समस्याएं तभी आती हैं जब हम किसी एक चीज को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने लगते हैं।
बालेन्दु- अगर आप अपने किसी उद्देश्य के लिए इन माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं तो ठीक है लेकिन यदि केवल आनंद के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं तो एक समय निश्चित कर लें कि दिन भर में केवल आधा घंटा फेसबुक, व्हाट्सएप के लिए दूंगा। और उसका पालन करें। वरना यह बुरी तरह हावी होकर आपको तमाम मनोवैज्ञानिक समस्याओं में डाल देगा।
दिनेश- घर से लेकर स्कूल और समाज तक इन बातों को बताए जाने की ज्यादा जरूरत है कि आभासी दुनिया के बजाय अगर हम वास्तविक दुनिया से जुड़ें तो यह हमारे खुद के और समाज व देश के लिए भी ज्यादा अच्छा होगा।
हम इस गेम के खिलाड़ी नहीं… अनाड़ी!
सोशल मीडिया एक निरंतर चल रहा गेम है जिसमें हम भी अपने आपको एक खिलाड़ी मान बैठे हैं और दिन-रात सक्रिय हैं। एक संदेश कहीं से आया और हमने उसे आगे बढ़ा दिया। किसी ने बच्चे के डांस का फोटो भेजा हमने दूसरों को भेजा। हम उस गेम का हिस्सा बन चुके हैं जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है। यह गेम खेला जा रहा है कंपनियों की तरफ से। हम सोशल नेटवर्किंग कराने वाली कंपनियों को लाभ पहुंचाने का जरिया भर बनकर रह गए हैं, उन्हें क्लिक दिलवा रहे हैं। हम टेलीकॉम कंपनियों का डेटा कंज्यूम कर रहे हैं और सोशल नेटवर्किंग कंपनियों की विज्ञापन आय बढ़ाने का माध्यम बन रहे हैं। दोनों को फायदा पहुंचा रहे हैं।
इन चार खबरों को ध्यान में रखकर ही हमने यह आयोजन किया
व्हाट्सएप की लत, तलाक की नौबत
ताजनगरी आगरी की एक महिला रात तीन बजे तक दोस्तों से व्हाट्सएप पर चैट करती थी। जब पति ऑनलाइन होता, वह मोबाइल बंद कर देती। इस व्यवहार ने पति को शक्की बना दिया और व्हाट्सएप की लत ने प्रेम विवाह के नौ महीने बाद ही दांपत्य जीवन में दरार डाल दी। पति ने परिवार परामर्श केंद्र में तलाक की गुहार लगाते हुए कहा कि पत्नी ने गृहस्थी को पूरी तरह छोड़ दिया है। दो साल पहले इस युवती की मुलाकात जूता कारोबारी से हुई। दोनों में प्यार हुआ। फिर शादी। पर कुछ समय बाद तकरार शुरू हो गई। काउंसलर्स दोनों में सुलह नहीं करा सके। उन्होंने लिखकर दिया कि वे साथ नहीं रह सकते। उन्हें तलाक चाहिए।
व्हाट्सएप पर सुसाइड नोट लिख फांसी पर लटका
मध्य प्रदेश के सागर जिला न्यायालय में चपरासी सू्रज यादव ने अपने घर में ही फांसी लगा ली। उसने सोशल साइट व्हाट्सएप पर सुसाइड नोट छोड़ा जिसमें आरोप लगाया कि अतिरिक्त जिला न्यायाधीश बद्रीप्रसाद मरकाम व उनकी पत्नी सिविल जज रेखा मरकाम उससे अपने बंगले पर झाडू-पोछा, कपड़ा और बर्तन धुलाई जैसे काम कराते थे। बंगले पर काम न करने पर उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी गई थी। 28 वर्षीय सूरज ने व्हाट्सएप पर जज दंपति द्वारा खुद को प्रताड़ित करने के संबंध में कुछ वकीलों से बात भी की थी। लेकिन उसने अपना निर्णय नहीं बदला।
व्हाट्सएप करने से रोका तो पत्नी ने दी जान
तमिलनाडु के कोयंबटूर की एक महिला चैट पर लगातार व्यस्त रहती थी। उसकी इस आदत पर जब पति ने डांटा तो उसने घर में फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। पत्नी की मौत से दुखी पति ने भी जान देने की कोशिश की लेकिन लोगों ने उसे बचा लिया। कौनदमपालयम इलाके में लारी ड्राइवर कुमार काम के सिलसिले में अक्सर बहर रहता था। उसकी पत्नी अपर्णा ज्यादा समय सोशल साइट्स पर व्यस्त रहती थी। कुमार ने इसके लिए उसे डांटा और फोन छीन लिया। अपर्णा ने दूसरे फोन से अपने बड़े भाई को जानकारी दी और भीतर से कमरा बंद कर लिया। परेशान कुमार जब दरवाजा तोड़कर अंदर घुसा तो अपर्णा का शव छत से झूल रहा था।
प्रेमी संग पत्नी की फोटो फेसबुक पर डाली
गुजरात के अहमदाबाद के एक युवक ने पत्नी की बेवफाई सबको बताने के लिए पत्नी की प्रेमी के साथ आपत्तिजनक अवस्था की फोटो फेसबुक पर डाल दी। इससे नाराज पत्नी ने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। शादी के आठ साल सब ठीकठाक चला लेकिन सुनीता की कॉलसेंटर में नौकरी लगने के दो महीने बाद ही जिग्नेश को उसमें बदलाव दिखने लगा। जिग्नेश ने पूरी पड़ताल की और पाया कि उसकी पत्नी के ऑफिस के ही एक सहकर्मी के साथ अवैध संबंध है। जिग्नेश ने पत्नी की प्रेमी के साथ आपत्तिजनक तस्वीर खींची व परिवार को दिखा दी। इसके बाद उसने वह तस्वीर फेसबुक पर भी पोस्ट कर दी।