डॉ. विजय शर्मा
सर्वविदित है कि व्यक्ति जितना महान होता है, उसकी आलोचना भी उतनी ही अधिक होती है। ‘टैगोर की ख्याति मात्र बंगाल में रहेगी और वो भी ऐसी ख्याति जिसके वे हकदार भी नहीं हैं’, नीरद चौधुरी अपनी आत्मकथा ‘आॅटोबायोग्राफी आॅफ एन अननोन इंडियन’ में ऐसा मानकर चलते हैं। आज राजनीतिक कारणों से रवींद्रनाथ टैगोर की आलोचना की जा रही है। उनकी विश्व ख्याति को दरकिनार करते हुए उन्हें हिंदू विरोधी, चरित्रहीन, असहिष्णु और ब्रिटिश दलाल तक कहा जा रहा है। साथ ही विडंबना यह कि सभी राजनीतिक पार्टियां उन्हें अपना बना कर भुनाने का प्रयास भी कर रही हैं। नीरद चौधुरी ने यह बहुत बाद में लिखा लेकिन रवींद्रनाथ की कटु आलोचना उनके जीवन काल में ही प्रारंभ हो गई थी। आजीवन वे लोगों की ईर्ष्या और अज्ञान के कारण प्रताड़ित होते रहे। जीते-जी उन्होंने निजी जीवन में कई-कई दु:ख उठाए लेकिन उससे भी अधिक कष्ट पाया लोगों की कटोक्तियों से। पहले भी उन्हें ब्रिटिश एजेंट कहा जाता रहा है, कुछ लोग उन्हें बहुत अहंकारी मानते थे। उनकी आलोचना न केवल पीठ पीछे की जाती थी वरन ‘शनिबारेर चिट्ठी’, ‘नव भारत’, ‘मॉडर्न रिव्यू’, तथा ‘बंगदर्शन’ जैसे उस समय के अखबार और प्रसिद्ध पत्रिकाएं सीना ठोंक कर यह कार्य करते थे। रवींद्रनाथ टैगोर को केवल प्रशंसाएं नहीं मिलीं। उन पर और उनके लिखे पर तरह-तरह के प्रहार सदैव होते रहे हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर पर कैसे कैसे आरोप लगाए गए उन्हें युवा स्कूल टीचर बिजॉन घोषाल ने ‘रबिंद्र बिदूषण’ नामक डॉक्यूमेंट्री में बखूबी विस्तार से दिखाया है। नब्बे मिनट की यह फिल्म कलात्मक-संगीतात्मक रूप से टैगोर पर किए जाने वाले प्रहारों को प्रदर्शित करती है। सितार पर रवींद्र के उभरे चेहरे की आकृति कुछ पलों में छिटक कर सारी दिशाओं में बिखर जाती है। इसमें स्याही और संगीत का प्रयोग अपना योगदान करते हैं। घोषाल ने बरसों शोध करके सामग्री जुटाई है, जिसका उपयोग उन्होंने इस वृत्तचित्र में किया है और अभी भी उनके पास एक और फिल्म बनाने की पर्याप्त सामग्री है। कम बजट में बनी यह फिल्म काफी पीछे, 1885 तक जाकर कवि के जीवन को दिखाती है। घटनाएं किताब के अध्याय की भांति खुलती हैं और उनके समकालीनों को दिखाती हैं। उन पर हुए आक्रमणों को पुरानी पत्रिकाओं के पन्नों के रूप में परदे पर प्रस्तुत किया गया है। स्वयं को साहित्य आलोचना का धुरंधर मानने वालों ने उनके जीवन और कार्य की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
रवींद्रनाथ टैगोर पर सत्यजित राय और ऋतुपर्ण घोष ने भी डॉक्यूमेंट्री बनाई है मगर इन लोगों ने अपनी-अपनी फिल्मों में आलोचना के हिस्से को बाहर रखा है। बिजॉन घोषाल की फिल्म की विशेषता है कि वह टैगोर के इन स्वनामधन्य आलोचकों के प्रति दर्शकों में आक्रोश जगाती है। टैगोर के काम की पैरोडी की जाती रही, विश्व भारती के नाम पर रकम डकारने की बात हुई। मराठी आना थाकरे से उनके प्रारंभिक प्रेम पर ‘बसुमति’ के संपादक ने ‘प्रणोयेर परिनाम’ नाम से लेख लिखा। यहां तक कि नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी उन पर दुश्मनों का प्रहार न रुका। बल्कि दोस्त भी दुश्मन बन बैठे।
ध्यान देने की बात है ‘गीतांजलि’ की भूमिका लिखने वाले यीट्स को तब तक नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था। उन्हें दस साल बाद जा कर 1923 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। क्या यीट्स के मन में ईर्ष्या का भाव नहीं जगा होगा। ईर्ष्या बहुत शक्तिशाली नकारात्मक भावना होती है। कदाचित इसी भावना के वशीभूत हो कर यीट्स ने 1935 में लिखा, ‘डैम टैगोर’ उनकी बाद की रचनाओं के लिए यीट्स की टिप्पणी है, ‘भावात्मक कचड़ा’। एक अन्य इंग्लिश कवि फिलिप लार्किन ने 1956 में अपने एक मित्र को लिखा, ‘एक इंडियन ने मुझसे पूछा है कि रबींद्रम (ऐसा ही उसने लिखा है) टैगोर के बारे में मैं क्या सोचता हूं? मेरा मन करता है उसे एक टेलीग्राम भेजूं : ‘फक आॅल। लार्किन’।’ ग्राहम ग्रीन को शक था भला यीट्स के अलावा कोई उनकी (टैगोर की) कविताओं को गंभीरता से ले सकता है? एजरा पाउंड को भी कुछ ऐसा ही लगता था। अज्ञान और ईर्ष्या जो न कराए सो थोड़ा। असल में टैगोर का काल भारत की गुलामी का काल था। भारत अंग्रेजों के अधीन था अत: इन लोगों को लगता था भला टैगोर क्या इंग्लिश जानेगा। कोई भी भारतीय भला इंग्लिश क्या जानेगा। प्रभुओं की नजर में भारतीय जाहिल-जंगली थे।
बाहरी लोगों के प्रहार रवींद्रनाथ आजीवन झेलते रहे। निराला ने लिखा है, ‘दु:ख ही जीवन की कथा रही क्या कहूं जो अब तक नहीं कही।’ प्रकृति या किस्मत जो भी कह लें, ने भी रवींद्रनाथ के साथ कई क्रूर मजाक किए। उनका जीवन निजी त्रासदियों से भरा हुआ था। उनकी मां शारदा देवी आठ मार्च 1875 को गुजर गर्इं जब वे मात्र 14 साल के थे। और 22 साल का होते-न-होते उनकी बाल संगिनी, उनकी भाभी कादम्बरी (बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी) ने आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी मृणालिनी देवी 1902 में गुजर गर्इं। पांच साल (1902 से 1907 के बीच) के भीतर उनकी पुत्री रेणुका और सबसे छोटा बेटा शमींद्रनाथ भी गुजर गए। कुछ साल बाद 1918 में उनकी बड़ी बेटी माधुरीलता भी चल बसी। कैसे जीए कोई इतना दु:ख कलेजे पर लेकर! इतनी त्रासदी के बाद कोई साधारण व्यक्ति सामान्य और स्वस्थ जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। मगर गुरुदेव साधारण व्यक्ति नहीं थे। निजी विपत्तियों के बावजूद वे अपनी आध्यात्मिकता के बल पर सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे, सकारात्मक सृजन करते रहे। 1912 में वे लंदन में केवल एक व्यक्ति को जानने थे। एक साल बाद, नोबेल पुरस्कार (1913) के बाद सारी दुनिया उन्हें जान रही थी। भारत की ओर आदर की दृष्टि से देख रही थी। आज भी उनकी ख्याति धूमिल नहीं हुई है और न कभी होगी। आलोचक चाहे जितना भी प्रयास कर लें। कविंद्र रवींद्र पुरस्कारों के मोहताज नहीं हैं। वैसे इसमें कोई शक नहीं पुरस्कार साहित्यकार के जीवन में महत्व रखता है। ‘गीतांजलि’ ने न केवल टैगोर वरन भारत को विश्व साहित्य में स्थापित कर दिया। आज एक सौ पांच साल बाद भी साहित्य के दूसरे नोबेल पुरस्कार की भारत को प्रतीक्षा है।
इतना बड़ा पुरस्कार मिलने पर भी उनके आलोचक नरम न पड़े। बल्कि कुछ नए आलोचक पैदा हो गए। उनके सबसे अधिक आलोचक उनके गृह प्रदेश बंगाल में ही हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का कद विराट और भव्य था। उनकी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक हर टिप्पणी पर लोगों की दृष्टि रहती थी, उनकी हर बात का देशवासियों, खासकर बंगवासियों पर खासा प्रभाव पड़ता था। रवींद्रनाथ का परिवार बंगाल का एक संभ्रांत परिवार था। इस सुशिक्षित, सुसंस्कारित कुलीन परिवार में एक-से-एक प्रतिभावान व्यक्ति हुए। कला, भाषा-साहित्य-संस्कृति, अध्यात्म का केंद्र यह परिवार लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत था। इसी बंगाल के बौद्धिकों का एक समूह रवींद्रनाथ का घोर विरोधी था। इन लोगों ने उनके साहित्य पर लांछन लगाए, उनके निजी जीवन को नहीं छोड़ा… और तो और इंग्लिश में जिसे ‘बिलो द बेल्ट’ कहते हैं- वह प्रहार भी किया। कालीप्रसन्न काव्यविशारद एक आलोचक ने 1886 में प्रकाशित कविताओं पर आरोप लगाया कि इनमें वर्णित चुंबन और स्त्री के वक्ष बंगाल के परम्परागत समाज में विक्टोरियन मूल्य की सेंध हैं। उनकी शैली को लेकर आलोचना हो रही थी। टैगोर के ‘कारी ओ कोमल’ (शार्प एंड फ्लैट) शैली का मखौल उड़ाते हुए 1888 में कालीप्रसन्न काव्यविशारद ने छद्म नाम ‘मीठे कोरा’ (स्वीट एंड स्ट्रांग) नाम से कविताएं प्रकाशित कीं। एक और संपादक सज्जन थे सजनीकांत दास। वे अपनी साप्ताहिक साहित्यिक पत्रिका ‘शनिबारेर चिट्ठी’ में बराबर टैगोर पर व्यंग्य और कटाक्ष करते रहते थे। आलोचकों को रवींद्रनाथ के प्रतीक, रूपक और पोयटिक डिक्शन समझ में ही नहीं आया। चलो यहां तक तो ठीक था- लोगों की समझ का क्या किया जा सकता है। सबकी समझ और रुचि भिन्न होती है। लेकिन हद तो तब हो गई जब पिछली सदी के दूसरे दशक में एक पत्रिका ‘अबतार’ में प्रकाशित किया गया कि रवींद्रनाथ को यौन व्याधि सिफलिस हो गई है। बिना किसी प्रमाण के ऐसे निकृष्ट आरोप लगाना कहां की साहित्यिक आलोचना है? जिसका निशाना साहित्य न होकर व्यक्ति है।
इससे भली तो कवि, नाटककार, संगीतकार द्विजेंद्रलाल राय की दुश्मनी थी। इंग्लिश और बांग्ला भाषा में समान दखल रखने वाले लाल ने 1912 में एक नाटक लिखा ‘आनंद विदाई’। इसमें उन्होंने रवींद्रनाथ के उच्च वर्ग में लालन-पालन और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को दर्शाते हुए व्यंग्य किया। यह दीगर बात है कि उन्हें इस नाटक को मंचित करने की अनुमति कभी नहीं मिली। दोनों साहित्यकार एक-दूसरे का सम्मान करते थे। रवींद्रनाथ उनकी बुद्धि के कायल थे, उनका संबंध प्रशंसा का था। द्विजेंद्रलाल राय भी दिल खोल कर कविगुरु की प्रशंसा करते थे। उनके अनुसार रवींद्र अपने समकालीनों में सबसे ऊपर थे। राय के लिए कवि की उपस्थिति समारोह की तरह हुआ करती थी।
एक सच्चा साहित्यकार सदैव अपने समय से आगे होता है। रवींद्रनाथ का लेखन अपने समय से बहुत आगे का था। स्त्री मन की उनकी समझ अप्रतिम थी। उन्होंने एक कहानी लिखी ‘स्त्रीर पत्र’ (पत्नी का पत्र)। ध्यान देने की बात है कि यह कहानी आज भी खूब प्रसिद्ध है। इसमें वे पितृसत्तात्मक परिवेश में एक स्त्री के दारुण दु:ख को उकेरते हैं। लेकिन उस समय इसे बहुत सारे लोगों ने पसंद नहीं किया। न केवल इसे पसंद नहीं किया वरन इसकी खूब आलोचना भी की गई। आलोचकों के अनुसार यह एक अयथार्थवादी कहानी थी। ऐसी स्त्री एक हिन्दू स्त्री हो ही नहीं सकती थी। यदि एक शादीशुदा स्त्री कहानी में दिखाई गई स्त्री जैसा व्यवहार करेगी, तो वह कहां जाएगी? उसे कौन समाज स्वीकारेगा? इन आलोचनाओं को पढ़ते हुए इब्सन की नोरा स्मरण हो आती है उसे लेकर भी ऐसे ही प्रश्न उठाए गए थे। टैगोर की इस स्त्री और नोरा जैसी स्त्रियों ने आज की स्त्री के सशक्तीकरण की नींव रखी है। नारी अस्मिता की ये ज्वलंत मिसाल हैं।
साहित्यकार-आलोचक रवींद्रनाथ टैगोर की आलोचना कर रहे थे तो राजनीतिकों की आंखों में भी वे गढ़ रहे थे। लाल-बाल-पाल के बिपिन चंद्र पाल को ‘स्त्रीर पत्र’ कहानी व्यवहारमूलक नहीं लगी। यही नहीं जब 1910 में बांग्ला भाषा में ‘गीतांजलि’ प्रकाशित हुई तो किसी उपेंद्रनाथ कर ने ‘गीतांजलि समालोचना’ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित कर गीतांजलि की अधकचरी व्याख्या कर उसकी आलोचना की। और जब उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास (जिस पर बाद में सत्यजित राय ने फिल्म बनाई) ‘घरे-बाहरे’ लिखा तब तो मानो बंगाल में तूफान ही आ गया। उनके साथ राष्ट्रवाद विरोधी होने का पुछल्ला लग गया। उन्हें गांधी के स्वदेशी आंदोलन का विरोधी करार दिया गया। युवाओं को हताश करने और उनका मनोबल गिराने वाला कहा गया। चूंकि स्वदेशी आंदोलन महात्मा गांधी का स्वप्न था अत: कांग्रेसियों खासकर बंगाल के कांगेसियों का रवींद्रनाथ से खफा होना समझा जा सकता है। जबकि मोहनलाल को महात्मा बनाने में टैगोर का हाथ था- यह बात आज जगजाहिर है। दोनों का आपसी प्रेम और आदर भाव अंत तक बना रहा।
रवींद्रनाथ तीन देशों के राष्ट्रीय गान से जुड़े हैं लेकिन भारत के राष्ट्रीय गान ‘जन गण मन’ को लेकर उनकी बीच-बीच में आज भी आलोचना होती रहती है। कहा जाता है कि यह गान उन्होंने जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनकी चापलूसी के लिए लिखा था। सारी आलोचना की जड़ उस समय ब्रिटिश प्रेस में प्रकाशित लेख हैं। यह गीत जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनके स्वागत में गाया अवश्य गया था। कांग्रेस के लोगों ने गाया था। अपनी ‘इंडियाज नेशनल एंथम’ किताब में प्रबोध चंद्र सेन लिखते हैं कि ‘टैगोर ने स्वयं कहा है, कोई भी पूरी कविता पढ़ कर देख-जान सकता है कि यह किसी जॉर्ज पंचम या जॉर्जषष्ठम के लिए नहीं लिखी गई थी’।
इस महामानव को भी कष्ट होता था, इसे भी चोट लगती थी। शारीरिक से अधिक मानसिक और भावात्मक व्यथा कष्ट देती है। कितने कष्ट के साथ उन्होंने अपने एक विश्वासी को पत्र लिखकर अपनी व्यथा साझा की होगी इस बात को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है। कवि ने लिखा, ‘यह शर्म की बात होगी यदि मैं हरेक से मेरे कार्य या मेरे चरित्र की प्रशंसा की अपेक्षा करूं- न ही बंगाल में ऐसी अपेक्षाओं को पालने की कोई आशा है। लेकिन मेरे विरोध में घृणित टिप्पणियां होती हैं- मेरे चारों ओर चापलूसों की एक भीड़ रहती है जो मेरी प्रशंसा गाते रहते हैं और मुझे मेरी असफलताओं को देखने से रोकते हैं।’ जीवन के अंत की ओर वे एकाकी और उपेक्षित अनुभव कर रहे थे। उन्होंने एक पत्र में लिखा कि पश्चिम तो उन्हें समझने में नाकामयाब रहा है लेकिन उससे भी अधिक दु:ख उन्हें इस बात का है कि उनके अपने देशवासी उन्हें नहीं समझते हैं, उनके लिए कोई तदनुभूति नहीं रखते हैं। क्या हर सफल आदमी जीवन के अंत की ओर ऐसा ही अकेला और हताश अनुभव करता है। जीवन की कैसी विडम्बना है यह? असल में हर महान व्यक्ति, प्रत्येक स्वतंत्र चिंतक की भांति रवींद्रनाथ भी तमाम मिथ और विवाद का विषय रहे हैं। परंतु इससे उनकी कांति धूमिल नहीं होती है।