नया एससी/एसटी कानून दलितों का उत्पीड़न रोकने में कितना मददगार होगा?
जब भी कोई कानून बनता है तो उसके पीछे एक जनरल फिलासफी है। वह यह है कि चूंकि सामान्य कानून एससी/एसटी के खिलाफ अपराध रोकने में सक्षम नहीं हैं इसलिए विशेष कानून बनाने चाहिए। तो ये कानून इसी फिलासफी के तहत बने हैं। उधर हम देख ही रहे हैं कि एससी/एसटी पर ज्यादतियां बदस्तूर जारी हैं। जैसे राजस्थान में डेल्टा मेघवाल का मामला सामने आया। उस दलित छात्रा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई और शव पानी की टंकी में डाल दिया गया था। उसके पहले रोहित वेमुला का मामला आया था। अभीकेरल में भीएक दलित लड़के को मार दिया। तमिलनाडु में भीएक दलित को प्रेम प्रकरण में आॅनर किलिंग के तहत मार दिया गया था। मैं यही कह रहा हूं कि दलितों का उत्पीड़न अभीभीजारी है। उसमें कोई गिरावट नहीं आई है। आप इसको नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो से देख लीजिए या एससी/एससी एक्ट से। आप अनुसूचित जाति–जनजाति आयोग की वेबसाइट पर देख सकते हैं कि हर साल दलित पर कितने अपराध हो रहे हैं। मोटा मोटी पिछले पच्चीस सालों का आंकड़ा बताता है कि प्रतिदिन दलितों के खिलाफ अट्ठासी वारदातें होती हैं। इनमें दो की हत्या होती है, तीन महिलाओं से बलात्कार होता है और बारह के आसपास दलित बुरी तरह से जख्मी किए जाते हैं।
अब दिक्कत यह है कि आप कानून होते हुए भीदलितों पर अत्याचार व अपराध रोक क्यों नहीं पा रहे हैं। आपने एससी/एसटी कानून में संशोधन किया। उसके लिए धन्यवाद। लेकिन उसे जमीनी स्तर पर लागू कैसे किया जाएगा? लागू कराने वाली कोई एजेंसी है क्या? नहीं है। फिर ऐसे में दलित खुद जाए शिकायत लेकर। तो दलितों के पास इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने गांव के किसी भारी भरकम आदमी या दबंग के खिलाफ शिकायत कर सके। मान लीजिए शिकायत दर्ज हो भीगई तो उसे आगे कौन बढ़ाएगा, पैरवी कौन करेगा। उसे तो दबाव डालकर खिंचवा लिया जाएगा। यूपी में राजा •ौया ने न जाने कितने दलितों पर अत्याचार किए उस पर कौन दलित एक्ट के तहत कार्रवाई कराएगा?
मेरा यही कहना है कि आपने इस प्रकार की कोई एजेंसी नहीं बनाई है जो इस कानून को लागू करवा सके। निगरानी के लिए एससी/एसटी कानून में एक क्लॉज है कि अगर आप जुडिशियरी के पास सीधे चले जाएं तो एफआईआर दर्ज हो जाएगी। अगर आप एफआईआर दर्ज करा भीदेते हैं तो उसकी पैरवी कौन करेगा। पैरवी करने वाला वकील आसानी से मिलेगा नहीं।
तो क्या कानून फिजूल है?
एक बात बाबा साहेब आंबेडकर बहुत पहले कहते थे कि आप कानून से भाईचारा नहीं लागू करवा सकते। चूंकि कानून एक व्यक्ति को सजा दे सकता है, पूरे समुदाय को सजा नहीं दे सकता। विडंबना यह है कि यहां समुदाय ने दलितों को अपने भाई के रूप में स्वीकृत नहीं किया है। तो भाईचारा कैसे स्थापित होगा। समानता के लिए कानून बनाया जा सकता है… एवरीवन इज ईक्वल इन फ्रंट आॅफ लॉ। स्वतंत्रता के लिए भीबना सकते हैं। लेकिन भाईचारे के लिए कानून नहीं बना सकते। भाईचारा तो समाज के अंदर स्वत: प्रस्फुटित होगा। लेकिन उसके लिए कोई मेकेनिज्म, कोई आंदोलन या प्रयास मुझे नहीं लगता कि हम दिखा रहे हैं। और जब तक समुदाय नहीं मानेगा तब तक हर कानून असफल हो जाएगा। कोई भीकानून आप बना लें। क्योंकि समुदाय को ही तो लागू करना है कानून। आप एक आदमी को तो सजा दे देंगे लेकिन पूरे गांव को कैसे सजा देंगे जबकि दलित का बहिष्कार पूरे गांव ने किया था। और पूरे गांव के खिलाफ दलित एफआईआर भीनहीं करा सकता है। इसीलिए कानून आप कोई भीबना लें, उसे कितना भीगहरा कर लें, उससे कोई फर्क नहीं आ रहा है।
एससी/एसटी कानून कड़ाई से लागू किया भीगया तो इसके दुष्परिणाम भीसामने आए। इसका ज्यादा इस्तेमाल सवर्ण लोगों ने अपने सजातीय लोगों से ही दुश्मनी निकालने व उन्हें फंसाने के लिए किया?
ऐसा नहीं है। अभीतक ऐसा कोई भी रिसर्च नहीं आया है। कम से कम मैंने तो नहीं देखा है। ऐसा केवल कहा जाता है। सच तो यह है कि एससी/एसटी कानून लागू हो ही नहीं पाया है।
इस कानून का पहली बार मायावती ने 1995 में उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालने के बाद उपयोग करना शुरू किया था। उन्होंने जब पहली बार इस कानून का उपयोग करना शुरू किया गया तो लोगों ने कहा कि दुरुपयोग हो रहा है। इसको रोका जाए। मुझे लगता है कि गैर सरकारी संस्थाओं में कुछ लोग हैं जो इसे लागू करवाना चाहते हैं। लेकिन अपराधों की संख्या इतनी जघन्य होती है कि ज्यादा कुछ हो नहीं पाता। अब सीधी सी बात है कि बेचारे दलित को उसी गांव में रहना है। उसी गांव के दबंग ने एक बार मारा है तो कोई बचाने नहीं आया तो दूसरी बार मारेगा तो कैसे बचाने आएगा कोई? असंभव होता है कि किसी दबंग या शक्तिशाली के खिलाफ आप गांव में रिपोर्ट लिखा पाएं और पैरवी कर पाएं।
तो आप कह रहे हैं कि कानून का दलितों की दशा पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा?
हां, क्योंकि कानून प्रभावी नहीं हो पाएगा। उसे प्रभावी रूप से लागू नहीं कराया जा सकता।
तो एससी/एसटी कानून को सुधार मानते हैं या केवल दिखावा?
मेरा मानना है कि कुछ होना चाहिए। इसे प्रयास कहा जा सकता है पर यह प्रभावी नहीं है। एससी/एसटी कानून में जो भीसंशोधन हैं उनकी कवायद तो काफी पहले से कांग्रेस के समय से ही चल रही थी। कानून से बहुत फर्क पड़ने वाला इसलिए नहीं है क्योंकि उसका इफेक्टिव इंप्लीमेंटेशन (प्रभावी तरीके से लागू) नहीं हो पाता है।
कानून प्रभावी तरीके से लागू कैसे हो सकता है?
इफेक्टिव इंप्लीमेंटेशन के चार स्तर हैं। पहला– वारदात जहां हुई वहां के स्थानीय लोग। क्या स्थानीय लोगों का दबाव इतना है कि वह एफआईआर कर सकता है। दूसरा– थानेदार। क्या थानेदार उसकी रिपोर्ट लिखेगा। तीसरा– और लिख भीलेगा तो मुकदमा। मुकदमा जब तक सुनवाई पर आएगा तब तक कितने दिन बीच जाएंगे तफतीश होने में। चार– फिर अदालत और वकील। अब इतने दिन बाद मुकदमे की पैरवी शुरू होगी। तब कौन अदालत जाकर बताएगा कि क्या हुआ था। कौन गवाही देगा। कानून तब तक प्रभावी नहीं हो सकता है जब तक सामाजिक और सामुदायिक पहल न हो।
सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी इसमें क्या कर सकती है?
मैं तो कह रहा हूं कि अगर आप दलितों के लिए कुछ करना ही चाहते हैं तो प्रतिनिधित्व के शुरू कीजिए। दीजिए प्रतिनिधित्व। कांग्रेस की यूपीए सरकार में स्पीकर, गृहमंत्री एससी/एसटी के लोग थे। आज भाजपा की एनडीए सरकार के समय में कौन हैं? केवल एक कैबिनेट मंत्री दलित है– थावर चंद गहलोत। वह भीकभीनहीं बोलता है दलितों के लिए। जब शीर्ष स्तर पर नेतृत्व नहीं होगा तो दलित समाज का मनोबल नहीं बढ़ेगा। मायावती को दलित इसलिए थोड़े ही पसंद करते हैं कि उन्हें दाल–चावल खिला रही है या सोना लुटा रही है। वहां उन्हें दलित प्रतिनिधि दिखाई देते हैं और वे प्राकृतिक अस्मिताओं के कारण उनसे जुड़ जाते हैं कि ये हैं तो हमें न्याय मिल जाएगा। प्राकृतिक अस्मिताओं का यह जो मनोवैज्ञानिक प्रतिनिधित्व होता है वह बड़ा प्रभावी होता है। कानून से ज्यादा कारगर होगा कि दलितों को वि•िान्न क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व दिया जाए। जुडीशियरी, ब्यूरोक्रेसी में कितने लोग हैं एससी/एसटी के। जब प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो मनोबल कैसे बढ़ेगा। मनोबल नहीं बढ़ेगा तो दलित अपना काम करवा नहीं पाएगा।
क्या आपको लगता है कि सरकार जो नया एससी/एसटी कानून लाई है उससे सरकार, पार्टी या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर दलितों की भावनाओं में कोई परिवर्तन होगा?
इक्कीसवीं सदी में माई–बाप कल्चर से दलित रीझने वाला नहीं है। उसे स्व–प्रतिनिधित्व चाहिए जिसमें वह अपने भाग्य का निर्माण करता हुआ दिखाई पड़े। उसको बुलवाइए कहीं पर। बताइए भारतीय जनता पार्टी में कौन प्रवक्ता दलित है? आपके दल में एक भीप्रवक्ता दलित नहीं है। कैसा प्रतिनिधित्व है यह? उत्तर भारत में कौन दलित नेता है जो भाजपा का प्रतिनिधित्व करता हो। बिहार में आप जीतन राम मांझी को लेकर आते हो। वह आयातित नेता हैं। रामविलास पासवान भीआयातित हैं। उत्तर प्रदेश में आपके पास एक भीदलित चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा। मध्य प्रदेश में थावर चंद गहलोत हैं जो बोलते नहीं हैं। जैसे मुंह बंधा हुआ है। गुजरात, महाराष्टÑ में भीकोई नहीं दीखता। तो बचा क्या? कौन चेहरा है आपके पास। कौन बोलेगा उनकी भाषा। अगर दलितों पर कोई अत्याचार हो जाए तो वह किसके पास जाएगा। उनकी हिम्मत है किसी के पास जाने की? तो जब आपकी केंद्र सरकार में दलितों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। आपकी राज्य सरकारों में, संस्थाओं में उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई पड़ रहा है तो व्यक्ति का सशक्तिकरण कैसे होगा… केवल चौदह अप्रैल (आंबेडकर जयंती) मना लेने से? इससे कुछ नहीं होगा। उन्हें वे अधिकार चाहिए जिनसे अपनी विचारधारा के आधार पर वे कुछ इम्प्लीमेंट कर सकें। राजस्थान में दलित लड़की डेल्टा की बलात्कार के बाद हत्या के मामले में एक भीकोई बोला कहीं। एक केस निर्भया का हो गया था तो लोग मोमबत्ती जलाए चल रहे थे पूरी दिल्ली के अंदर। पूरे देश में मामला गूंजा था। जंतर मंतर पर बलात्कार की शिकार दलित महिलाएं अभीभीबैठी हुई हैं धरने पर, कोई बोल रहा है उनके पक्ष में?
तो क्या होना चाहिए सामाजिक समरसता के लिए?
उसको समरसता मत कहिए। सामाजिक संरचना में परिवर्तन। संरचनात्मक परिवर्तन। समरसता तो यह होती है कि समाज की संरचना यूं ही बनी रहे, बस उसमें कुछ कास्मेटिक चेंज हो जाए। प्रयास हर स्तर पर होने चाहिए। संरचनात्मक परिवर्तन होने चाहिए जिसमें व्यक्तियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिखाई पड़े। राजनीतिक प्रतिनिधित्व को पहले नंबर पर इसलिए लिया क्योंकि राजनीति आज इतनी बड़ी है कि हर व्यक्ति को प्रभावित करती है। उसमें दलितों का प्रभावी नेतृत्व होना चाहिए। प्रधानमंत्री कह रहे थे कि संसद में नए सदस्यों को बोलना चाहिए। कितने दलितों को बुलवा दिया उन्होंने। संसद में सवाल ही नहीं पूछ पाते वो तो। तो आप उनको मंत्री बनाइए, कैबिनेट मंत्री बनाइए। अपनी पार्टी का प्रवक्ता बनाइए। उन्हें पार्टी में अच्छा पद दीजिए। यह क्या कि आपने एक दलित को पार्टी उपाध्यक्ष बना दिया। उपाध्यक्ष की क्या हैसियत होती है अध्यक्ष और महामंत्री के सामने। एससी/एसटी की सत्रह प्रतिशत आबादी है। उस हिसाब से उन्हें पार्टी में एकाध महत्वपूर्ण पद दीजिए। जिसमें जिम्मेदारी वाला काम हो, निर्णय लेने की क्षमता हो और वह निर्णय को प्रभावी तरीके से लागू भीकरवा सके। तब परिवर्तन दिखाई पड़ेगा। अभीतो देखिए ‘यस सर, यस सर’ कर रहे हैं सब। दूसरा परिवर्तन है शैक्षणिक। कितने एससी/एसटी वाइस चांसलर हैं। सैंतालीस केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं जिनमें केवल एक है। वह भीएसटी है अमरकंटक में। उसे भीकांग्रेस सरकार ने बनाया था। इस सरकार ने नहीं बनाया। अब दिल्ली यूनिवर्सिटी के तहत अस्सी कॉलेज हैं। केवल एक एससी प्रिंसिपल है। तो शिक्षा के अंदर आप दलितों को यह प्रतिनिधित्व दे रहे हैं। फिर जो आपका पाठ्यक्रम है उसमें दलितों के नायकों और नायिकाओं को पढ़ाते नहीं हैं। लग रहा है जैसे सब काम गांधी, नेहरू, टैगोर ने कर दिया। और ‘ये लोग’ आ गए तो बाकी का काम ये लोग कर देंगे। तो कैसे दलितों का सशक्तीकरण होगा। उन लोगों ने तो लगता है जैसे कुछ किया ही नहीं। प्राथमिक शिक्षा तक में तो दलितों का प्रनिनिधित्व है नहीं। स्कूल खोलने से क्या होगा। प्राथमिक शिक्षा में दलित छात्रों के लिए दलित शिक्षक भीढूंढकर लाना पड़ेगा। जो आत्मनिर्भर वस्तुनिष्ठ तरीके से पढ़ा सकें। अभीतो पढ़ाने वाला सवर्ण है, मारता है छड़ी कसकर, दलित लड़का डरकर भाग जाता है। और इस सर्व शिक्षा अ•िायान ने तो और गुड़ गोबर कर दिया। चमरौटी के बगल में चमार वाला स्कूल। पसियाने के बाजू में पासियों वाला स्कूल। वाल्मीकि बस्ती से लगा वाल्मीकि वाला स्कूल। सब जानते हैं कि कौन पढ़ने आ रहा है इसलिए पढ़ाने जाना कोई पसंद नहीं करता।
आरएसएस चला रही है एक भाईचारे वाला कार्यक्रम। एक कुंआ, एक मरघट और एक मंदिर। अब बताइए कि मंदिर जाकर क्या कर लोगे? उससे क्या भाईचारा बढ़ेगा। मंदिर कोई जब जाए या जब न जाए। वैसे भीकोई रोज तो मंदिर जाता नहीं। उससे क्या होगा। हां शिक्षा सबको चाहिए। अगर आप एक स्कूल बनाएं तब तो ठीक है। सब लोग वहीं पढ़ें। हिम्मत है तो अपने बच्चे को पढ़ाइए उसी स्कूल में। और पाठ्यक्रम भीतार्किक होना चाहिए। ऐसा नहीं कि एक जगह गंगाजी स्वर्ग से उतर रही हैं और ज्याग्रफी में वो गोमुख से निकल रही हैं। अब कुंए में कौन पानी पीता है। उसे हैंड पाइप करो। एक हैंड पाइप होना चाहिए। तो आप हैंड पाइप लगवाइए। मूलभूत सुविधाएं दीजिए वहीं पर।