सिक्किम सीमा से मनोज कुमार
बार्डर पर क्या चल रहा बस यही जानना चाह रहा था
मेरे पास सेना के पब्लिक रिलेशन्स डायरेक्टर का वह मंजूरी पत्र था, जिसमें उन्होंने फ्रंट तक जाने की इजाजत दी थी। मोबाइल में वाट्सअप से आए इस पत्र को मैं बहुत ही हिफाजत से संभाल रहा था क्योंकि यही एकमात्र दस्तावेज था, जो मुझे फ्रंट तक जाने की इजाजत दिलाता। यही एकमात्र संदेश था जो सिक्किम में फ्रंट की ओर जाते वक्त मेरा दोस्त, हमसफर, गाइड और सबकुछ था। मुझे यकीन था इस पत्र को देखने के बाद सिक्किम की राजधानी गंगटोक में तैनात सेना के अधिकारी मुझे फ्रंट या फिर वहां तक जाने की इजाजत दे ही देंगे जहां तक जाने से देश व सेना की सुरक्षा को खतरा न हो। जैसे ही मेरी फ्लाइट ने बृहस्पतिवार दोपहर बाद बागडोगरा के एयरफोर्स के एयरपोर्ट के रनवे को छुआ मैं जोश और उत्साह से लबरेज हो गया। बड़ी तेजी से एयरपोर्ट से बाहर आया। एक टैक्सी की और सिलीगुड़ी पहुंच गया। सिलीगुड़ी से मुझे तुरंत ही गंगटोक की टैक्सी मिल गई। अपनी आदत के मुताबिक टैक्सी चालक से मैंने तुरंत दोस्ती कर ली। उससे ही नाथूलादर्रे तक पहुंचने के लिए मदद मांगी। उसने हामी भरी और नाथूला के लिए अपने दोस्त की टैक्सी बुक कर दी। मैंने राहत की सांस ली। लगा यूं ही डर रहा था। यहां तो सब कुछ इतना आसान है। रात करीब 8 बजे मैं गंगटोक पहुंच गया। सीधा टैक्सी वाले के पास। बातचीत हुई। उसने बताया रास्ता बंद है। इसलिए पास नहीं मिलेगा। मैंने कहा चिंता न करो, मेरे पास दिल्ली से इजाजत है। उसने पूछा कौन हैं आप? मैंने कहा रिपोर्टर हूं। वह सुबह चलने के लिए तैयार हो गया। मैंने वहां जितनी जानकारी उससे मिल सकती थी ली, इस कोशिश में रात के 11 बज गए। मैं तुरंत एक सस्ते से गेस्ट हाउस में पहुंचा। सुबह से कुछ नहीं खाया था, सोचा था गेस्ट हाउस में कुछ मिल जाएगा। लेकिन उसकी मालकिन ने कहा कुछ नहीं है, बस एक कप चाय या कॉफी मिलेगी। मैंने कहा चाय पिला दो। मुझे भूख की चिंता नहीं थी, बस उत्साह था कब सुबह हो और मैं नाथूला दर्रे की ओर निकलूं। छह बजे मैं तैयार हो गया, टैक्सी वाला अभी नहीं आया था। नाथूला जाने के लिए सेना की ओर से पास मिलता है। मैं तुरंत वहां स्थित सेना के मुख्यालय पहुंच गया। संतरी ने रोका तो उन्हें दिल्ली वाला लेटर मोबाइल से दिखाया। यही सोच रहा था बस अब सब आसान हो जाएगा। गेट पर खड़ा वह सैनिक जो खुरदरे लहजे में बात कर रहा है अब नर्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने फोन से अपने सीनियर से बात की। सीनियर को बताया कि कोई रिपोर्टर है, दिल्ली से लेटर भी लेकर आया है। नाथूला जाने की इजाजत मांग रहा है। क्या करें? उसके सीनियर ने उससे मोबाइल पर बात करने को बोला। तब वह सैनिक गेट से कुछ दूर चला गया। गेट पर दूसरा गार्ड मेरे पास आ गया। हल्की बरसात हो रही थी। तभी वहां एक जिप्सी पहुंची, इसमें से कुछ सैनिक उतरे। एक बोला, यार पूरी यूनिट बार्डर पर पहुंच गई। रात हनुमान चौकी पर ठंड लग गई। तबीयत खराब है। गार्ड ने उसे बोलने से मना करते हुए मेरी ओर इशारा किया, दिल्ली से रिपोर्टर आया है, चुप रहो। मुझे उम्मीद थी यह सैनिक शायद बातचीत में बार्डर के हालात की जानकारी देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इधर अपने सीनियर से बात करने वाला गार्ड बातों को गोल गोल घुमा रहा था। उसने कई सारी काल की। तकरीबन दो घंटे बाद कहा कि हमारा सीनियर यहां नहीं है। मैंने कहा कहां मिलेगा? उसने कहा तीन माइल चौक पर। मैं तुरंत तीन माइल की ओर निकल पड़ा। अभी सड़क पार कर ही रहा था कि उसने मुझे आवाज देकर वापस बुलाया। बताया कि वहां भी कोई नहीं मिलेगा। सब ऊपर गए हैं। ऊपर कहां? मैंने पूछा। उसने कहा कि पेट्रोलिंग पर। मैंने कहा इंतजार कर लेता हूं। लेकिन उसने कहा कि आप वहां नहीं जा सकते। हमारे सीनियर ने मना किया है। मैंने पूछा क्यों मना किया है। मैं तो बस उतनी ही जानकारी चाह रहा हूं जितनी वो दे सकते हैं। जिससे देश व सेना का अहित न हो। वह नहीं माना। उसने कहा कि आप को इजाजत नहीं मिलेगी। हालांकि उसकी बातों से मैं अंदाजा लगा रहा था कि सीनियर वहीं था। पर वह मिलना नहीं चाह रहा था।
सेना के पब्लिक रिलेशन का वह आज्ञा पत्र अब मुझे बेकार होता नजर आ रहा था। इधर बारिश तेज हो गई। मैं लगभग भीग गया। इसी बीच मुझे टैक्सी वाले का ध्यान आया। मैं उसके पास गया और उससे गुजारिश की कि मदद करो। उसने बताया कि वह कुछ जुगाड़ करता है।
यूं हुई नाथूला जाने की मुश्किल आसान, लेकिन…
दस बजने को आ गए। इसी बीच गंगटोक के टैक्सी चालक नौरबू हक्सी जो कि एक बौद्ध हैं, ने एक दूसरी टैक्सी बार्डर के गांव से बुला ली। दरअसल नौरबू को पता था कि मैं दिल्ली से आया रिपोर्टर हूं। गंगटोक में उसके समुदाय के लोग लंबे समय से रिले भूख हड़ताल कर रहे थे। नौरबू मेरी मदद कर अपने समुदाय की मांग को दिल्ली के मीडिया में प्रकाशित कराना चाह रहा था। यही वजह थी कि वह मेरे लिए रिस्क भी उठाने को तैयार था। उसने आनन-फानन में नाथूला के गांव के एक टैक्सी चालक शंगून डोरजे को बुला लिया। मैं सोच रहा था कि आज का दिन खराब हो रहा है, लेकिन यह तो मुश्किल आसान हो गई। लगभग 12 बजे तक वह चालक आ गया। किराया तय किया और हम नाथूला की ओर निकल पड़े। इस टैक्सी चालक का स्थानीय पास है, जिसे दिखा कर वे आराम से नाथूला तक जा सकते हैं। मेरे लिए यह काफी था। हम निकले। रोड बहुत खराब थी। मैं यही सोच रहा था कि यदि लड़ाई शुरू हो जाती है तो इस रोड से शायद ही बार्डर तक तेजी से मदद पहुंचाई जा सके। अभी हम कोई 30 किलोमीटर दूर स्काउट कैंप तक पहुंचे थे कि एक गांव आ गया। मैंने गाड़ी रुकवाई और ग्रामीणों से बात करने लगा। मैं अपने मोबाइल फोन में उनकी बात रिकार्ड कर रहा था। इसी बीच उस ड्राइवर को पता नहीं क्या हुआ, मेरी ओर आया और कहा साहब वापिस चलो। मैंने कहा कि क्यों हमें तो आगे जाना है। उसने कहा नहीं आप गलत आदमी हो। मैं आपको आगे नहीं ले जा सकता। मैंने उसे अपना आईकार्ड दिखाया, लेटर दिखाया। लेकिन वह मानने को तैयार नहीं था। मैं इस स्थिति में नहीं था कि कुछ कर सकूं। मजबूरी थी, मैं गाड़ी में बैठ गया। वह वापस ले आया। तकरीबन छह बजे हम वापस आ गए। उसे लगा कि मैं कोई जासूस या फिर गलत व्यक्ति हूं। इसलिए वह मुझे आगे नहीं ले गया।
धार्मिक स्थल से ताकत ले रहे सैनिक
दूसरा दिन खत्म हो रहा था, जानकारी के नाम पर हाथ में कुछ भी नहीं। अब क्या होगा। मैं इसी सोच में गंगटोक के एमएसजी रोड से नीचे आ रहा था। वहां एक धार्मिक स्थल पर आ गया। एक बड़े थर्मस में चाय रखी थी, मैंने एक गिलास में चाय भरी और पीने लगा। अभी दस मिनट ही हुए होंगे कि वहां कुछ सैनिक वर्दी में आ गए। उन्होंने पूजा की, बारिश अभी भी हो रही थी। लिहाजा वे भी मेरे पास बैठ गए। चाय के गिलास उन्होंने भी ले ली। वे आपस में बात करने लगे। तब पता चला कि गंगटोक की 70 फीसदी आर्मी बार्डर पर तैनात है। एक फौजी जिसकी ढाई साल की सर्विस हुई थी, बता रहा था कि चीन ने पूरी तैयारी कर रखी है। उनके बंकर स्टील के हैं। डोकलाम तक फोर लेन रोड है। उसने बताया कि चीन की सप्लाई लाइन बहुत मजबूत है। उस सैनिक ने बताया कि हमारे सैनिकों का हौसला तो बुलंद है। लेकिन बिन राशन और गोला बारूद के क्या करेंगे? मैंने पूछा डर रहे हो क्या? उसने कहा नहीं। पर हमारे इधर स्थिति अच्छी नहीं है। हम तंबुओं में रह रहे हैं। बारिश में तंबू टपक रहे हैं। इन सैनिकों ने बताया कि बोफोर्स भी लगा दी गई है। उन्होंने कुछ फोटो भी दिखाए। मैंने कहा कि कुछ फोटो मुझे दे दो, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। मुझे जानकारी मिलनी शुरू हो गई थी। लगा कि यही जगह ठीक है। लेकिन दिक्कत यह थी कि धार्मिक स्थल के मुख्य सेवादार को पता लग गया था कि मैं रिपोर्टर हूं। अभी उन फौजियों की आपस की बातचीत को करीब 20 मिनट गुजरे थे कि मुख्य सेवादार वहीं आ गया। यह धार्मिक स्थल सेना का था, मुख्य सेवादार भी सैनिक ही था। उसकी कोई बीस साल की सर्विस हो चुकी थी। वह मौके पर आया और फौजियों को बातचीत करने से मना कर दिया। जानकारी का यह सोर्स भी बंद हो गया। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैंने ऐसा व्यवहार किया कि मुझे इनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है। यह दिखाने के लिए कि मुझे फौजियों की उपस्थिति से कोई मतलब नहीं है, मैं वहां से निकल कर एमजी रोड की ओर आ गया। एक बार फिर से नौरबू की शरण में आने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं था।
फिर तय किया रंपू से होते हुए जुलू कुपुक और फिर नाथूला दर्रे तक जाया जाए। मेरा सब्र जवाब दे रहा था। वापस जाकर क्या जवाब दूंगा। यही सोच रहा था। मैंने एक बार फिर से नौरबू से मदद मांगी। पूछा कि क्या कोई दूसरा रास्ता है। उसने बताया हां है, लेकिन खतरा है। क्योंकि वहां सेना जगह-जगह तैनात है। मैंने कहा कोई बात नहीं। जुगाड़ करो। उसने बताया कि यहां से पुलिस का एक पास वाया कुपुक बनवाया जा सकता है। उसकी जानपहचान है। फिर वहीं के लोकल टैक्सी वाले को वह बुला लेगा। मैंने कहा कि यह तो बहुत अच्छा होगा। उसे पास बनवाने के पैसे दिए। मैं फिर धार्मिक स्थल में आ गया। बारिश और सर्दी से मैं ठिठुर रहा था, वहां सेवादार ने मुझे भोजन के लिए आमंत्रित किया। मैं तो पिछली रात से भूखा था सो तुरंत खाना खाने बैठ गया। खाना खा मैं तकरीबन रात 11 बजे अपने गेस्ट हाउस में आ गया। नींद नहीं आ रहीं थी, क्योंकि सुबह का इंतजार हो रहा था।
रेशम रोड, बेहद खस्ता हाल सड़क
सुबह चार बजे हम रवाना हो गए। यह रास्ता लंबा है और दिन में सेना की पेट्रोलिंग बढ़ जाती है। इसलिए सुबह निकलना ठीक था। तय हुआ मेरा पास वाट्सअप से आ जाएगा। ड्राइवर वहीं का लोकल था, वह मुझे बार्डर के अंतिम गांव में छोड़ देगा। नौरबू ने एक और अच्छा काम किया, ड्राइवर को समझाया और कुपुक में एक बुजुर्ग के यहां मेरे रहने का इंतजाम भी करा दिया। इस बार मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाह रहा था। इसलिए मैंने ड्राइवर का बता दिया कि मैं एक रिपोर्टर हूं। अभी सिर्फ यहां के हालात देखने आया हूं। कुछ फोटो आदि लेकर अपने संपादक से विचार कर तय करेंगे कि यहां स्टोरी करनी है या नहीं। उस ड्राइवर को ज्यादा चिंता भी नहीं थी। तकरीबन साठ किलोमीटर पहाड़ी रास्ता तय करने के बाद आखिरकार हम सिल्क रूट पर आ गए। यह कहने का ही सिल्क रूट। यह वही रास्ता है जिस पर चीन की नजर है। यदि डोकलाम तक सड़क बन जाती है। चीन इस रास्ते का सीधा उपयोग कर सकता है। इस तरह से भारत की सुरक्षा को चीन की सड़क से खतरा है। इस रास्ते के पुल बेहद कमजोर थे। कई जगह सड़क घंस गई थी। रोड इतनी तंग थी कि एक समय में एक ही गाड़ी गुजर सकती थी।
मेरा दुर्भाग्य अभी भी साथ नहीं छोड़ रहा था, क्योंकि हम सुबह निकल रहे थे इसलिए उस दिन मेरा पास नहीं बन पाया। गंगटोक से उस बुद्धिस्ट आॅपरेटर का फोन आया कि उसका आॅफिसर आज नहीं आया। इसलिए पास कल बनेगा। अब क्या होगा, मैं सोच रहा था। तभी ड्राइवर ने कहा कि आप चिंता न करें मैं आपको लेकर चलता हूं। बारिश ने काम आसान कर दिया क्योंकि चेकपोस्ट पर फौजी तैनात तो थे, लेकिन वे गाड़ी में झांकने नहीं आ रहे थे। मैं पिछली सीट पर सिर झुकाए चेकपोस्ट पार कर रहा था। दिन के करीब एक बजे आखिरकार हम उस विवादित इलाके में पहुंच गए। वहां आबादी का कोई नामोनिशान नहीं था। सिर्फ फौजियों के बंकर थे। जगह-जगह चेतावनी के बोर्ड थे- लाल झंडा दिखाई दे तो समझो फायरिंग हो रही है। मैंने बंकरों की कुछ फोटो ली, इस इलाके की वीडियो बनाई। मैं पहला पत्रकार था जो इस इलाके में पहुंचा था। हम कुपुक से आगे नाथूला की ओर पहुंच गए। बारिश और धुंध ने काम आसान कर दिया। हालांकि वीडियो अच्छा नहीं बन रहा था, फिर भी मुझे संतोष था कि अपने मकसद में कामयाब हो रहा हूं। मैं मुख्य बार्डर से पांच किलोमीटर पीछे तक पहुंच गया। कुछ प्राइवेट गाड़ियां सैनिकों का खाना और चिकन आदि लेकर आ रही थीं। इसलिए हमारी ओर किसी सैनिक ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। इसके साथ ही वह गाड़ी स्थानीय थी। इसका भी लाभ मुझे मिल रहा था। ड्राइवर ने मुझे गाड़ी से बाहर आने से मना कर रखा था। आखिरकार हमने बार्डर और उसके तनाव को महसूस किया। हम फिर वापिस आ गए।