आनंद प्रधान।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के पहले चरण- रिपब्लिकन और डेमोक्रटिक पार्टी की प्राइमरी में यह कुछ सनसनी और उससे ज्यादा मजाक की तरह शुरू हुआ। उस समय किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि यह मजाक इतना भारी पड़ने जा रहा है। पिछले साल जून में जब अरबपति रियल एस्टेट कारोबारी डोनाल्ड जे ट्रंप ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी के लिए दावेदारी पेश करने का ऐलान किया तो इसे एक मजाक की तरह ही लिया गया। ज्यादातर राजनीतिक पंडितों ने ट्रंप की दावेदारी को न सिर्फ हंसी में उड़ा दिया बल्कि इसे ट्रंप की सनसनी और सुर्खी बटोरने की कोशिश के रूप में देखा। खुद रिपब्लिकन पार्टी में इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया।
रिपब्लिकन पार्टी की प्राइमरी के शुरुआती दौर की टीवी बहसों में नस्ली, सांप्रदायिक, जहरीले और विवादस्पद बयानों के बावजूद लोकप्रियता रेटिंग में ट्रंप के आगे चलने के बाद भी न तो राजनीतिक पंडित और न ही रिपब्लिकन पार्टी के नेता ट्रंप को गंभीर उम्मीदवार मानने के लिए तैयार थे। उन सबको लग रहा था कि एक खब्ती, बड़बोले, अहंकारी, ग्लैमर और रियलिटी टीवी स्टार, अरबपति रियल एस्टेट कारोबारी डोनाल्ड ट्रंप लम्बी रेस के घोड़े नहीं हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई राजनीतिक अनुभव है और न ही अर्थनीति से लेकर विदेश नीति के बारे में कोई गंभीर समझ।
राजनीतिक पंडितों का मानना था कि जैसे ही दूसरे धाकड़ रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रंप को निशाना बनाना शुरू करेंगे, मतदाता गंभीर होंगे और उनको ट्रंप की हकीकत पता चलेगी, ट्रंप का खेल खत्म हो जाएगा। लेकिन अगले छह महीने में ही साफ हो गया कि अमेरिकी राजनीतिक पंडित और रिपब्लिकन पार्टी के बड़े नेता जिस डोनाल्ड ट्रंप को नौसिखिया और राजनीतिक मजाक समझ रहे थे, वे कितनी बड़ी भूल कर रहे थे। नतीजा सामने है। साल भर के अन्दर ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के बड़े और प्रभावशाली नेताओं जैसे जेब बुश, टेड क्रूज, जान कासिच, मार्क रुबियो आदि को प्राइमरी में पछाड़ते हुए पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के बिलकुल करीब पहुंच गए हैं। अब इसकी औपचारिक घोषणा भर बाकी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक पंडितों और उनसे ज्यादा रिपब्लिकन पार्टी ने कुछ ज्यादा ही समय तक ट्रंप को हल्के में उड़ाने की कोशिश की और जब तक वे संभले, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ट्रंप मजाक और सनसनी से काफी आगे बढ़कर अब राजनीतिक हकीकत बन चुके हैं। ट्रंप की जीत पर अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान, उदार मीडिया और बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया में झेंप, हैरत, बेचैनी, घबराहट और आशंका को साफ देखा जा सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ट्रंप बिना लाग-लपेट के जिस तरह से नस्लभेदी और श्वेत श्रेष्ठता की नस्लवादी और सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, उससे अमेरिकी समाज के अंदर पहले से मौजूद विभाजक-रेखाओं के फैलने और टकराव बढ़ने की आशंका जाहिर की जा रही है।
ट्रंप के विवादस्पद बयानों और ऐलानों के कारण मेक्सिको जैसे पड़ोसी देशों, अमेरिका के मित्र देशों और वैश्विक समुदाय में भी बेचैनी है। असल में डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका को फिर से महान बनाएं’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) के नारे के साथ आप्रवासियों और मुस्लिमों को निशाना बनाते हुए श्वेत श्रेष्ठता को हवा देकर उन अमेरिकी श्वेत मतदाताओं खासकर सफेद-ब्ल्यू कॉलर कामगार, मध्यवर्गीय और कट्टर धार्मिक ईसाई मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। माना जा रहा है कि इन मतदाताओं के समर्थन के कारण ही ट्रंप को रिपब्लिकन प्राइमरी में अपने विरोधियों को मात देने में कामयाबी मिली है।
इस रणनीति के तहत ही ट्रंप अमेरिका की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के लिए आप्रवासियों खासकर मेक्सिको से आये आप्रवासियों और आतंकवाद के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराते हुए अमेरिकी-मेक्सिको सीमा पर दीवार बनाने और उसका खर्च मेक्सिको से वसूलने और मुसलमानों के अमेरिका में आने पर रोक लगाने जैसी घोषणाएं करने से लेकर मुक्त व्यापार समझौतों को खत्म करने और जापान-कोरिया-सऊदी अरब आदि देशों में अमेरिकी सैनिक अड्डों का खर्च उन देशों से वसूलने जैसे बेतुके और विवादास्पद बयान दे रहे हैं।
ट्रंप के बयान अत्यधिक भड़काऊ और एक जहरीली आक्रामकता से भरे हैं। इनमें किसी मर्यादा या सीमा का कोई ध्यान नहीं है। उन्होंने अपने प्रचार की शुरुआत ही आप्रवासियों खासकर मेक्सिकन आप्रवासियों पर नस्ली हमले से की। ट्रंप ने मेक्सिको से आनेवाले आप्रवासियों को ‘बलात्कारी और हत्यारे’ कहने में भी संकोच नहीं किया। फिर अमेरिका की फैक्ट्रियों की बर्बादी और अमेरिकियों के रोजगार हड़पने के लिए चीन के साथ व्यापार को जिम्मेदार ठहराते हुए कह दिया कि चीन, अमेरिका का ‘बलात्कार’ कर रहा है। ट्रंप ने आतंकवाद से लड़ाई में कथित आतंकवादियों के परिवार के सदस्यों को मारने और अमेरिका में मुस्लिमों के प्रवेश को नियंत्रित करने की वकालत की है। ट्रंप का इरादा इराक और उसके तेल के कुओं पर कब्जा करने का भी है।
ट्रंप के इन नस्लभेदी और बेतुके उग्र बयानों और विचारों को शुरू में एक अगंभीर और सुर्खी बटोरू उम्मीदवार की भड़ास के रूप में देखा गया। उन्हें हंसकर उड़ाने की कोशिश की गई। कहा गया कि ट्रंप के विचार गैर-अमेरिकी हैं यानी उनका अमेरिकी राष्ट्रीय मूल्यों, विचारों और संवैधानिक उसूलों से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सही है कि अमेरिका में ट्रंप के विचारों और बयानों को व्यापक समर्थन नहीं है या उसकी वास्तविक परीक्षा बाकी है। लेकिन यह भी सही है कि उनके विचारों से सहमति रखने वाले अमेरिकियों की संख्या भी अच्छी-खासी है। आश्चर्य नहीं कि ट्रंप को रिपब्लिकन प्राइमरी में लगभग एक करोड़ वोट मिले हैं।
आखिर ट्रंप के साथ कौन खड़ा है? असल में ट्रंप के विचारों, बयानों और घोषणाओं में श्वेत अमेरिका की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से बदलते हुए अमेरिका के प्रति काल्पनिक और वास्तविक शिकायतें, असुरक्षाएं, कुंठाएं और नाराजगी व्यक्त हो रही है। इसकी पृष्ठभूमि लम्बे अरसे से बन रही थी। श्वेत अमेरिकियों खासकर ब्ल्यू कॉलर, कम पढ़े-लिखे और धार्मिक ईसाइयों के बड़े हिस्से को लगता है कि मौजूदा राजनीति में उनकी कोई पूछ नहीं है। उनके हितों को अनदेखा किया जाता है। दोनों पार्टियों और राजनेताओं को सिर्फ वोट से मतलब है और वे अमीरों के लिए काम करते हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक दस में से सात नागरिकों का मानना है कि राजनेता आम अमेरिकियों की परवाह नहीं करते हैं।
पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी समाज और आर्थिकी में काफी बदलाव आया है। अमेरिका में दुनिया भर से आने वाले आप्रवासियों की संख्या बढ़ी है। अमेरिका की समृद्धि खासकर ज्ञान अर्थव्यवस्था में उसकी नेतृत्वकारी भूमिका में इन आप्रवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। अमेरिका नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और भूमंडलीकरण के तहत मुक्त व्यापार के सबसे बड़े लाभार्थियों में है। लेकिन इसका वास्तविक फायदा बड़ी अमेरिकी कंपनियों और अमीरों को हुआ है जबकि सस्ते श्रम के लालच में अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग को चीन और दूसरे विकासशील देशों में शिफ्ट करने के कारण ब्ल्यू कॉलर कामगार अमेरिकियों की न सिर्फ नौकरियां छूटी हैं बल्कि उनकी मजदूरी और वेतन पर भी नकारात्मक असर पड़ा है।
‘इकनॉमिस्ट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2007 से 2014 के बीच श्रमिकों की एक बड़ी संख्या के वास्तविक वेतन में गिरावट दर्ज की गई। इसी तरह मध्यवर्ती वास्तविक मजदूरी एक दशक तक स्थिर रही। कम मजदूरी पर काम करने वाले कम कुशल फैक्ट्री श्रमिकों की मांग में कमी आई है। इससे जाहिर है कि उनमें एक बेचैनी है। ऐसे अमेरिकियों को ट्रंप के उन बड़बोले दावों में ‘सच्चाई’ दिखती है कि उनकी नौकरियां चीन या मेक्सिकन आप्रवासी छीन रहे हैं। ट्रंप उनके इस काल्पनिक डर को भी भुना रहे हैं कि अमेरिका में श्वेत लोग धीरे-धीरे अल्पसंख्यक हो रहे हैं और श्वेत अमेरिका, भूरे-काले-पीले अमेरिका में बदल रहा है।
साथ ही ट्रंप श्वेत लोगों में आप्रवासियों खासकर मेक्सिकन, लैटिनों, काले और मुसलमानों के प्रति मौजूद आशंकाओं और डर को भुनाने के लिए आधी सच्ची-आधी झूठी घटनाओं का हवाला देकर बढ़ते अपराधों और खासकर श्वेत महिलाओं के साथ बलात्कार के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते हैं। दरअसल अमेरिका में ऐसे उग्र-हिंसक श्वेत नस्लवादी समूह और संगठन हमेशा से रहे हैं। श्वेत श्रेष्ठता का दावा करने वाला और आप्रवासियों और काले अफ्रीकियों को निशाना बनाने वाला कू क्लक्स क्लान जैसा उग्र-हिंसक समूह दक्षिण के राज्यों में 60 से 80 के दशक के शुरुआती वर्षों तक खासा सक्रिय था। उसके अवशेष और उस जैसे अनेकों नव नाजीवादी और फासीवादी संगठन और समूह तथा उनके समर्थक अब भी मौजूद हैं।
ट्रंप उनकी राजनीतिक आवाज बनकर उभरे हैं। हैरानी की बात नहीं है कि कू क्लक्स क्लान के नेता रहे डेविड ड्यूक ने ट्रंप का यह कहते हुए समर्थन किया है कि उनके विचार क्लान के काफी करीब हैं। मजे की बात यह है कि खुद ट्रंप भी चतुराई से कू क्लक्स क्लान के बारे में पूछे गए सवालों को टालते रहे हैं या उनका सीधा जवाब देने से कतराते रहे हैं। ‘इकनॉमिस्ट’ पत्रिका के मुताबिक इसकी वजह यह है कि उनके वोटरों में कोई 17 फीसदी ऐसे हैं जो मानते हैं कि अमेरिका के लिए नस्ली विविधता बुरी है। इसी तरह ज्यादातर रिपब्लिकन प्राइमरी में ट्रंप को 35 फीसदी के आसपास वोट मिले जिसमें बहुमत श्वेत हाईस्कूल पास पुरुषों का था। इनके कारण ही ट्रंप को अपने 17 रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने में मदद मिली।
लेकिन ट्रंप के उत्तेजक नस्ली बयान क्या सिर्फ चुनावी लोकलुभावन राजनीति और अपने समर्थकों को गोलबंद करने की रणनीति भर हैं? उनके अनेक परोक्ष समर्थकों और विश्लेषकों के एक हिस्से का तर्क था कि पार्टी प्रतिष्ठान के बाहर से आये ट्रंप को समर्थन जुटाने के लिए विवादास्पद और उग्र रणनीति अपनानी पड़ी। रिपब्लिकन पार्टी का उम्मीदवार बनने के बाद वे न सिर्फ नरम पड़ जाएंगे बल्कि उनके रवैये में भी बदलाव आएगा। लेकिन उनके हाल के बयानों से साफ है कि ट्रंप के बयानों की तुर्शी और तेवर में कोई अंतर नहीं आया है। उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस में तीखे सवाल पूछने वाले पत्रकारों को ‘घटिया’ बताते हुए कहा कि वे नहीं बदलने वाले हैं और ह्वाईट हाउस में भी पहुंच कर ऐसे ही रहेंगे।यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि ट्रंप को अपनी आलोचना बिलकुल बर्दाश्त नहीं है। वे अपने आलोचकों और असुविधाजनक सवाल पूछने वाले पत्रकारों खासकर राजनीतिक पत्रकारों को ‘अविश्वसनीय रूप से बेईमान’ बताते हैं। फॉक्स न्यूज की एंकर मेगान केली से वे इतने नाराज हुए कि ट्वीट कर दिया- ‘केली की आंखों से खून निकल रहा था, उसके सभी जगहों से खून निकल रहा था।’ ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिसमें उन्होंने आलोचकों पर सीधा निजी हमला करने में देर नहीं की है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है- धोखाधड़ी के आरोपों में घिरी ट्रंप यूनिवर्सिटी के मामले की सुनवाई कर रहे जज के नस्ली मूल (मेक्सिकन) को निशाना बनाना। कई विश्लेषक ट्रंप को एक फासीवादी राजनेता की तरह देख रहे हैं। ट्रंप के तौर-तरीकों और विचारों में इसकी झलक भी दिखाई पड़ती है। खुलेआम नस्ली और सांप्रदायिक घृणा को बढ़ाने वाली टिप्पणियों से लेकर अपने समर्थकों को भड़काने वाले बयानों तक ट्रंप श्वेत श्रेष्ठतावाद की अति-दक्षिणपंथी राजनीति की अगुवाई कर रहे हैं। यहां तक कि फ्लोरिडा की एक रैली में ट्रंप ने अपने समर्थकों का फासिस्ट शैली में अभिवादन करके उनके प्रति समर्थन जताया। इसी तरह एक रैली के दौरान उनके विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को वे घूंसा मारने की अपनी इच्छा का खुलेआम इजहार कर चुके हैं।
आश्चर्य नहीं कि ट्रंप के उभार के साथ अमेरिका में नस्ली हिंसा और हमलों की कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसमें श्वेत हमलावरों पर ट्रंप के बयानों का असर दिखाई पड़ा है। यही कारण है कि कई विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप नस्ली और सांप्रदायिक घृणा की जिस राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, उससे अमेरिकी समाज को दूरगामी नुकसान हो रहा है। अमेरिकी समाज में पहले से मौजूद नस्ली दरारों और तनावों के और बढ़ने और नस्ली दंगों के भड़कने की आशंकाएं बढती जा रही हैं। ट्रंप तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए एक ऐसे खामोश और सोते शेर को जगा रहे हैं जिसके जागने पर न सिर्फ खासा खून-खराबा होने की आशंका है और उसे वापस पिंजरे में बंद करना भी आसान नहीं होगा बल्कि इससे अमेरिकी समाज के ‘घुलने-मिलने वाले बर्तन’ (मेल्टिंग पाट) की प्रक्रिया को भी गहरा और स्थायी नुकसान हो सकता है।
यह सही है कि ट्रंप के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं है। कई विश्लेषकों का मानना है कि उनके लिए चुनाव जीतना नामुमकिन तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर है। उनके मुताबिक चुनाव जीतने के लिए ट्रंप को कम से कम साढ़े छह से सात करोड़ वोट जुटाने होंगे। यह मुश्किल चुनौती है क्योंकि ट्रंप के समर्थन का सामाजिक आधार बड़ा नहीं है। सर्वेक्षणों के अनुसार ट्रंप के बारे में 86 फीसदी अफ्रीकन-अमेरिकन और 80 फीसदी हिस्पानी वोटरों की राय नकारात्मक है। इसी तरह महिलाओं, पढ़े-लिखे युवाओं, शहरी मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय वोटरों में भी ट्रंप को लेकर अच्छी राय नहीं है। यहां तक कि खुद रिपब्लिकन पार्टी ट्रंप को लेकर विभाजित दिखाई दे रही है। पार्टी के कई बड़े-छोटे नेताओं ने ट्रंप के बयानों की कड़ी आलोचना की है।
दूसरी ओर शुरुआत में न्यूज मीडिया में ट्रंप को ‘गर्मियों के मनबहलाव’ की तरह देखा गया लेकिन अब रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार होने के करीब पहुंच गए ट्रंप के कारोबार, पिछले जीवन और क्रियाकलापों की छानबीन शुरू हो गई है। इस कारण ट्रंप यूनिवर्सिटी और पूर्व सैनिकों के कल्याण के लिए इकट्ठा की गई रकम को वितरित न करने जैसे कई विवादास्पद मामले सामने आने लगे हैं। यही नहीं, ट्रंप के मेक्सिको की सीमा पर दीवार खड़ी करने या 1.1 करोड़ अवैध आप्रवासियों को वापस भेजने या आठ वर्षों में अमेरिका के 19 खरब के कर्ज को चुकाने या फिर मित्र देशों से सैनिक अड्डों का खर्च वसूलने जैसे दावों और घोषणाओं की बारीक पड़ताल होने लगी है।
लेकिन ट्रंप को इसकी परवाह नहीं है। उनके आत्मविश्वास की सबसे बड़ी वजह उनकी संभावित डेमोक्रटिक प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन हैं जो खुद भी कई विवादों में घिरी हैं। उन्हें नापसंद करने वाले वोटरों की संख्या भी काफी है। उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान और खासकर बदनाम हो चुके वाल स्ट्रीट के बैंकरों का उम्मीदवार माना जाता है। आश्चर्य नहीं कि डेमोक्रेटिक प्राइमरी में उनके प्रतिद्वंद्वी सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने उन्हें कड़ी चुनौती दी है। हालांकि अभी अनुमान लगाना जल्दी होगा लेकिन इतना तय है कि ट्रंप-क्लिंटन के बीच मुकाबला कड़ा होगा। यही नहीं, दोनों पार्टियों के जुलाई के दूसरे पखवाड़े में होने वाले राष्ट्रीय कन्वेन्शनों से लेकर नवम्बर में वोटिंग के बीच के चार महीनों में प्रचार और प्रेसिडेंशियल डिबेट से ज्यादा साफ होगा कि बाजी किसके हाथ लगेगी।
ट्रंप के आक्रामक प्रचार की रणनीति को देखते हुए यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि प्रचार के दौरान न सिर्फ राजनीतिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाई जाएंगी बल्कि नैतिक लक्ष्मण रेखा की भी परवाह नहीं होगी। प्रचार के दौरान राजनीतिक कीचड़ उछालने से लेकर नस्ली भावनाएं भड़काने की कोशिश की जाएगी। इसके दूरगामी राजनीतिक-सामाजिक परिणाम होंगे। इसमें जीते कोई लेकिन अमेरिका हार जाएगा क्योंकि यह ‘अमेरिका को फिर से महान बनाने’ का नहीं बल्कि आंतरिक टकराव और बर्बादी की तरफ ले जानेवाला रास्ता है।