बनवारी।
चार महीने पुरानी महबूबा मुफ्ती सरकार की यह बहुत कड़ी परीक्षा थी। हिजबुल मुजाहिदीन के क्षेत्रीय कमांडर बुरहान वानी पर दस लाख का इनाम था। वह सोशल मीडिया का उपयोग करके अपनी रॉबिन हुड वाली छवि बना रहा था। इस वर्ष जनवरी से अब तक वह लगभग पचास युवकों को बरगलाकर अपने आतंकवादी अभियान में सम्मिलित कर चुका था। यह स्वाभाविक ही था कि सुरक्षा एजेंसियां उसे एक बड़े खतरे के रूप में देखतीं। आठ जुलाई को उसे दक्षिण कश्मीर के उसके गुप्त ठिकाने में एक मुठभेड़ के दौरान मार गिराया गया। यह अभियान जम्मू-कश्मीर पुलिस और राष्ट्रीय रायफल्स द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था। इसलिए वह महबूबा मुफ्ती और उनकी सरकार की सहमति से ही हुआ था। दक्षिण कश्मीर सत्ताधारी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का गढ़ रहा है। इसलिए महबूबा मुफ्ती और उनके सहयोगियों को बुरहान वानी के मारे जाने के बाद जो कुछ हुआ, उसका अनुमान होना चाहिए था। ऐसा लगता है कि जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन दोनों स्थानीय परिस्थितियों को भांपने में असफल रहे।
बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर घाटी में जो जनाक्रोश फूटा, उसे ठीक से समझने और उसका सही आकलन करने में स्थानीय नेता ही नहीं राष्ट्रीय नेता और अपने आपको उदारवादी बताने वाला समूचा प्रतिष्ठान असफल रहा है। यह सही है कि जनाक्रोश व्यापक था। वह बुरहान वानी या उसके उद्देश्य के प्रति लोगों की सहानुभूति के कारण हुआ, यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है। उसकी सही व्याख्या यह है कि वह महबूबा मुफ्ती की सरकार के विरुद्ध पनप रहे लोगों के व्यापक असंतोष का परिणाम है। महबूबा मुफ्ती भी यह जानती हैं, इसलिए उन्हें दंगा करने वाले लोगों के प्रति सख्ती बरतने में कोई दुविधा नहीं हुई। हिंसक प्रदर्शनों से निपटने में कोई नरमी बरती गई होती तो स्थिति और भी विस्फोटक हो सकती थी। स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए जो कार्रवाई हुई, उससे अनेक लोगों की जानें गर्इं। कुल मिलाकर 42 लोग मारे गए और साधारण लोगों को लंबा कर्फ्यू झेलना पड़ा।
पिछली एक शताब्दी में पश्चिमी देशों ने जिस तरह की लोकतंत्रीय राजनीति विकसित की है, उसमें स्थिति को सही तरह से समझने और राष्ट्रीय सुरक्षा तथा लोगों के व्यापक हितों को देखते हुए समस्या का हल ढूंढ़ने का प्रयत्न नहीं होता। विरोधी दलों और वैचारिक समूहों की पहली प्रतिक्रिया सरकार को दोष देने की होती है। उसके बाद यह रटी-रटाई बात दोहराई जाने लगती है कि समस्या का हल सैनिक तरीके से नहीं राजनीतिक तरीके से निकाला जाना चाहिए। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है और कश्मीर में भी अब तक अधिकांश समय एक लोकतांत्रिक सरकार रही है। वहां पिछले कुछ समय से सुरक्षाबलों का अधिक उपयोग किया जा रहा है तो यह भी एक राजनीतिक निर्णय ही है। कश्मीर में सुरक्षाबलों की उपस्थिति इस कारण नहीं है कि हमारा शासकीय तंत्र कश्मीर के लोगों का दमन करना चाहता है। बल्कि इसलिए है कि कश्मीर की और कश्मीर के लोगों की सुरक्षा सामान्य प्रशासनिक तंत्र से नहीं हो पा रही है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कश्मीर की घटनाओं को लेकर अब तक सबसे अधिक शोर कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं ने मचाया है। अब तक कश्मीर पर अधिकांश समय इन्हीं दो दलों का शासन रहा है। कश्मीर की स्थिति बिगाड़ने में सबसे अधिक भूमिका इन्हीं दलों के नेताओं और सरकारों की रही है। यह ध्यान रखना चाहिए कि कश्मीर में अधिकांश समय चुनी हुई सरकारों का ही शासन रहा है। उन्नीस जनवरी 1990 से नौ अक्टूबर 1996 की छह वर्ष लंबी अवधि को छोड़कर कभी वहां सालभर भी राज्यपाल का शासन नहीं रहा। इसलिए कश्मीर में अब तक जो भी राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय लिए गए हैं, उनमें राष्ट्रीय और प्रादेशिक तंत्र की सहमति और साझेदारी रही है। 1990-96 के बीच पाकिस्तान के कारण कश्मीर की स्थिति कितनी विस्फोटक हो गई थी, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। उस अवधि में सामान्य प्रशासनिक व्यवस्थाओं के जरिये शासन नहीं चलाया जा सकता था।
यह सही है कि कश्मीर में सेना और सुरक्षाबलों की उपस्थिति कुछ लंबी हो गई है। नागरिक क्षेत्रों में सेना की उपस्थिति हमेशा लोगों में डर, कुंठा और असंतोष पैदा करती है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि नागरिकों की सुरक्षा के लिए ही सेना वहां है और कश्मीर में कोई सैनिक शासन नहीं है। सेना और सुरक्षाबल वहां आतंकवादियों का सीधा निशाना रहे हैं। हमारे जो सैनिक कश्मीर में हैं वे आतंकवादियों के कारण सदा असुरक्षा से घिरे रहते हैं। अपनी जान पर खेलकर ही वे वहां बने हुए हैं और उनमें से अनेक सैनिकों ने कश्मीर और कश्मीरियों की रक्षा में अपने प्राण गंवाए हैं। अपने आपको उदारवादी सिद्ध करने के लिए बहुत से टिप्पणीकारों द्वारा जिस तरह की बातें कही जाती हैं, उनसे लगता है कि उनकी दृष्टि में आतंकवादियों का अधिकार है कि वे जिएं और सैनिकों का कर्तव्य है कि वे मरें। इस तरह के दृष्टिकोण से कश्मीर समस्या के सरलीकरण के अलावा कुछ सिद्ध नहीं होता। कश्मीर में हमारी सेना और सुरक्षाबलों ने स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने के लिए काफी मेहनत की है। हर प्राकृतिक संकट के समय सेना ने नागरिक प्रशासन से अधिक तत्परता दिखाई है। सामान्य स्थितियों में भी वे यथासंभव लोगों की मदद करने में लगे रहे हैं। फिर भी नागरिक क्षेत्रों में सैनिक उपस्थिति सामान्य स्थिति नहीं है। लेकिन कश्मीर की असामान्य स्थिति के कारण ही सेना को अभी वहां बनाए रखना पड़ रहा है।
कश्मीर की स्थिति पर दिए गए कांग्रेसी नेताओं के अधिकांश बयान बेतुके हैं। विशेषकर पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा की गई टिप्पणियां। पी. चिदंबरम ने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर केवल भूमि नहीं है, कश्मीर का अर्थ वहां के लोग भी हैं। क्या पी. चिदंबरम यह कहना चाहते हैं कि हमारे राज्यतंत्र को देश की भौगोलिक सुरक्षा के प्रति अपना दायित्व भूलकर कश्मीर के लोगों के तात्कालिक असंतोष के सामने घुटने टेक देने चाहिए। देश की भूमि और लोगों के बीच इस तरह का विरोध कल्पित करना गैर-जिम्मेदारी से भरा हुआ है और देश की सबसे बड़ी प्रतिपक्षी पार्टी के पूर्व गृहमंत्री को इस तरह की बेतुकी बातें कहने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। पी. चिदंबरम ने यह भी कहा है कि कश्मीर के लोगों को अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए। अगर स्वायत्तता देनी है तो फिर वह कश्मीर के लोगों को ही क्यों दी जाए? देश के सभी लोगों को स्थानीय स्तर पर अपनी व्यवस्थाएं बनाने और चलाने का अधिकार होना चाहिए। पी. चिदंबरम यह भूल जाते हैं कि उनके नेताओं और उनकी पार्टी ने ही पूरे देश में एक अत्यंत केंद्रीकृत राज्य व्यवस्था लागू की थीं। आज भी स्वयं उनकी पार्टी इसी तरह की केंद्रीय व्यवस्था पर चल रही है। उनकी पार्टी तो एक ही परिवार की बंधक बनी हुई है। क्या इसकी विसंगति उनको दिखाई नहीं देती?
फिर भी यह संतोष की बात है कि कांग्रेस के कुछ नेताओं और कुछ मार्क्सवादी नेताओं को छोड़कर बाकी पूरे राजनीतिक प्रतिष्ठान ने कश्मीर में स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए जो कदम उठाए गए, उनके प्रति सहमति और समझदारी दिखाई है। कश्मीर में हमारी क्या नीति होनी चाहिए, यह गृहमंत्री राजनाथ सिंह के इस सूत्र वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार आतंकवादियों के साथ सख्ती से व्यवहार करेगी और नागरिकों के साथ नरमी बरतेगी। यही नीति अब से पहले की सरकारों की भी रही है और इसके बारे में एक तरह की राष्ट्रीय सहमति है। राजनीतिक कारणों से इस नीति पर जब भी किसी ने उंगली उठाने की कोशिश की है, उसे देश के लोगों का समर्थन नहीं मिला। इस राष्ट्रीय सहमति को एक औपचारिक स्वरूप दिया जाना चाहिए। देश की सुरक्षा, विदेश नीति और व्यापक लोकहित के प्रश्नों पर दलीय संकीर्णताओं से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सहमति होनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि ऐसे हर मौके पर प्रधानमंत्री मुख्य राजनीतिक दलों के नेताओं और मुख्यमंत्रियों की सहमति लेकर कदम उठाएं। इससे राजनीतिक क्षेत्रों में परस्पर विश्वास का माहौल बनेगा और पश्चिमी लोकतंत्रीय शैली के कारण राजनीति जिस तरह के राजनीतिक युद्ध का अखाड़ा बन गई है और उसके लिए पूरे देश को विभाजित किया जा रहा है, उससे भी बचा जा सकेगा।
राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच राजनीतिक व्यवहार की मर्यादा स्थापित होनी चाहिए। उदाहरण के लिए कश्मीर में शासन कर रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद मुजफ्फर बेग का कश्मीर की स्थिति नियंत्रण में आने के बाद दिया गया बयान अवसरवादी राजनीति का नमूना है। उन्होंने कहा कि क्या बुरहान वानी को मुठभेड़ में मारना आवश्यक था? वे भूल गए कि उनकी सरकार और उसकी मुखिया महबूबा मुफ्ती इस निर्णय में सम्मिलित थीं। इसके अलावा हिजबुल मुजाहिदीन एक आतंकवादी संगठन है, जिसे भारत ने ही नहीं अमेरिका और यूरोपीय यूनियन ने भी प्रतिबंधित किया हुआ है। वह पाकिस्तान के निर्देश पर भारत में आतंक फैलाता रहा है। बुरहान वानी 2010 में इस आतंकवादी संगठन में सम्मिलित हुआ था। वह नौजवानों को बरगलाने और अपने आतंकवादी समूह का विस्तार करने में लगा हुआ था। उस पर दस लाख रुपये का इनाम घोषित था। क्या उसे घेरने के लिए उसकी किसी बड़ी आतंकवादी घटना का इंतजार किया जाना चाहिए था? जम्मू-कश्मीर की पुलिस और सुरक्षाबलों ने आतंकवादियों के साथ सख्ती बरतने की जो नीति अपनाई हुई है, उसी के कारण पिछले डेढ़ दशक में हम आतंकवादियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में सफल हुए हैं।
कश्मीर समस्या अब काफी जटिल हो गई है। उसका एक पहलू पाकिस्तान प्रेरित जेहाद है। दूसरा पहलू यह है कि संसार भर में इस्लाम के नाम पर उग्रवाद पनप रहा है। वह केवल गैर-मुसलमानों के विरुद्ध ही नहीं है। मुस्लिम समाज के अपने भीतर के विभाजन को हिंसक तरीकों से बढ़ाया जा रहा है। स्वयं पाकिस्तान में आए दिन शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी संघर्ष होते रहते हैं, जिनमें काफी निरपराध लोगों की जान जाती है। अब तक यह माना जाता था कि धर्मांधता और गरीबी ही इस उग्रवाद को प्रश्रय दे रही है। लेकिन अब तो दुनियाभर में संपन्न घरों के और ऊंची पढ़ाई पढ़कर निकले लोग जेहाद की अगली पंक्ति में दिखाई दे रहे हैं। भारत में राज्य की नरम नीतियों के कारण उग्रवाद बढ़ा है तो चीन में राज्य की सख्त नीतियों के कारण। इस बार चीन ने अपने यहां रमजान तक को प्रतिबंधित कर दिया था।
कश्मीर घाटी में पिछले महीने जो हिंसक घटनाएं हुई हैं, वे जन-असंतोष का परिणाम अवश्य हैं। पर यह जन-असंतोष सरकार की किन्हीं विशेष नीतियों के कारण नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि देश के साधनों के बंटवारे के मामले में कभी कश्मीर के साथ कोई भेदभाव बरता गया। कश्मीर के अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों के प्रति जितनी नरमी भारत में दिखाई गई है, उतनी संसार में और कहीं नहीं दिखाई जाती। जम्मू और कश्मीर के लोगों की आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं वैसी ही हैं जैसी और देशवासियों की हैं। मुस्लिम समाज को जैसी स्वतंत्रता भारत में है, वैसी स्वयं मुस्लिम देशों में नहीं है। पाकिस्तान में उनकी जो दुर्दशा है, उसके ब्योरे रोज सामने आते रहते हैं। इस सबके बाद भी कश्मीर घाटी में अलगाववादी शक्तियां पनपती रही हैं। यह कुछ आज की राजनीति का स्वरूप भी है। आज की राजनीति केवल असंतोष भड़काती है। वह सार्वजनिक जीवन को मर्यादित-व्यवस्थित करने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेती। परिणामस्वरूप अमेरिका पुलिस स्टेट बनता जा रहा है। अधिकांश मुस्लिम देशों ने अपने यहां निरंकुश सैनिक सत्ताएं स्थापित कर रखी हैं। जब भी वहां कोई लोकतांत्रिक सरकार बनती है, राजनीति में उबाल आने लगता है। यह सब जटिल स्थितियां हैं, जिनका कोई आसान हल नहीं है। इसलिए कश्मीर समस्या को राजनीति से और अधिक नहीं उलझाना चाहिए, यह बात हमारे नेता जितनी जल्दी समझेंगे अच्छा होगा।