सोशियो पॉलिटिकल एक्टिविस्ट रविंद्र जुगरान से ओपिनियन पोस्ट की बातचीत
घोटालों के लिए गठित जांच आयोगों की लंबी फेहरिस्त है। क्या ये अपना मकसद पूरा करते दिखे हैं?
मैंने आज तक राज्य में एक भी उदाहरण नहीं देखा कि कहा जा सके कि किसी जांच आयोग के गठन का उद्देश्य पूरा हुआ हो। या तो जांच आयोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा और यदि किसी आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट तैयार भी कर दी तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। राज्य में जांच आयोग रिटायर्ड जजों और रिटायर्ड आईएएस अफसरों के लिए नए ठिकाने बनकर रह गए हैं, जहां कुछ सालों तक मलाई खाई और चलते बने।
तो क्या इन आयोगों को जनता को बरगलाने या सियासी खौफ पैदा करने मात्र का हथकंडा माना जाए?
किसी भी सरकार की मंशा किसी जांच आयोग के गठन के पीछे भले ही सही रही हो लेकिन जब रिजल्ट शून्य आए तो निश्चित तौर पर सरकारों की मंशा पर संदेह होता है। बगैर परिणाम वाले इन आयोगों को गठित करने का मकसद राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या सियासी ब्लैकमेलिंग मानने में कोई हर्ज नहीं है। इसके अलावा सभी सरकारें और उनके अधिकारी घपले-घोटालों में कहीं न कहीं लिप्त होते हैं। इसलिए जनता को एक-दूसरे दल के खिलाफ जांच का ड्रामा करते दिखाने के लिए भी जांच आयोग बेहतर माध्यम साबित होते हैं।
सामाजिक संगठन क्यों नहीं जनता के धन की इस बबार्दी के खिलाफ एकजुट होते हैं?
उत्तराखंड एक छोटा राज्य है। यहां सभी किसी न किसी स्वार्थ में उलझे हुए हैं। कहीं रिश्तेदारी, कहीं मित्रता, कही किसी और स्वार्थ ने सबको फंसा रखा है। यदि एकाध ईमानदार लोग हैं भी तो उनके बीच तालमेल ही नहीं है। ऐसे में जांच आयोगों पर लुट रहे धन के लिए लड़ने का संकल्प लेने वालों का संकट है।