प्रदीप सिंह।
जम्मू-कश्मीर में पिछले सत्तर साल से हर बदलाव एक उम्मीद की किरण लेकर आता है और कुछ समय बाद निराशा का अंधेरा छोड़कर लौट जाता है। हर बार सूबे और देश के लोगों को लगता है कि इस बार जरूर कुछ बदलेगा। भाजपा पीडीपी की गठबंधन सरकार के गिरने के बाद जम्मू-कश्मीर एक बार फिर राज्यपाल राज के भरोसे है। हमेशा की तरह फिर वही सवाल लोगों की जुबान पर है कि क्या कुछ बदलेगा? और हर बार की तरह इस बार भी जवाब तो समय ही देगा। पर केंद्र की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार जम्मू-कश्मीर की समस्या को अलग नजर से देखती है। वह दूसरी सरकारों की तरह यह तो मानती है कि आखिरकार हल बातचीत की मेज पर ही निकलेगा। लेकिन बातचीत का माहौल आतंकवादियों, उनके समर्थकों और रहनुमाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई के बाद ही बनेगा। मोदी सरकार और दूसरी सरकारों की कश्मीर नीति में एक फर्क अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के विभिन्न गुटों को लेकर है। केंद्र ने हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं की पाकिस्तान से दोस्ती का दस्तावेजी सबूतों के साथ पर्दाफाश कर दिया है। केंद्र सरकार की अब तक की कार्रवाइयों और रुख से लगता है कि वह हुर्रियत कांफ्रेंस को कश्मीर समस्या के स्टेकहोल्डर्स में शामिल करने की इच्छुक नहीं है।
आतंकवाद से निपटने के हमारे पास तीन अनुभव हैं। एक, पंजाब में खालिस्तान आंदोलन का और मिजोरम व नगालैंड में उग्रवाद का। पंजाब के मामले में राजनीतिक नेतृत्व ने पुलिस और सुरक्षा बलों को खुली छूट दी। आतंकवादियों के खिलाफ किसी तरह की नरमी नहीं बरती गई। नतीजा सबके सामने है। कम ही लोगों को याद होगा कि उस दौरान पंजाब में खुफिया ब्यूरो का काम देखने वाले कोई और नहीं बल्कि आज के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित कुमार डोभाल थे। डोभाल और पंजाब पुलिस के महानिदेशक केपीएस गिल के बीच अच्छा तालमेल था। खुफिया एजेंसी आतंकवादियों के खिलाफ सटीक जानकारी उपलब्ध कराती थी और गिल साहब की टीम कार्रवाई करती थी। केंद्र और राज्य सरकार का राजनीतिक नेतृत्व उनके साथ था।
इसके बरक्स मिजोरम और नगालैंड में सरकार और सुरक्षा बलों की नीति थी कि उग्रवादियों को पस्त कर दिया जाय और फिर बातचीत के लिए बुलाया जाय। सरकार और सुरक्षा बल अपनी इस रणनीति में कामयाब रहे। ये सब कहने के बाद भी मानना पड़ेगा कि हर राज्य की परिस्थिति भिन्न होती है। खासतौर से जम्मू-कश्मीर की स्थिति तो कुछ ज्यादा ही अलग है। वहां समस्या आजादी के बाद से ही बनी हुई है। घाटी के मौसम की तरह वहां के हालात बदलते रहते हैं। मौसम की ही तरह सूबे के राजनीतिक दलों का रुख भी बदलता रहता है। कौन किस समय कहां खड़ा है इससे उसका रुख तय होता है। तो इस समय पीडीपी की महबूबा मुफ्ती और भारतीय जनता पार्टी एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। सूबे के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि अब कोई राजनीतिक दल इस विधानसभा में सरकार बनाने की संभावना तलाश नहीं करना चाहता। इसके बावजूद कोई विधानसभा चुनाव भी नहीं चाहता। इसलिए राज्यपाल शासन सबके लिए राहत की सांस बनकर आया है। ऐसा दृश्य शायद ही किसी राज्य में देखने को मिला हो कि कोई पार्टी मतदाता के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। पीडीपी और भाजपा ने क्रमश: घाटी और जम्मू में अपना आधार खो दिया है तो इन तीन सालों में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने कुछ कमाया नहीं है। इसीलिए चारों पार्टियां एक दूसरे के प्रति बहुत ज्यादा हमलावर भी नहीं हैं।
अब सवाल है कि कश्मीर में होगा क्या? पत्रकार शुजात बुखारी और फौजी औरंगजेब की हत्या से लोगों के मन में आतंकवादियों के प्रति गुस्सा तो है लेकिन सरकार से कोई सहानुभूति नहीं है। शुजात बुखारी राइजिंग कश्मीर के सम्पादक थे और इस बात के हिमायती कि कश्मीर मसले का हल बातचीत से ही निकलना चाहिए। रमजान के महीने में महबूबा मुफ्ती के दबाव में केंद्र सरकार ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा तो कर दी पर वह शुरू से इसे लेकर शंकालु थी कि आतंकवादी इसका बेजा फायदा उठाएंगे। हुआ भी वही। पर यह सब अब अतीत की बात हो गई है। केंद्र सरकार और उसके सुरक्षा सलाहकार इस मामले पर एकमत हैं कि घाटी में आतंकवादियों के खिलाफ सतत फौजी अभियान चलाने की जरूरत है। एनएन वोरा पिछले दस साल से जम्मू कश्मीर के राज्यपाल हैं। उन्हें जमीनी हालात की समझ भी है और जानकारी भी। केंद्र सरकार ने उनको दो सलाहकार दिए हैं। एक हैं, बीवीआर सुब्रह्मण्यम जो छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव थे। वे अब जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव हैं। राज्य के वर्तमान मुख्य सचिव बीबी व्यास नवम्बर में रिटायर हो गए थे और सेवा विस्तार पर थे। दूसरे, सलाहकार हैं, भारतीय पुलिस सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी विजय कुमार। वीरप्पन के खिलाफ सफल आॅपरेशन चलाने वाली एसआईटी के वे प्रमुख थे। दोनों ही माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाने के लिए जाने जाते हैं।
मौजूदा परिस्थियों में केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर शासन की चुनौतियां पहले के किसी भी समय से ज्यादा हैं। सरकार की तात्कालिक चुनौती अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा है। बिना किसी वारदात के यात्रा पूरी हो गई तो सुरक्षा बलों का हौसला बढ़ेगा। इसके अलावा आतंकवाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के समय राजनीतिक नेतृत्व की नजर स्थानीय लोगों खासतौर से पत्थरबाजों और उनसे यह काम कराने वालों पर रहेगी। साथ ही सरकार और दूसरे राजनीतिक दलों के नेताओं की नजर पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती पर भी रहेगी। सत्ता से बाहर होने के बाद क्या वे अपने एजेंडे पर लौट जाएंगी। और अगर ऐसा होता है तो उसका असर क्या होगा। पार्टी में उनके खिलाफ पहले से असंतोष है। क्या वे अपनी पार्टी बचा पाएंगी। ये सवाल भी आने वाले दिनों में उठेंगे।
बहुत से लोगों के मन में सवाल है कि सरकार कश्मीर घाटी में आखिर करना क्या चाहती है? इसका एक जवाब तो सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने दिया। उन्होंने कुछ दिन पहले एक सार्वजनिक बयान में कहा कि सरकार की रणनीति है कि, सूबे की युवा पीढ़ी को यह बात अच्छी तरह से समझा दी जाए कि आजादी कभी नहीं मिल सकती। केंद्र सरकार और उसके सलाहकारों को लगता है कि जब तक घाटी में एक तबके को यह उम्मीद बनी रहेगी कि उन्हें आजादी मिल सकती है, उनका विरोध और अलगाववाद बना रहेगा। यह काम सुनने में भले ही आसान लगे पर है नहीं। कश्मीर में आजादी की कोई एक परिभाषा नहीं है। नेशनल कांफ्रेंस हो कि पीडीपी या हुर्रियत कांफ्रेंस सबकी अपनी अपनी परिभाषाएं हैं। नेशनल कांफ्रेंस भारतीय संविधान के दायरे में आजादी चाहती है तो पीडीपी एक कदम आगे है। महबूबा अपना रुख साफ कर चुकी हैं। वे चाहती हैं पाकिस्तान से सीमा खोल दी जाय, सूबे की अपनी मुद्रा हो और दूसरे देशों से खुले व्यापार की छूट हो। हुर्रियत कांफ्रेंस उससे एक कदम आगे जाती है वह कश्मीर में निजामे मुस्तफा यानी शरिया का राज चाहती है। यह जानते हुए भी कि यह संभव नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लोगों को बड़ी अपेक्षा थी कि वे कश्मीर समस्या के हल के लिए कुछ कारगर कदम उठाएंगे। अभी तक ऐसा कुछ देखने को मिला नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में ही नहीं देश के बाकी हिस्सों में भी उनसे इस बाबत सवाल होंगे। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उनके पास समय कम है और करने को बहुत ज्यादा। राज्यपाल शासन कुछ कर दिखाने के लिए केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के लिए आखिरी बड़ा अवसर है।