जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई न करने को लेकर 15 अप्रैल को सुबह करीब 11 बजे जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से जवाब-तलब किया, तो आयोग का जवाब था कि उसके पास पर्याप्त शक्तियां नहीं हैं. इस पर अदालत ने चुनाव आयोग को जमकर फटकार लगाई. ठीक तीन घंटे के भीतर आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ एवं बसपा प्रमुख मायावती को चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी मानते हुए उनकी चुनावी सभाओं पर पाबंदी लगा दी. उसी दिन शाम होते-होते आयोग का डंडा समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और भाजपा की उम्मीदवार एवं केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के खिलाफ भी चला.
16 अप्रैल को जब चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की है, तो मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने संतोष जताते हुए चुटकी ली, ‘लगता है, चुनाव आयोग को उसकी शक्तियां वापस मिल गई हैं!’ जस्टिस गोगोई की यह चुटकी चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है, क्योंकि अदालत में सुनवाई के दौरान आयोग ने खुद को शक्तिविहीन बताते हुए कहा था कि उसके पास आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं को नोटिस भेजने और जवाब मांगने का सीमित अधिकार है. ऐसे नेताओं के खिलाफ सिर्फ केस ही दर्ज कराया जा सकता है. आयोग न तो किसी नेता को अयोग्य करार दे सकता है और न उसकी पार्टी की मान्यता रद्द कर सकता है.
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद इसी आयोग ने दोषी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की. मतलब साफ है कि आयोग अगर इच्छाशक्ति दिखाए, तो नेताओं में चुनाव आचार संहिता को लेकर भय पैदा हो सकता है. चुनाव आयोग समय- समय पर अपने सीमित अधिकारों का रोना रोता रहा है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 324 में उसे इतनी शक्तियां हासिल हैं, जिनका प्रयोग करते हुए वह न केवल देश में साफ-सुथरे चुनाव करा सकता है, बल्कि इस संवैधानिक संस्था की स्वायत्तता भी बरकरार रख सकता है. यह बात हम यूं ही नहीं कह रहे. 12 दिसंबर 1990 को जब टीएन शेषन ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त कीकुर्सी संभाली थी, उस दौर में चुनाव आयोग में आने वाले लिफाफे पर पते की जगह पर लिखा होता था, चुनाव आयोग, भारत सरकार. यह बात टीएन शेषन को नागवार गुजरी, क्योंकि वह मानने को तैयार नहीं थे कि चुनाव आयोग भारत सरकार का हिस्सा है. अपने गठन से लेकर अब तक चुनाव आयोग की यही छवि थी कि वह सरकार का पिछलग्गू है.
शेषन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘चुनाव आयोग में उनके आने से पहले आयोग की स्वायत्तता का आलम यह था कि उनके पूर्ववर्ती आयुक्त को 30 रुपये की किताब खरीदने के लिए सरकार को चि_ी लिखनी पड़ी थी.’ शेषन ने चुनाव आयोग की ‘पिछलग्गू’ वाली छवि सुधारने और उसे स्वायत्त संस्था बनाने के लिए जिद ठान ली. यह वह दौर था, जब चुनाव आयोग का काम केवल चुनाव की तारीखों का ऐलान करना भर था. टीएन शेषन ने अपने साक्षात्कार में कहा था, ‘जब मैं कैबिनेट सचिव था, प्रधानमंत्री ने मुझे बुलाकर कहा कि मैं चुनाव आयोग को बता दूं कि मैं फलां-फलां दिन को चुनाव कराना चाहता हूं! मैंने कहा, हम ऐसा नहीं कर सकते! हम चुनाव आयोग को बस इतना कह सकते हैं कि सरकार चुनाव कराने के लिए तैयार है.’
दिल्ली के अशोक रोड स्थित निर्वाचन सदन में मुख्य चुनाव आयुक्त की कुर्सी पर टीएन शेषन के बैठने के बाद वह दौर शुरू हुआ, जब देश के नेता सिर्फ दो से ही डरते थे, ईश्वर से या टीएन शेषन यानी चुनाव आयोग से. चुनाव आयोग को संविधान में मिली शक्तियों में अलग से कुछ विस्तार नहीं हुआ था, सिर्फ टीएन शेषन ने आयोग को मिली सीमित शक्तियों का सख्ती से प्रयोग करना शुरू कर दिया था. बतौर चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का सबसे दिलचस्प और मुश्किल चुनाव था, 1995 का बिहार विधानसभा चुनाव. यह मानकर चला जाता था कि बिहार में साफ-सुथरा चुनाव एक सपना है. बूथ कैप्चरिंग आम बात थी. धनबल और बाहुबल के आगे पूरी व्यवस्था लाचार थी. राज्य के मुख्यमंत्री थे लालू प्रसाद यादव, जो हर हाल में अपनी कुर्सी बचाए रखना चाहते थे. टीएन शेषन ने पूरे राज्य को अद्र्ध सैनिक बलों से पाट दिया. शेषन को कोई कोताही बर्दाश्त नहीं थी. वह जरा भी शक होने पर चुनाव रद्द कर देते. चार बार चुनाव की तारीख आगे बढ़ चुकी थी. एक तरह से मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का मुकाबला विपक्ष से न होकर सीधे टीएन शेषन से हो गया था. लालू यादव अपनी चुनावी सभाओं में विपक्षी पार्टियों से ज्यादा शेषन को कोसते थे. लालू अपनी सभा में कहते, ‘शेषनवा को भैंसिया पे चढ़ाकर के गंगाजी में हेला देंगे.’
सरकार और राजनीतिक दलों को एक कमजोर चुनाव आयोग देखने की आदत हो गई थी. टीएन शेषन के आने के बाद सरकार और चुनाव आयोग में टकराव शुरू हुआ. सरकार आयोग को उसकी स्वायत्तता देने को तैयार नहीं थी. 2 अगस्त 1993 को रक्षाबंधन था, टीएन शेषन ने एक 17 पृष्ठीय आदेश निकाला कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती, देश में कोई भी चुनाव नहीं कराया जाएगा. जब तक वर्तमान गतिरोध दूर नहीं हो जाता, जो सिर्फ भारत सरकार द्वारा बनाया गया है, चुनाव आयोग अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाने में असमर्थ पाता है. उसने तय किया है कि उसके नियंत्रण में होने वाले हर चुनाव, जिसमें राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव और विधानसभा के उपचुनाव, जिसके कराने की घोषणा हो चुकी है, आगामी आदेश तक स्थगित रहेंगे. शेषन के इस फैसले से पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव नहीं हो पाया और केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी को इस्तीफा देना पड़ा. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज हुए कि उन्होंने टीएन शेषन को ‘पागल कुत्ता’ कह डाला. वीपी सिंह को कहना पड़ा, हमने कारखानों में लॉक आउट सुना था, शेषन ने प्रजातंत्र को ही लॉक आउट कर दिया है.
इस घटना के बाद चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने का फैसला किया गया. टीएन शेषन ने तमाम राजनीतिक विरोध झेलते हुए भी चुनाव में पहचान पत्र अनिवार्य किया था. सरकार ने जब वोटर आईडी पर होने वाले भारी खर्चे का हवाला देकर इसे टालना चाहा, तो शेषन ने बिना उसके चुनाव न कराने की धमकी दे डाली थी. टीएन शेषन से पहले चुनाव आयोग की जो स्थिति थी, वही दोबारा बनती जा रही है. हाल के चुनावों में आयोग विपक्ष के निशाने पर रहा है और आज भी उस पर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम करने का आरोप लग रहा है. ऐसे में, अब चुनाव आयोग को इस संवैधानिक संस्था की गरिमा और स्वायत्तता बहाल करने और बचाए रखने के लिए गंभीर प्रयास करने चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र का सफल संचालन चुनाव के बिना संभव नहीं है और चुनाव कराने वाली संस्था की विश्वसनीयता पर किसी भी तरह का संदेह लोकतंत्र पर संदेह पैदा करेगा.