अभिषेक रंजन सिंह।
अच्छा हुआ कि चीन और भारत आपसी समझदारी दिखाते हुए डोकलाम से सेनाएं हटाने पर सहमत हो गए। हालांकि इससे चीन डोकलाम पर अपना दावा छोड़ देगा यह कहना सही नहीं है। यह क्षेत्र भूटान की भूमि है, लेकिन चीन पुरानी संधियों और दस्तावेज के आधार पर भूटान के दावे को गलत बताने में जुटा है। दोनों देशों के बीच इस मामले में कई वार्ताएं और संधियां हो चुकी हैं। पुरानी संधियों को न मानना और नई संधियां करना चीन की पुरानी आदत रही है। फिलहाल चीन ने डोकलाम में सड़क बनाने का काम रोक दिया है और अपनी सेना भी हटा ली है। साथ ही उसने कहा है कि उस क्षेत्र में चीनी सेना गश्त करती रहेगी। इतना ही नहीं, डोकलाम को लेकर चीन सरकार और वहां के अखबारों में अभी भी खबरें प्रकाशित हो रही हैं। मेरा मानना है कि डोकलाम को लेकर भारत और चीन के बीच आपसी संबंध और अधिक खराब हो गए हैं। पिछले ढाई महीनों में जिस तरह की भाषा का प्रयोग चीन ने किया है वे अच्छे संकेत नहीं हैं। पहले उसने 1962 जैसे युद्ध की धमकी दी। साथ ही कहा कि चट्टान को हिलाना आसान है, लेकिन चीन को नहीं। भारत ने भी चीन के इस आपत्तिजनक बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी। दरअसल, चीन की मानसिकता खराब हो गई है। उसे झूठा इलहाम हो गया है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। चीन के इस रवैये से न केवल भारत, बल्कि दक्षिण चीन सागर के देशों को भी वह हमेशा धमकाता रहता है। फौरी तौर पर डोकलाम विवाद पर विराम तो लग गया है, लेकिन भारत के लिए चीन की चुनौती खत्म नहीं हुई है। चीन और भारत के संबंध भविष्य में न तो इससे ज्यादा खराब होंगे और न अच्छे। हां एक सबक चीन को जरूर मिला है कि भारत अब उसके सामने झुकने वाला नहीं है। भारत के इस सख्त रुख से पड़ोसी देशों का भरोसा भी हमारे ऊपर बढ़ा है। डोकलाम पर भारत के रुख में कोई कमी नहीं थी। इस क्षेत्र में सोलह जून से पहले की जो स्थिति थी वही स्थिति दोनों देशों के बीच बनी है। अगर देखा जाए तो डोकलाम से चीन को ही अंतत: पीछे हटना पड़ा, क्योंकि चीन यह बखूबी जानता है कि मिलिट्री आॅपरेशन होने पर भारतीय सेना चीन की सेना पर भारी पड़ती। दरअसल यहां की भौगोलिक संचरना भारतीय सेना के लिए मुफीद है। मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि बीजिंग में संपन्न हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मद्देनजर चीन ने डोकलाम के मुद्दे पर नरमी दिखाई है। चीन ने किसी दूसरे देश के दबाव में आकर भी अपने रुख में बदलाव नहीं किया है। रूस भी इस मामले में तटस्थ रहा है और वैसे भी इन दिनों चीन के साथ उनके संबंध अच्छे हैं। इस मामले में भारत सरकार की तारीफ करनी होगी कि उसने काफी सूझ-बूझ और संयम के साथ चीन को डोकलाम से पीछे हटने के लिए बाध्य किया। दुनिया के देशों ने भी देखा कि दक्षिण चीन सागर के मामले पर अमेरिका भी चीन के मुकाबले सीधे खड़ा नहीं हुआ। लेकिन भारत ने जिस साहस के साथ डोकलाम मुद्दे पर चीन का मुकाबला किया उससे दुनिया की नजरों में भारत का प्रभाव और सम्मान बढ़ गया है। डोकलाम प्रकरण के बाद दुनिया भर में संदेश गया कि भारत में नरेंद्र मोदी के रूप में एक मजबूत नेता है। हालांकि भारत को चीन से सावधान रहने की जरूरत है। वह पाकिस्तान के जरिये भारत को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
भारत की कूटनीतिक विजय
डोकलाम के मुद्दे पर करीब ढाई महीने तक भारत और चीन के बीच जारी तनाव का अचानक खत्म हो जाना सामान्य घटना नहीं है। चीन अब तक अपने अड़ियल रुख पर कायम था। वहां की सरकार और मीडिया ने काफी गलत और उकसाने वाली बयानबाजी की। वहीं भारत की तरफ से न केवल सधा बयान जारी हुआ, बल्कि इशारों ही इशारों में हमारी सरकार ने चीन को आईना भी दिखाया। चीन को गलतफहमी हो गई थी कि डोकलाम के मुद्दे पर दुनिया के प्रभावशाली देश कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे। लेकिन अमेरिका और जापान ने इस मुद्दे पर न केवल चीन की आलोचना की बल्कि भारत का समर्थन भी किया। चीन को जब यह एहसास होने लगा कि वह इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ गया है तो उसने डोकलाम से अपनी सेनाएं हटाने का फैसला किया। उसके बाद भारत ने भी अपनी सेनाएं वहां से वापस बुला लीं। पिछले दिनों संपन्न हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की वजह से भी चीन पर एक दबाव था। अगर चीन ने नरमी नहीं दिखाई होती तो काफी हद तक मुमकिन था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं होते। अगर ऐसा होता तो चीन की वैश्विक छवि को नुकसान पहुंच सकता था। ब्रिक्स के सदस्य देशों में भारत एक महत्वपूर्ण देश है। भारत को नजरअंदाज करना चीन के लिए आसान नहीं था। कुल मिलाकर डोकलाम मुद्दे पर भारत सरकार के कूटनीतिक प्रयासों की तारीफ करनी होगी।
भारत के धैर्य और साहस की वैश्विक सराहना
करीब ढाई महीने तक डोकलाम पर भारत और चीन के बीच तनाव बना रहा। चीन की सरकार और मीडिया ने भारत के खिलाफ तीखी और उकसाने वाली बयानबाजी की। भारत ने संयम और धैर्य का परिचय देते हुए अपनी सफल कूटनीतिक क्षमता का परिचय दिया। इससे न सिर्फ चीन इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ गया, बल्कि उसे डोकलाम में सड़क निर्माण कार्य बंद कर अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। चीन और भारत दुनिया के दो बड़े देश हैं। दोनों मुल्क समझते हैं कि मौजूदा समय में लड़ाई किसी के हित में नहीं है। डोकलाम पर चीन का रुख पूरी तरह अड़ियल और नाजायज है। वह हमेशा बाबा आदम के जमाने की संधियों खासकर साल 1890 की संधियों का हवाला देता है। लेकिन वह भूटान के साथ हुई आधुनिक संधियों का जिक्र कभी नहीं करता। चीन अपनी आर्थिक क्षमता के बल पर पूरी दुनिया को अपने पक्ष में करना चाहता है। लेकिन उसकी योजना इस बार सफल नहीं हो पाई। डोकलाम के मुद्दे पर जापान ने तो खुलकर भारत के समर्थन में बयान दिया। अमेरिका भी परोक्ष रूप भारत के रुख के साथ खड़ा नजर आया। अमेरिका ने कहा कि भूटान जैसे एक छोटे देश की संप्रभुता को चीन नुकसान पहुंचा रहा है। डोकलाम पर भारत का रुख चट्टान की तरह मजबूत था। पूरी दुनिया की नजर भारत की तरफ थी। खासकर सार्क, आसियान और दक्षिणी चीन सागर के देशों की। इन सब ने बखूबी देखा कि चीन की धमकियों का कोई असर भारत पर नहीं पड़ा। दुनिया में भारत की छवि इसलिए भी मजबूत हुई कि भूटान जैसे एक कमजोर देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए भारत किस प्रकार प्रतिबद्ध है। इससे भविष्य में भारत को दो फायदे होंगे। एक- एनएसजी में भारत को शामिल किए जाने का विरोध करने वाले देशों का रुख सकारात्मक होगा और दूसरा- संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी भारत की दावेदारी को बल मिलेगा। इसकी वजह है भारत का संयम और दूसरे देशों की संप्रभुता की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता। डोकलाम पर चीन के रवैये में आई नरमी के दो और कारण हैं। पहला बीजिंग में संपन्न हुआ ब्रिक्स शिखर सम्मेलन। अगर डोकलाम को लेकर चीन अपने रुख में नरमी नहीं लाता तो मुमकिन था कि भारत के प्रधानमंत्री इस शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं होते। इससे ब्रिक्स मंच पर चीन की काफी किरकिरी होती, क्योंकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ब्रिक्स के लिए भारत का महत्व कितना है। दूसरा कारण है नवंबर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव। राष्ट्रपति शी. जिनपिंग की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बड़ी हैं। वह माओ-त्से-तुंग से भी बड़ा नेता बनने की चाहत रखते हैं। लेकिन डोकलाम पर जिस तरह भारत ने चीन की धमकियों को नजरअंदाज कर अपनी सेनाएं न हटाने का फैसला किया, उससे राष्ट्रपति शी. जिनपिंग की अपनी पार्टी में ही आलोचना होने लगी थी। फिलहाल डोकलाम से दोनों देशों की सेनाएं हट चुकी हैं और आखिरकार चीन ने वही किया जिसका जिक्र विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में किया था। डोकलाम पर चीन के रुख में आई नरमी का असर उन देशों पर भी पड़ेगा जो कल तक चीन के सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं करते थे। वहीं इस मामले में चीन की छवि दुनिया भर में खराब हुई है। इस घटना के बाद चीन को सोचना चाहिए कि भविष्य में उसकी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को धक्का पहुंच सकता है। डोकलाम का सीधा असर पाकिस्तान में देखने को मिल रहा है। पाकिस्तान लगातार चीन से अपील कर रहा था कि वह भारत के समक्ष झुके नहीं। वहीं पाकिस्तान की जनता सीपैक को लेकर अपनी ही सरकार की आलोचना करने लगी है। उनका कहना है कि इस परियोजना से सिर्फ चीन और पंजाब सूबे को फायदा मिलेगा। इसलिए सिंध, बलूचिस्तान और नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में इसे लेकर जनता सड़कों पर मार्च भी करने लगी है। इतना ही नहीं चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) प्रोजक्ट में शामिल देशों के सुर भी चीन के खिलाफ होते जा रहे हैं। यह प्रोजेक्ट म्यामां से शुरू होता है। इस बाबत चीन और म्यामां के बीच एक समझौता भी हुआ है। लेकिन डोकलाम पर चीन की दादागीरी से म्यांमार सरकार भी सतर्क हो गई है। यही वजह है कि वह अब चीन के साथ हुए ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) समझौते पर पुनर्विचार की बात कह रही है। वहीं नेपाल और बांग्लादेश की सरकारें भी चीन की इन हरकतों से सशंकित हो गई हैं और चीन के साथ हुए समझौते पर दोबारा विचार करने का मन बना रही हैं। चीन ने श्रीलंका के साथ ओबीओआर प्रोजेक्ट के लिए एक संधि पर दस्तखत किया था। लेकिन भूटान की भूमि डोकलाम पर चीन की हठधर्मिता से श्रीलंका सरकार भी चीन के साथ हुए करार पर दोबारा विचार करने का मन बना रही है। इतना ही नहीं ‘वन बेल्ट वन रोड’ का दूसरा हिस्सा कई अफ्रीकी और यूरोपीय देशों से होकर गुजरता है। चीन की हालिया हरकतों से इन देशों में भी इस प्रोजक्ट को लेकर उत्साह में कमी देखी जा रही है। काफी हद तक मुमकिन है कि आने वाले समय में ये देश भी खुद को इससे अलग कर सकते हैं। फौरी तौर पर डोकलाम में भारत और चीन के बीच तनाव भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन यहां भारत को हर प्रकार की सतर्कता बरतनी होगी। भारत को अपने सीमा क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं को मजबूत करना होगा। चीन भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है, इसलिए सामरिक रूप से हमें अपनी क्षमताओं को और अधिक मजबूत करने की जरूरत है। रूस, फ्रांस, अमेरिका और इजराइल के साथ भारत ने जितने भी रक्षा सौदे किए हैं, उनकी आपूर्ति अधिक से अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। कारगिल रिकमंडेशन को अठारह साल हो गए, लेकिन अभी तक उसका पालन नहीं हुआ है। यह उदासीनता सही नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह जल्द से जल्द इसका अनुपालन करे।