मानसा की गलियों में अब मौत मायने नहीं रखती। आदत सी हो गई यह सब देखने- सुनने की। नौजवानों की मौत की चश्मदीद यहां की गलियां गम और सियापा की आदी हो गई हैं। यहां कब कौन मौत को गले लगा ले, पता नहीं चलता। गांव के बाहर पीपल के पेड़ पर छेद लगा एक घड़ा उतरता है तो दूसरा टंग जाता है (गांव में किसी की भी मौत के बाद संस्कार होने तक पानी भरा घड़ा पेड़ पर टांगने की परंपरा है। इसके नीचे एक छेद होता है। ऐसी मान्यता है कि मृत आत्मा इससे पानी पीती है)। ‘ओपनियन पोस्ट’ संवाददाता ने यहां तीन दिन बिताए और यह जानने की कोशिश की कि पंजाब का मजबूत किसान इतना मजबूर कैसे हो गया कि वह इस तरह से अपनी जान दे रहा है। देश का पेट भरने वाले ये अन्नदाता आज अपने परिवार का पेट पालने में भी लाचार कैसे हो गए?
मूसा गांव की 70 साला बेअंत कौर का जवान बेटा बलविंदर सिंह कीटनाशक पीकर जान दे गया। बूढ़ी मां पूछती है, ‘वह तो कर्ज के बोझ से मुक्ति पा गया। मैं उसके डेढ़ साल के बच्चे और लकवाग्रस्त बीवी को लेकर कहां जाऊं? मैं भी और कितने दिन जिंदा रहूंगी। मरते वक्त उसे हमारा जरा भी खयाल नहीं आया…।’ इस परिवार के पास न जमीन है, न पैसा। ऊपर से आढ़ती और बैंकों का तीन लाख रुपये का कर्ज अलग से। बेअंत कौर को कर्ज से ज्यादा चिंता बलविंदर के बेटे अमरजोत और पत्नी हरप्रीत की है। वह सारा दिन चारपाई पर बैठी रहती है और उन्हीं दोनों के बारे में सोचती रहती है। बलविंदर पांच-छह एकड़ जमीन ठेके पर लेकर खेती करता था। पहले कणक खराब हुई तो रब्ब का भाणा मान लिया पर अब नरमा भी मुठ्ठी भर हुआ तो वह यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका।
कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों का प्राकृतिक सिस्टम तोड़ दिया। पहले किसान आत्मनिर्भर था। उसकी जरूरत कम थी। गरीबी पहले भी थी मगर कर्ज नहीं था। खेती में बदलाव के साथ कर्ज ने किसानों को दबोच लिया
ट्रैक्टर खरीदवाने के नाम पर ही बहुत से किसानों को एजेंटों ने कर्जदार बना दिया। फसल बेचने से लेकर घर की खरीदारी तक हर जगह किसान दलालों के चंगुल में हैं। रही सही कसर आढ़ती पूरी कर रहे हैं
ऐसे किसान आत्महत्या नहीं करते जिनके पास आय का कोई अतिरिक्त जरिया है। पशुपालन से किसान को हर रोज कुछ आमदनी हो जाती है। जो किसान सिर्फ खेती पर निर्भर हैं उनकी स्थिति खासी खराब है।
मूसा से थोड़ी ही दूर बणांवाली गांव है। यहां 1980 मेगावाट का तलवंडी साबो थर्मल पावर प्लांट लगा है। पावर प्लांट लगने से किसानों को लगा कि खुशहाली आएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गांव के किसी को भी प्लांट में नौकरी नहीं मिली। यहां केसर सिंह का परिवार है। केसर को अक्सर दौरे पड़ते हैं, इसलिए वह खेत नहीं जाते। तीनों भाइयों के नाम पर मात्र तीन एकड़ जमीन। सारा काम तीस साल के चरनजीत सिंह और 28 साल के पाला सिंह ही देखते थे। जमीन कम होने की वजह से कोई उनके घर अपनी बेटी देने को तैयार नहीं था। चरनजीत ने विधवा करमजीत कौर से शादी कर ली। कच्चे घर को पक्का करने, पुराना ट्रैक्टर खरीदने और ट्यूबवेल लगवाने के चक्कर में उस पर सतलुज ग्रामीण बैंक का पांच लाख रुपये का कर्ज चढ़ गया। पिछले साल गेहूं खराब होने के बाद इस साल जब नरमा भी सफेद मक्खी चट कर गई तो चरनजीत अपने खेत में बनी टाहली पर ही फांसी लगा कर झूल गया। पीछे छोड़ गया अंधा बाप, बूढ़ी मां, पत्नी, दो छोटे बच्चे और दो भाई। अब इन सभी को पालने की जिम्मेवारी सबसे छोटे भाई पाला सिंह पर आ पड़ी है।
चरनजीत की पत्नी बताती है, ‘बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था कि शायद पढ़ लिखकर कोई नौकरी कर लेंगे। अब इन्हें पढ़ाना तो दूर, दो वक्त की रोटी देना भी मुश्किल हो जाएगा। अफसरों और मंत्रियों के बच्चे तो बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए, इनका ध्यान सरकारी स्कूलों की ओर नहीं है। इनमें पढ़ने के लिए हमारे बच्चे ही रह गए हैं। जमीन बैंक के पास गिरवी है। आगे की जिंदगी कैसे कटेगी, पता नहीं।’
गिदड़बाहा के जगसीर सिंह ने दस साल पहले आत्महत्या कर ली। उसके छोटे भाई बूटा सिंह ने भी तीन महीने पहले मौत को गले लगा लिया। इस घर का मामला दूसरों से थोड़ा अलग है। यहां दोनों मौतें नशे के चक्कर में जमीन बिकने की वजह से हुर्इं। जगसीर को शराब पीने की लत थी तो बूटा को पोस्त खाने की। सामाजिक दबाव के चलते रिकॉर्ड में आत्महत्या नहीं लिखवाई गई बल्कि मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना बताया गया। मगर पूरा गांव जानता है कि उसने खेत में जाकर कोई जहरीली दवा पी ली थी। नरमा के 28 किसान इसी सीजन में आत्महत्या कर चुके हैं।
मूसा गांव के ही रजिंदर सिंह पुत्र नायब सिंह ने भी कर्ज चुकाने की बजाय मौत को गले लगाना ही सही समझा। चैलांवाला के सुखचैन सिंह ने भी यही कदम उठाया। 2000 से 2010 तक पंजाब की तीन यूनिवर्सिटी किसानों की आत्महत्याओं का सर्वे कर चुकी हैं। तब तक राज्य के 6,980 किसान खुदकुशी कर चुके थे। सर्वे फिर हो रहा है पर आत्महत्याओं को रोकने, किसानों को कर्ज के मकड़जाल से बाहर निकालने के लिए कोई ठोस पॉलिसी नजर नहीं आ रही है।
तबाही की पटकथा के आधारसूत्र
हरित क्रांति ने ही किसानों की आत्महत्या की पटकथा लिख दी थी। खेती विरासत के स्वयंसेवक डॉक्टर उपेंद्र का कहना है कि कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों का प्राकृतिक सिस्टम तोड़ दिया। पहले किसान आत्मनिर्भर था। उनकी जरूरत कम थी। तब भी गरीबी थी लेकिन कर्ज नहीं था। खेती में बदलाव के साथ बीज, रसायनिक खाद और कीटनाशक आए। किसान जैसे ही बाजार में इन्हें खरीदने निकला, उसे कर्ज ने दबोच लिया। वह दिन और आज का दिन, किसान कर्ज के बोझ से निकल ही नहीं पा रहा है। नतीजा यह निकला कि दूसरों का पेट भरने वाला किसान आज खुद भूखा मरने के कगार पर है।
किसानों से बातचीत में आत्महत्या की दो बातें सामने आईं। एक तो बढ़ता कर्ज। दूसरा सामाजिक दबाव। मूसा गांव के पंच स्वर्ण सिंह बताते हैं, ‘जमीन बेचने से हम पर जो तानाकशी होती है, वह दबाव झेलना बहुत मुश्किल है। अच्छा होता सरकार किसान परिवारों में से किसी एक को सरकारी या प्राइवेट नौकरी दिलाकर जमीन पर बढ़ रहे परिवार के बोझ को कुछ कम करे। मेरे पास भी तीन एकड़ ही जमीन है लेकिन मेरा एक बेटा फौज में है। इस वजह से मेरे परिवार का गुजारा चल जाता है। गांव के स्कूल में न तो पढ़ाई होती है और न ही इलाज का इंतजाम है। छोटी-छोटी बीमारियां होने पर भी हम प्राइवेट अस्पतालों के मकड़जाल में फंसते जाते हैं। किसानों में जानकारी का भी अभाव है। ट्रैक्टर खरीदवाने के नाम पर ही बहुत से किसानों को एजेंटों ने कर्जदार बना दिया। फसल बेचने से लेकर घर की खरीदारी तक हर जगह किसान दलालों के चंगुल में हैं। रही- सही कसर आढ़ती पूरी कर रहे हैं। वे किसान से कितना ब्याज वसूलते हैं, यह कभी भी किसान को पता ही नहीं चल पाता।’
स्वराज अभियान के ‘जय किसान आंदोलन’ के संयोजक योगेंद्र यादव ने कहा कि आज देश का अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर हो रहा है क्योंकि खेती घाटे का व्यवसाय हो गई है। किसान की जेब खाली है। फसलों के दाम लागत के हिसाब से नहीं बढ़ते। पिछले 40 साल में गेहूं का दाम सिर्फ सात गुना बढ़ा है। 1977 में पूर्व विधायक की पेंशन अधिकतम 500 रुपये होती थी। अब 2015 में एक पूर्व विधायक को 2.22 लाख रुपये मासिक पेंशन मिल रही है।
अटका कर्ज राहत बिल
किसानों को कर्ज के जाल से निकालने के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए ‘पंजाब कर्ज राहत बिल 2006’ तैयार किया था। इसमें जहां आढ़तियों के कर्ज को रेगुलेट करने का प्रावधान था, वहीं ब्याज भी 12 फीसदी से ज्यादा न लेने की बात थी। विवाद होने पर केस कर्ज राहत बोर्ड के पास जाना था लेकिन नौ साल से यह बिल फाइलों की धूल फांक रहा है। माना जा रहा है कि इस बिल को लागू न करवाने के लिए आढ़ती लॉबी का दबाव है। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के बूटा सिंह बुर्ज गिल ने यह मामला इसी महीने मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ हुई मीटिंग में भी उठाया। बादल ने उन्हें विधानसभा के अगले सत्र में इस बिल को लाने का आश्वासन दिया है। देखना होगा कि नौ साल बाद किस रूप में यह बिल बाहर आता है।
आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को मुआवजा देने की राशि सरकार ने दो लाख से बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी है। इस बारे में कैबिनेट में प्रस्ताव भी पारित हो गया है। इस बार के बजट में इसके लिए बीस करोड़ रुपये भी रखे गए थे लेकिन अभी तक किसी किसान के परिवार को यह राशि नहीं मिली है। सरकार ने मुआवजा देने की नीति में बदलाव भी किया है। अब सारा पैसा नकद देने की बजाय केवल 50 हजार रुपये ही नकद मिलेंगे। शेष राशि परिवार के किसी एक पात्र सदस्य के नाम पर एफडी कराई जाएगी और उसका ब्याज महीनेवार उन्हें मिलता रहेगा। फाइनेंशियल कमिश्नर (रेवेन्यू) करण अवतार सिंह मानते हैं कि अभी तक किसी को मुआवजा नहीं मिला है। सर्वे का काम यूनिवर्सिटियों के पास था जो काफी धीमे से काम कर रही थीं। अब हमने जिला स्तर पर डिप्टी कमिश्नर की अध्यक्षता में कमेटियां बना दी हैं जो आत्महत्या करने वाले किसानों के मामले बनाकर भेजेंगी। एक महीने के अंदर सभी परिवारों को सहायता राशि दे दी जाएगी।
केंद्र भी गंभीर नहीं
पिछले दिनों किसानों की खुदकुशी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई। साथ ही केंद्र पर 25 हजार रुपये का जुमार्ना भी ठोका। यूथ कमल आॅर्गेनाइजेशन की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह कार्रवाई की। दरअसल, कोर्ट ने 21 अगस्त को सरकार से कहा था कि किसानों के मसले पर सरकार छह हफ्तों में अपना रुख साफ करे। मगर सरकार ने दो महीने बाद भी हलफनामा नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा है कि यदि सरकार एमएस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के 190 बिंदुओं पर सहमत है तो उन्हें लागू करने में देरी क्यों?
पशुपालक आत्महत्या नहीं करते
ओपिनियन पोस्ट ने पंजाब के 20 गांवों के 123 किसान परिवारों से मुलाकात की। इसमें एक बात और निकल कर सामने आई कि पशुपालक या फिर ऐसे किसान आत्महत्या नहीं करते जिनके पास आय का कोई अतिरिक्त जरिया है। हरियाणा के तरावड़ी के मॉडर्न डेरी के संचालक रामसिंह ने बताया कि पशुपालन से किसान को हर रोज कुछ न कुछ आमदनी हो जाती है। ऐसे में वह आढ़ती पर निर्भर नहीं रहता। पंजाब के मुक्तसर के डेरी संचालक किसान हरपाल का भी ऐसा ही मानना है। यह देखने में आया कि जो किसान सिर्फ खेती पर निर्भर है, उनकी स्थिति खासी खराब है। जिस परिवार में एक भी आदमी नौकरी कर रहा है, उसके हालात अपेक्षाकृत ठीक है। कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा का भी कहना है कि किसानों को खेती का ऐसा मॉडल चाहिए जिसमें उन्हें फसलों का उचित दाम तो मिले ही, उनकी आमदनी के और भी स्रोत हों ताकि रोजीरोटी चलती रही।