अजय विद्युत
‘हमरे शरीर के तनपुरा समझके शिवजी सुर भरत रहलन। हम त मुंह हिलावत रहली। मजे की बात त इ हौ कि ओही गायक और ओही श्रोता…’ साधना का ऐसा समर्पण गिरिजा देवी के अलावा और कौन कर पाएगा। शरीर जन्म लेता है और एक दिन विदा भी होता है- लेकिन हर कोई चाहता है कि मां की छाया हमेशा बनी रहे, वैसा ही गिरिजा देवी के बारे में है। अट्ठासी वर्ष की यात्रा कर चौबीस अक्टूबर की रात कोलकाता में उनका शरीर शांत हो गया। उनकी हर सांस का काशी में वास था। निधन से दो दिन पहले ही उन्होंने काशी आने की इच्छा जताई थी, ‘अब बाबा के दरबार में ही अंतिम दिन बीती।’ आखिर उनका पार्थिव शरीर ही काशी लाया गया। जो एक बार उनसे मिल लेता वह उनका ‘अपना’ हो जाता था। बनारस घराने की सशक्त आवाज। लोक के साथ शास्त्रीय संगीत में भी उतनी ही निष्णात। उनकी महान संपत्ति वे शिष्य हैं जो आज खुद गुरु हैं …राजन मिश्र, साजन मिश्र, मालिनी अवस्थी, शुभा मुद्गल, सुनंद शर्मा- नाम गिनते जाइए सूची जल्द पूरी न हो पाएगी। ठुमरी गायन को नई ऊंचाई देने वाली गिरिजा देवी ने ध्रुपद, खयाल, टप्पा, तराना, सदरा के साथ ही लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजनों का गायन कर संगीत के सुधी श्रोताओं के दिलों पर राज किया।
‘उ बनारस का नाक रहलिन’ पं. राजन-साजन मिश्र का गला भर आता है, ‘अब का बोलीं, शब्द और स्वर दोनों थम गए से लगते हैं। मालिनी अवस्थी कहती हैं, बनारस उनके तन मन, वाणी और कर्म में बसता था। हमेशा कहती थीं बनारस की इस कला को जिंदा रखो।’ बनारस की जैसी पैरवी गिरिजा जी ने की शायद ही कोई कर पाए, ‘आज के कलाकार तराना गा देंगे, दादरा गा देंगे, भजन गा देंगे। मगर बनारस के जैसी ठुमरी या दादरा भी हर कोई नहीं गा सकता है।’
कोई दो साल पहले इस लेखक ने गिरिजा जी से लंबी बातचीत की थी। आप जिक्र छेड़ भर दें बनारस का, उनका उत्साह देखते बनता था… एक अंश देखिए-