गुजरात चुनाव- हार्दिक, अल्पेष और जिग्नेश कितने स्वीकार्य ?

अभिषेक रंजन सिंह।

गुजरात में पाटीदार आरक्षण की मांग के बाद हार्दिक पटेल मीडिया की सुर्खियों में छा गए। उनके बाद ओबीसी नेता के रूप में अल्पेश ठाकोर उभरे। वहीं साल 2016 में उना में मृत गायों की खाल उतारने के सवाल पर चार दलित युवकों की पिटाई के बाद जिग्नेश खुद को दलितों का रहबर मानने लगे। पाटीदार, ओबीसी और दलितों के बीच ये कितने स्वीकार्य हैं यह एक अहम सवाल है? गुजरात में पाटीदारों की दो उपजातियां हैं लेउवा और कडवा। सौराष्ट्र इलाके में जहां लेउवा पटेलों की संख्या अधिक है,वहीं उत्तरी और मध्य गुजरात में कडवा पटेलों की। हार्दिक लेउवा पटेल हैं। कडवा पटेलों के मुकाबले लेउवा पटेलों की आर्थिक स्थिति ज्यादा मजबूत है। कडवा पटेलों की आस्था मेहसाणा स्थित उमिया धाम में है, जबकि लेउवा पटेलों का विश्वास राजकोट स्थित खोडल धाम में अधिक है। पाटीदारों के बीच खोडलधाम का प्रभाव अधिक है।

पाटीदारों की एक बड़ी आबादी स्वामीनारायण संप्रदाय से भी जुड़ी है। संस्था के मौजूदा आध्यात्मिक गुरू इसी समाज से हैं। इस सामाजिक एवं धार्मिक संस्था की तुलना पंजाब और हरियाणा के डेरों से नहीं की जा सकती। लेकिन गुजरात के चुनावों में इसके असर को नकारा भी नहीं जा सकता, क्योंकि पूरे गुजरात में इससे जुड़े लाखों पाटीदार हैं जिनमें करीब पांच लाख वोटर हैं। निकुंज पटेल अहमदाबाद में असिसटेंट प्रोफेसर हैं। उनका कहना है, ‘शुरुआत में हार्दिक पटेल को पाटीदारों के सभी वर्गों का साथ मिला। लेकिन बाद में दिनों में उनके आंदोलन के साथी रहे कई लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया। इसकी वजह उनका अस्पष्ट लक्ष्य और दूसरा कांग्रेस के प्रति उसका सॉफ्ट होना था। यही वजह है कि पाटीदारों के बीच उनकी लोकप्रियता घट रही है।’

विसनगर में रिटायर्ड शिक्षक जयराम पटेल पाटीदार आरक्षण के नाम पर हो रही राजनीति से नाखुश हैं। ऐसी ही नाराजगी पाटीदारों की कई संस्थाओं की है। जामनगर के कई पाटीदार संगठनों का आरोप है कि हार्दिक पटेल ने अनामत आंदोलन के नाम पर समाज के लोगों को गुमराह किया है। इस बाबत पाटीदार संगठनों ने हार्दिक के खिलाफ पोस्टर भी चस्पा किए। सुरेंद्रनगर निवासी गुंजन पटेल का कहना है, ‘पाटीदारों के बीच हार्दिक पटेल की स्वीकार्यता बढ़ रही थी। लेकिन अपने टीम के सदस्यों को भरोसे में लिए बगैर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से उनका मिलना समाज के लोगों को ठीक नहीं लगा। इस तरह उनकी विश्वसनीयता पहले की तरह नहीं रही। उसी तरह कांग्रेस में शामिल हुए अल्पेश ठाकोर की स्वीकार्यता ओबीसी में शामिल अन्य जातियों में नहीं है। गुजरात में ओबीसी 44 फीसदी हैं, जिसमें अल्पेश की स्वजातीय ठाकोर की संख्या बीस फीसदी है। ओबीसी की शेष चौबीस फीसदी आबादी अल्पेश को अपना नेता मानने को तैयार नहीं है।’ जाफराबाद में आॅटो ड्राइवर जगदीश परमार क्षत्रिय ओबीसी हैं। उनका कहना है, ‘अल्पेश अपनी बिरादरी के नेता हो सकते हैं। लेकिन ओबीसी में शामिल क्षत्रिय और दूसरी जातियां उन्हें नेता नहीं मानती’ ऐसा ही किस्सा उना कांड के बाद चर्चा में आए जिग्नेश मेवाणी का है। गुजरात में अनुसूचित जातियों के मतदाता सात फीसदी हैं और सूबे की तेरह विधानसभा सीटें इनके लिए आरक्षित हैं। इनमें दस सीटें भाजपा के पास हैं और तीन कांग्रेस के पास। हालांकि उना में दलित उत्पीड़न की घटना के बाद पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल विपक्षी दलों के निशाने पर आ गर्इं। इसी घटना के बाद जिग्नेश मेवाणी ‘दलित अधिकार लड़त समिति’ के जरिए गुजरात समेत पूरे देश में भाजपा के विरोध में दलितों को जागरूक करने में जुटे हैं। हालांकि दलित उत्पीड़न की घटना के बाद हुए पंचायत चुनाव में भाजपा को उना में अच्छी कामयाबी मिली।’ श्रवण कुमार गिर सोमनाथ में भारतीय बौद्ध संघ के जिला मंत्री हैं। उनका आरोप है, ‘जिग्नेश मेवाणी का पूरा आंदोलन विदेशी एनजीओ के धन से संचालित है। वह स्वयं को दलितों का नेता कहते हैं, लेकिन जिस उना के नाम पर वह राजनीति कर रहे हैं वहीं की जनता उनके आंदोलन के साथ नहीं है।’

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