उमेश सिंह।
यहां उत्सव है। आनंद का नर्तन है। आंखों से खुशी की अश्रुबूंदें छलक रही हैं। कंठ भी अवरुद्ध। पग सम्हल ही नहीं रहे हैं। भावों का ज्वार। बहुत कुछ बताने की छटपटाहट। पर शब्द ही साथ छोड़ दे रहे हैं। मन के कोने-अंतरे में दबी ढेर सारी स्मृतियां हैं। खदबदाकर बाहर आने को बेताब हैं। सबके अपने-अपने अनुभव हैं, स्मृति हैं। इसे बयां करने की बेताबी है। जोश-जज्बे से इस कदर लबरेज कि बुजुर्गियत मानो बौनी पड़ गई हो। गांव की प्राण-ऊर्जा में सादगी, सरलता, सहजता और धार्मिकता की वेगवान धारा का अविरल-निर्मल प्रवाह। भावनाओं से ओतप्रोत यह दृश्य है कानपुर देहात के परौंख गांव का, जिसकी माटी के लाल व ‘लल्ला’ रामनाथ कोविंद सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश के प्रथम नागरिक बन गए हैं।भाव हो तो माटी, र्इंट-पाथर, पगडंडी-ताल-तलैया सबके सब गहन संवाद करने लगते हैं। बोलने-बतियाने लगते हैं। कुछ ऐसा ही संवाद हुआ संभावित राष्ट्रपति के गांव से।
परौंख में पग-पग पर अतीत का समुंदर लहरा रहा है। रामनाथ कोविंद का पुश्तैनी घर, पास-पड़ोस के घर, तालाब, प्राइमरी स्कूल का रास्ता, विद्यालय भवन, पथरी देवी का मंदिर, शिवमंदिर। हर जगह पुरानी स्मृतियों का झोंका बुजुर्गों के दिमाग में वर्षांत के बादलों की तरह हवाओं के रुख पर आवाजाही कर रहा है। वाल्मीकि, तुलसी और कबीर सबके अपने-अपने राम हैं। ठीक उसी तरह परौंखवासी रामनाथ कोविंद को अपनी-अपनी नजर से देख रहे हैं, भावुक हो रहे हैं, उनकी सादगी-सरलता-विनम्रता का बखान कर रहे हैं। बुलंदियों पर पहुंचने के पीछे सभी की अपनी-अपनी दृष्टि व धारणा है। जितनी चर्चा रामनाथ कोविंद की उतनी ही उनके पिता स्व. मैकूलाल की… तनिक भी कम नहीं। पुत्र की आसमानी बुलंदियों के पीछे उनके पिता की जीवनचर्या में छिपे रहस्यमयी सूत्र को लोग तलाश रहे हैं। दरअसल मैकूलाल गृहस्थ संत थे। कागज पर ‘रामनाम लड्डू’ व सावन में विल्व पत्र पर ‘शिव-शिव’ का अंकन उनकी प्राणधारा थी। घर पर ही छोटी सी दुकान थी। अच्छे वैद्य थे लेकिन आर्थिक झंझावातों से घिरे रहने के बाद भी सेवा के बदले शुल्क नहींं लिया। उनमें ‘रामनाम की धूनी’ भीतर ही भीतर जलती रहती थी। वे नख से शिख तक धर्म व आध्यात्मिकता में रचे-पगे इंसान थे। घर के बजाय गांव के पथरी देवी मंदिर और शिवमंदिर में उनका मन रमण करता था।
माटी और छपरे का पुश्तैनी घर वक्त के निर्मम थपेड़ों में तकरीबन ढह गया। उसी स्थान पर ‘मिलन केंद्र’ है जिसमें दो कमरे व बरामदा है। रामनाथ कोविंद ने मिलन केंद्र को गांव को अर्पित कर दिया। जिन स्कूलों से कोविंद को ‘विद्या का बुनियादी संस्कार’ मिला, काल की निर्मम गति ने उनके रूप-रंग को बदल डाला। प्राइमरी स्कूल का भवन तो बचा है लेकिन नया सरकारी भवन बन जाने के कारण इसे अब पशुशाला के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। यहां से आठ किलोमीटर दूर स्थित जूनियर हाईस्कूल खानपुर डिलवल माटी के थूह में तब्दील हो गया। जब भी रामनाथ कोविंद को कोई उपलब्धि मिली, वे गांव जरूर आए। राज्यसभा सदस्य बने तो गांव वालों ने उन्हें चांदी के ग्यारह मुकुट भेंट किए। सिक्के से तौलना भी चाह रहे थे, लेकिन उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया। मुकुट को फिर गांव वालों को ही सौंप दिया। किसी को भी उन्होंने नौकरी नहींं दी, यह बात बड़े फख्र से उनके गांव वाले करते हैं। साथ ही विकास के लिए किए गए उनके कार्यों को बताने से भी नहींं चूकते। गांव में सड़कों का जाल है, बैंक की शाखा है, छह नलकूप भी लगे हैं। भव्य प्रवेश द्वार भी बना है। आठ के बाद शिक्षा की सुविधा न होने का दंश उन्होंने खुद झेला था, आठ किलोमीटर पैदल चल कर। उन्होंने गांव में ही वीरांगना झलकारी बाई इंटर कालेज खुलवा दिया। बहते-बहते बहुत कुछ कहती रहती हैं नदियां। नदी है तो गांव है और शहर भी, साथ में वहां की संस्कृति भी। परौंख गांव के बगल से बहने वाली रिंद नदी जहां पर रामनाथ कोविंद अपने दोस्तों के साथ बचपन में नहाया करते थे, उसके महत्व का इसी तथ्य से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भतीजा दीपक कोविंद घड़े में रिंद का पवित्र जल लेकर घर से दिल्ली गए थे।