ओपिनियन पोस्ट ब्यूरो
यमुनानगर जिले का गांव बुड़िया यमुना किनारे बसा है। यहां की आबादी करीब दस हजार है। यहां की लड़कियां पांचवीं क्लास से आगे पढ़ ही नहीं पातीं क्योंकि स्कूल गांव से दूर जो है। इस गांव में आना अपने आप में मुश्किल भरा काम है क्योंकि सरकारी बस सुबह और शाम को ही आती है। कुल मिला कर यह हरियाणा के उन तमाम पिछड़े गांव की तरह ही है जहां वही सब समस्याएं मिल जाएंगी जो अन्य किसी गांव में मिलती हैं। फिर भी इस गांव का नाम देश भर में रौशन हो गया है। प्रदेश में भले ही लड़कियों को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता हो मगर इस गांव की तो पहचान ही अब एक लड़की हो गई है। गांव पहुंच कर मिस्बा हाशमी का नाम आप लीजिए, गली में खेल रहे बच्चे आपको उसके घर तक खुशी-खुशी छोड़ कर आएंगे। 26 वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर मिस्बा उस वक्त चर्चा में आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उससे बातचीत की। आखिर ऐसी क्या बात है, यही जानने के लिए ओपनियन पोस्ट संवाददाता ने इस गांव का दौरा किया।
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक इस गांव में सभी समुदाय बहुत ही चैन से बसर करते हैं। गांव के एक कोने में मिस्बा का आॅफिस है जहां वह कॉमन सर्विस सेंटर (सीएससी) चलाती है। प्रधानमंत्री से बात कर कैसा महसूस हो रहा है? इस सवाल पर वह कहती है, ‘एक सपने की तरह था। मैंने कभी सोचा नहीं कि प्रधानमंत्री मुझसे बातचीत कर मेरे काम की सराहना करेंगे। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि जब भी वे हरियाणा आएंगे तो मेरे साथ सेल्फी विद डॉटर कार्यक्रम के तहत एक सेल्फी लेंगे।’
आखिर क्या किया है मिस्बा ने
मिस्बा के पिता मोहम्मद इरशाद एक ठेकेदार हैं और उसकी मां शाहिदा बानो एक सेवानिवृत्त सरकारी शिक्षक। उसने वर्ष 2013 में बीटेक किया तो परिवार और दोस्तों ने नौकरी के लिए दबाव डाला लेकिन उसने तय किया कि वह अपने गांव में रह कर ही कुछ करेगी। इसी क्रम में नवंबर 2014 में सीएससी शुरू करने का फैसला किया। मिस्बा कहती हैं, ‘सीएससी के तहत मुझे एक आधार आॅपरेटर के रूप में काम करने का मौका मिला। मुझे ऐसा अनुभव मिला जो मेरी सोच से परे था। मेरे प्रयासों का यह परिणाम है कि इलाके में शतप्रतिशत लोग आधार कार्ड धारक हैं। दिव्यांग व्यक्तियों के लिए शिविरों का आयोजन किया। मैंने मुस्लिम समुदाय को आगे आने और खुद को आधार से जोड़ने के लिए प्रेरित किया। हमारे समाज की महिलाएं जो पर्दे में ही रहती हैं, मैंने उन्हें आधार से जोड़ा। मदरसों में शिविर लगाए, लोगों को समझाया। वर्ष 2015 में मुझे एक परिवार के बारे में पता चला जिसमें चार लोग पूरी तरह से दिव्यांग हैं। यासीन की तीन बेटियां और एक बेटा शारीरिक रूप से पूरी तरह से अक्षम हैं। वे एक किस्म की बीमारी से पीड़ित हैं जिसमें जन्म के 12 साल बाद उनके हाथ और पांव काम करना बंद कर देते हैं। उनके पास कोई काम नहीं है। वे चल-फिर नहीं पाते इसलिए सरकारी योजना के तहत पेंशन भी नहीं पा रहे थे। मैंने उनके घर जाकर सभी को नामांकित किया। आधार की सहायता से वे मेडिकल सर्टिफिकेट, डोमिसाइल सर्टिफिकेट ले पाए। आज वे पेंशन लाभार्थी हैं। इससे उनका जीवन खासा आसान हो गया है। मुझे नहीं लगता कि यदि मैं दूसरे किसी काम में होती तो इस परिवार की मदद कर पाती। यह इसलिए संभव हो पाया क्योंकि मैं गांव में सीएससी चला रही हूं।’
जिले की अकेली महिला वीएलई
देश भर में इस वक्त 2.92 लाख सीएससी काम कर रहे हैं। इनकी पहुंच 2.15 लाख ग्राम पंचायतों तक है। इन्हें चलाने वाले ग्राम स्तर के उद्यमियों (वीएलई) में से करीब 52 हजार महिलाएं हैं। इनमें 30 हजार महिला वीएलई अनुसूचित जाति व जनजाति समुदाय से आती हैं। मिस्बा यमुनानगर जिले में अकेली महिला वीएलई हैं। उन्होंने गांव के शतप्रतिशत लोगों के आधार कार्ड बनवाए। इस काम के लिए उन्हें 11 जुलाई, 2017 को आईटी मंत्री द्वारा सम्मानित भी किया गया। पीएमए के तहत मिस्बा ने श्रमिकों के लिए रात में शिविर लगाए क्योंकि दिन में वे काम पर चले जाते थे। गांव में बैंकिंग सेवाओं की पहुंच के लिए एक महीने में 1,000 से अधिक लोगों के खाते खोले। नोटबंदी के दिनों में वह सुबह 7 बजे अपना आॅफिस खोल देती थी ताकि लोगों को दिक्कत न आए। डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने के लिए मिस्बा ने शिविर आयोजित किए।
इस काम में क्या-क्या मुश्किल आई, इसके जवाब में मिस्बा कहती है, ‘यह काम काफी मुश्किल था। वह समाज जहां अभी शिक्षा का उतना प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है ऐसे में महिलाओं को प्रेरित करना खासा मुश्किल था। हालांकि इस काम में मुझे परिवार का हमेशा समर्थन मिलता रहा। जब लोगों को सुविधा मिली और उनका काम आसान होने लगा तो लोग मेरी बात सुनने लगे। इस तरह से एक बार जब गांव के लोग आधार समेत अन्य सुविधाओं का लाभ उठाने लगे तो मैंने महिलाओं के बीच में जाकर काम करना शुरू किया। इंजीनियरिंग करने के बाद इस काम को करना काफी अच्छा लगता है क्योंकि लगता है कि इस तरह से गांव के लोगों की सेवा कर रही हूं।’ मिस्बा का मानना है कि पढ़े-लिखे युवाओं को गांव के लिए काम करना चाहिए। गांव में इसकी काफी संभावना है और काम करने की जरूरत भी है। यदि सभी युवा पढ़-लिख कर शहर की ओर चले जाएंगे तो विकास की दौड़ में हमारे गांव कैसे शामिल होंगे?