अनिल आजाद पांडेय। चीन में पिछले कई वर्षों से रहते हुए मुझे बड़े शहरों के साथ-साथ गांवों में भी जाने का मौका मिला है। लेकिन इस बार जब पता चला कि शानसी प्रांत के ग्रामीण और दूर-दराज के क्षेत्रों में जाना है, तो मैं जाने के लिए तैयार हो गया। मैं वहां जाने के लिए उत्साहित था, क्योंकि इससे पहले मैं शानसी नहीं गया था। वहीं गांवों में जाने और स्थानीय लोगों के जीवन से रूबरू होने की मेरी हमेशा इच्छा रहती है। चीन में वसंत त्योहार और उससे जुड़ी गतिविधियां लगभग पंद्रह दिन तक होती हैं, ऐसे में हमें स्थानीय लोगों के साथ नया साल मनाने का भी मौका मिलने वाला था। लेकिन मैं कह सकता हूं कि जैसा हमने राजधानी बीजिंग में सोचा था, उससे कहीं अधिक रोमांचक और यादगार अनुभव रहा।
हमारी यात्रा 17 फरवरी को शुरू हुई। निर्धारित समय के अनुसार हम सुबह के वक्त बीजिंग वेस्ट रेलवे स्टेशन पहुंच गए, जहां से शीआन के लिए ट्रेन पकड़नी थी। मेरे साथ तुर्की, बांग्लादेश और ईरान आदि देशों के लोग शामिल थे। शीआन शहर शानसी प्रांत की राजधानी है, जहां भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीनी राष्ट्रपति ने शानदार स्वागत किया था। शानसी चीन के सबसे प्राचीन क्षेत्रों में से एक हैं, इनका अपना विशेष ऐतिहासिक महत्व है। शीआन (छांग आन) लंबे समय तक चीन की राजधानी भी रही है। बीजिंग से शीआन की दूरी लगभग 1216 किमी. है, जिसे तेज गति की ट्रेन ने महज सवा छह घंटे में ही पूरा कर लिया। इस ट्रेन की अधिकतम गति 300 किमी. प्रति घंटा तक है। लगभग ढाई बजे हम शीआन पहुंचे। बीजिंग से शीआन तक का सफर तेज रफ्तार और आरामदायक ट्रेन में गुजरा। हालांकि शीआन से करीब 170 किमी. दूर शुन यांग काउंटी पहुंचने में हमें लगभग तीन घंटे लगे क्योंकि वह ट्रेन धीमी गति की थी। आमतौर पर चीन में हाईस्पीड ट्रेनों के बारे में सुनकर और उनमें सफर करने के बाद यह हमारे लिए एक नया अनुभव था। ट्रेन लगभग हर स्टेशन पर रुक रही थी और गति भी धीमी थी।
देर शाम हम शुन यांग पहुंचे, छोटे से स्टेशन में यात्रियों की बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही लगा, हम शहरों की आपाधापी और व्यस्त जिंदगी से दूर आ गए हैं। क्योंकि सब कुछ शांत था, बिल्कुल किसी गांव की तरह। जल्द ही हमारा सामान कारों के पिछले हिस्सों में रख दिया गया और हम होटल की तरफ चल दिए। कुछ ही देर में होटल पहुंचे और डिनर किया। चीन में आवभगत और मेहमानों का स्वागत करने में किसी तरह की कमी नहीं रखी जाती। हमारा भी स्थानीय प्रतिनिधियों ने शानदार सत्कार किया।
थाय छी कस्बा
18 फरवरी की सुबह यानी दूसरे दिन हमारा दल थाय छी कस्बे को देखने के लिए निकल पड़ा जो कि दो नदियों के मुहाने पर बसा है। शुन यांग में लगभग छह हजार साल पहले मानव की बसावट के प्रमाण मिलते हैं। इस टाउन का नाम थाय छी पड़ने की वजह यह है कि कस्बे का आकार थाय छी (अंग्रेजी के एस) की तरह दिखता है। करीब 3,354 वर्ग किमी. में फैली काउंटी के अंतर्गत 22 गांव आते हैं। इसके साथ ही शुन यांग को चीन में संघर्ष के दौरान क्रांतिकारी आधार क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। पहाड़ी क्षेत्र होने के साथ-साथ यहां का मौसम उमस भरा होता है। हम वहां एक 478 मीटर ऊंची जगह पर गए। जहां से पूरे कस्बे और नदियों का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। इस कस्बे में दो नदियों का संगम देखने लायक होता है। मानों ये नदियां लोगों ने मिलकर बनायी हों। नदियों के संगम के निकट दो छोटे द्वीप भी हैं, यांग य्वी द्वीप और यिंग य्वी द्वीप। यिंग य्वी द्वीप पर एक हजार साल पुराना ताओ धर्म का मंदिर है। जबकि यांग य्वी द्वीप पर लगभग डेढ़ हजार साल पुराना वृक्ष है। ये इस कस्बे के ऐतिहासिक और प्राचीन होने के साक्षी हैं। बताते हैं कि उक्त वृक्ष पर पत्थर फेंकने पर उससे एक विशेष तरह की आवाज निकलती है। लगभग पांच साल पहले थाय छी कस्बे की खूबसूरती को निहारने के लिए एक ऊंची जगह पर स्क्वायर बनाया गया। इसी स्क्वायर पर एक छोटे से मंच में नौ कोनों वाला स्क्वायर है। माना जाता है कि यह प्राचीन चीन के नौ राज्यों का प्रतीक है।
शुन यांग काउंटी (थायछी टाउन) शानसी प्रांत के आन खांग में स्थित है, दक्षिण में यह हूबेई प्रांत और पश्चिम में स्छवान प्रांत से जुड़ी हुई है। इसके साथ ही यह काउंटी हूनान से भी लगती है। इस काउंटी की कुल आबादी लगभग 45 लाख होगी। यह कस्बा अब भी प्राचीन चीनी संस्कृति की झलक पेश करता है।
इसके बाद हम कस्बे में मौजूद चायना हान च्यांग शिपिंग म्यूजिÞयम गए। इसका संचालन लिन क्वेई थांग नाम के व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है। म्यूजिÞयम में प्राचीन समय में शानसी प्रांत व आसपास के क्षेत्र में नदियों आदि में इस्तेमाल आने वाली चीजों को रखा गया है। इसके जरिए हमें पता चला कि पुराने वक्त में लोग नदी आदि पार करने और सामान ले जाने के लिए किन-किन चीजों का इस्तेमाल करते थे। इनमें छोटी नौकाएं, नौकाओं को खींचने आदि की सामग्री और अन्य वस्तुएं शामिल हैं। लिन क्वेई थांग बताते हैं कि जब उन्होंने इस संग्रहालय की शुरुआत की, तब लोग समझते थे कि क्या ऐसा भी हो सकता है। लोगों को उनकी बातों का विश्वास नहीं करते थे। लेकिन उनकी लगन और अपनी मातृभूमि से प्यार ने उक्त म्यूजिÞयम को स्थानीय संस्कृति का एक स्तंभ बना दिया है।
म्यूजियम में जिस तरह प्राचीन और पारंपरिक साधनों को सहेज कर रखा गया है, उससे पता चलता है कि चीनी लोगों में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति कितना लगाव है। यह सब मैंने खुद अपनी आंखों से देखा और महसूस किया।
लोंग थोउ गांव… अनोखा अनुभव
दौरा शुरू होने से पहले ही हमें बताया गया था, जहां हम जाने वाले हैं, उन इलाकों में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। उत्तरी चीन होने की वजह से ठंड के बारे में भी चेताया गया था, क्योंकि वहां घरों में न तो हीटिंग की सुविधा थी और न ही गर्म पानी आदि की। यह भी कहा गया था कि वहां पहुंचने के लिए रास्ता अच्छा नहीं होगा। लेकिन अब तक मैं जितने इलाकों और गांवों में गया था, आमतौर पर वहां सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं मौजूद थीं।
हम 18 फरवरी की शाम 4 बजे लोंग थोउ गांव के लिए चल दिए। लोंग थोउ यानी ड्रैगन का सिर। पहाड़ों के बीच बसे गांव की दूरी मुख्य सड़क से 4 किमी. से अधिक होगी। हमारे दल के लोग आॅडी, टोयोटा आदि एसयूवी कारों में सवार थे। लेकिन मुख्य सड़क से ऊपर गांव के लिए रास्ता पूरी तरह खराब था। वैसे उसे सड़क कहना गलत होगा, क्योंकि वह कच्ची पगडंडी लग रही थी। लेकिन कार वाले ड्राइवर जबरदस्ती उस रास्ते पर गाड़ियां चढ़ा रहे थे। कुछ ही दूरी पर रास्ता और खराब था। गाड़ियों ने जवाब देना शुरू कर दिया। कारों को वहीं रास्ते में रोक दिया गया। बस फिर क्या था, हमें गाड़ियों से उतरने के लिए कहा गया। और हम पैदल ही अपने गंतव्य स्थल की ओर चलने लगे। वैसे भारत में भी उत्तराखंड, हिमाचल के पहाड़ी इलाकों में कई गांवों की स्थिति ऐसी होगी। मैं भारत के पहाड़ी इलाकों में भी कई बार गया हूं, इसलिए मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। हालांकि मैदानी इलाकों से आए लोगों के लिए ऊपर चढ़ना आसान नहीं था। हर कोई उस दौरे को रोमांच के तौर पर ले रहा था। लिहाजा किसी ने कोई शिकायत नहीं की। हम पैदल देर शाम गांव पहुंचे। लेकिन हमारा सामान वहीं कारों में रख दिया गया। हमें अपने सामान की चिंता हो रही थी। लेकिन हमारे गांव में पहुंचने के कुछ ही देर बाद, स्थानीय गांववासी सामान ले आए। ग्रामीणों का यह प्यार और अपनापन देखकर हमारे पास उनसे धन्यवाद कहने के अलावा और कुछ नहीं था।
भारत और चीन के बीच विवाद की खबरें आती हैं, लेकिन चीन में छह साल से अधिक समय से रहते हुए मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ। लोंग थोउ गांव के लोगों के व्यवहार ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया कि विवाद सिर्फ राजनेताओं और मीडिया तक ही सीमित है।
गांव पहुंचने के बाद ग्रामीणों ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया, और हमने उनके साथ डिनर किया।
गांव की बात करूं तो यह पूरी तरह शहरी चकाचौध और सुविधाओं से कटा हुआ है। हालांकि यहां पर बिजली और पानी की व्यवस्था थी। गैस के बजाय यहां के लोग अब भी लकड़ी जलाकर खाना आदि बनाते हैं। वहीं पानी गर्म करने के लिए कोयले का इस्तेमाल किया जाता है। शौचालय भी पश्चिमी स्टायल का नहीं था। गांव में खाने-पीने की कोई कमी नहीं है, क्योंकि यहां फल-सब्जियां पर्याप्त मात्रा में होती हैं। गांव के लोग पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं, वे घर पर ही शराब बनाते हैं। शराब आम तौर पर भुट्टे, गेहूं व अन्य चीजों को मिलाकर बनायी जाती है। त्योहार के मौके पर गांव के लोग एकत्र होकर शराब पीते हैं। साथ ही सोयाबीन का पनीर आदि बनाने से लेकर फर्नीचर व चरखा भी खुद ही कातते हैं। गांव में तंबाकू की खेती भी होती है।
पारंपरिक शराब बनाने के लिए एक बड़े से बक्से में स्थानीय बीजों ‘क्वाय चाव’ को तीस से चालीस दिन तक रखा जाता है। बीज और पत्तियों को सुखाया जाता है और गेहूं के दाने डाले जाते हैं। उसमें पानी भी मिलाया जाता है। फिर आग की भट्टी पर चढ़ा दिया जाता है। एक बड़े बरतन में लगभग दस लीटर शराब बन सकती है। शराब बनने के बाद गर्म होती है, उसे ठंडा होने के लिए रख दिया जाता है। हमने स्थानीय लोगों से शराब के साथ-साथ पारंपरिक तरीके से सोयाबीन का पनीर बनाना भी सीखा।
गांव की कुल आबादी 1,396 है। जिसमें अधिकांश लोग बूढ़े-बुजुर्ग हैं। चीन में पलायन एक समस्या है, युवा बेहतर भविष्य की तलाश में शहरों को चले जाते हैं। ऐसे में गांवों में सिर्फ बूढ़े और शहरों में काम करने वाले मजदूरों के बच्चे रहते हैं। उस गांव मे सत्तर वर्ष की औसत आयु के लोग रहते हैं। गांव के सबसे उम्रदराज व्यक्ति 91 साल के हैं। जबकि अस्सी साल से अधिक की उम्र के बुजुर्ग भी हैं। जब हम गांव में गए तो वहां चीन का सबसे बड़ा उत्सव वसंत त्योहार मनाया जा रहा था। त्योहार के वक्त गांव में हमने रात के समय ड्रैगन, लायन डांस और कठपुतली डांस आदि देखे। जिसमें बुजुर्ग भी बड़े उत्साह से भाग लेते हैें। 21 फरवरी की सुबह हम सू ख कस्बे के लिए चल दिए, वहां से शीआन होते हुए वापस बीजिंग पहुंचे। गांव छोड़ते हुए ऐसा लग रहा था, जैसे हम अपने परिजनों से दूर जा रहे हों, क्योंकि स्थानीय लोगों से हमें लगाव हो गया था। कुछ बुजुर्गों की आंखों में आंसू थे, वे कह रहे थे, अगली बार हमारे गांव जरूर आना।
अब मैं बीजिंग में काम में व्यस्त हूं और मेरा मन फिर से उस गांव में जाने को कर रहा है। कई दिन बीत जाने के बाद भी मुझे गांव की ताजा हवा, पानी और पारंपरिक भोजन याद आ रहे हैं।